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यह 1947 या 1948 की बात होगी, जब हिंदी सिनेमा के सबसे नामचीन एक्टर दिलीप कुमार को इतनी शोहरत नहीं मिली थी, कि उन्हें देखने भीड़ इकट्ठी हो जाए. वह काम के सिलसिले में मुंबई की ट्रेनों में आसानी से सफर कर लेते थे. एक दिन म्यूजिक डायरेक्टर अनिल बिस्वास, दिलीप कुमार और लता मंगेशकर (Lata Mangeshkar) एक ही ट्रेन के एक ही कम्पार्टमेंट में सफर कर रहे थे.
दिलीप कुमार ने अनिल बिस्वास से पूछा कि यह नौजवान लड़की कौन है. उन्होंने बताया कि यह एक नई सिंगर है जो बहुत अच्छा गाती है.
दिलीप कुमार ने उनका नाम पूछा और पूछा कि वो कहां से हैं. अनिल बिस्वास ने नाम बताया और कहा कि महाराष्ट्र से. दिलीप कुमार का जवाब था, लेकिन उनका उर्दू का तलफ्फ़ुज यानी उच्चारण सही नहीं होता, और उनके गाने में आपको दाल-भात की खुशबू आती है.
कैसे वह ऐसा बयान देते हैं और उन्हें भारत की राजनीतिक सच्चाइयों का खौफ नहीं होता. वह कैसा भारत था, जहां लोगों में शायद अपनी क्षेत्रीय पहचान को लेकर इतने आग्रह नहीं थे. वे बिना सोचे-विचारे-समझे बूझे किसी छोटी सी बात पर खफा नहीं होते थे. यह उस दौर का भारत था, जहां उर्दू के लिए नफरत न थी, और सही उर्दू जानना और बोलना फक्र की बात थी. लोगों को उसमें बगावत की बू नहीं आती थी.
उससे भी असाधारण बात लता मंगेशकर की वह कोशिश थी, जो उन्होंने दिलीप कुमार की मजाकिया टिप्पणी के बाद की. नसरीन मुन्नी कबीर के साथ बातचीत में उन्होंने कबूल किया था कि उन्हें यह सुनकर बहुत तकलीफ हुई. लेकिन यह जानकर कि हिंदी फिल्म उद्योग में एक सिंगर के लिए उर्दू जानना कितना जरूरी है, उन्होंने इन कड़वे शब्दों में अच्छाई देखी और इसके बारे में कुछ करने का फैसला किया.
वह मोहम्मद शफी नाम के कंपोजर को जानती थीं जो अनिल बिस्वास और नौशाद के असिस्टेंट थे. उन्होंने मोहम्मद शफी को बताया कि वह उर्दू सीखना चाहती हैं, ताकि वह उसे ठीक तरह से बोल सकें. शफी ने उन्हें महबूब नाम के एक मौलाना से मिलवाया जो उन्हें कुछ दिन उर्दू सिखा सकें.
लता ने उनसे कहा,
तो ऐसा ही हुआ. लता दुखी नहीं हुईं. न ही भाषाई रुढ़िवाद या संकीर्णता की शिकार हुईं. इसकी बजाय उन्होंने खुद को बेहतर करने की कोशिश की
उनकी आवाज की खनक खुदा की रहमत हो सकती है, घंटों घंटों का रियाज उसे और सुरीला बना सकता है. लेकिन शुद्ध उच्चारण, लफ्जों की ‘आवाज’ पर जोर, यह सब उनका अपना किया हुआ था.
जब वह किसी दूसरी भाषा के गाने गाती थीं, जोकि उनकी अपनी नहीं होती थीं, जैसे उर्दू या बांग्ला या तमिल, तो वह पहले उस व्यक्ति को गाने के बोल सुनाने को कहती थीं, जो वह भाषा बोलता था.
जो लोग लता के साथ काम कर चुके हैं, वे इस बात की ताईद करते हैं कि वो मुश्किल लफ्जों के मायने और हाव-भाव समझने की कोशिश करती थीं, सिर्फ उनके सही उच्चारण की नकल नहीं करती थीं.
शायद इसीलिए उन्होंने रजिया सुल्तान में जान निसार अख्तर के गाने ऐ दिले नादान या शंकर हुसैन के आप यूं फासलों से गुजरते रहे, जैसे गीतों को बखूबी गाया. वह भी इतने एहसास से भरकर.
फिर क्लासिकल सांचे में ढली कई ग़ज़लें हैं जैसे ग़ज़ल फिल्म की साहिर लुधियानवी की लिखी गजल. गजल गीतों से अलग तरह से गाई जानी चाहिए. चूंकि इसके दो लाइनों के शेर, छोटे लेकिन गठे हुए होते हैं ताकि शेर के हर लफ्ज समझ में आएं:
नगमा ओ शेर की सौगात किसे पेश करूं
ये छलकते हुए जज़्बात किसे पेश करूं
या दस्तक के लिए मजरूह सुल्तानपुरी की गजल:
हम हैं मताए कूचा बाज़ार की तरह
उठती है हर निगाह खरीददार की तरह
या दर्द फिल्म के लिए नक्श लायलपुरी की लिखी ग़ज़ल:
अहल-ए-दिल यूं ही निभा लेते हैं
दर्द सीने में छिपा लेते हैं
फिर बाजार फिल्म के लिए उन्होंने मखदूम मोहिउद्दीन की गजल गाई:
फिर छिड़ी रात बात फूलों की
शाम फूलों की रात फूलों की
लता और जगजीत सिंह के गाई गैर-फिल्मी ग़ज़लों का एक खजाना है एल्बम सजदा. कतील शिफाई की इस गजल को सुनें और जानें कि असली नगीने क्या होते हैं:
दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह
ऐसा कोई भी जिक्र तब तक पूरा नहीं होता, जब तक गालिब की गजलों का हवाला न दिया जाए. वैसे कई सारी ऑनलाइन मिल जाएंगी लेकिन यह मेरी खासा पसंदीदा है:
फिर मुझे दीदा-ए तर याद आया
दिल जिगर तिशना ए फरियाद आया
अगर भारत कोकिला को कोई सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है तो वह मोमिन खान मोमिन का यह शेर है:
उस गैरत-ए-नाहीद की हरतान है दीपक
शोला सा लपक जाए है आवाजतो देखो
(डॉ. रक्षंदा जलील एक लेखिका, ट्रांसलेटर और लिटररी हिस्टोरियन हैं. उनका लेखन साहित्य, संस्कृति और समाज पर रहा है. उनका संगठन हिंदुस्तानी आवाज, उर्दू साहित्य को लोकप्रिय बनाने का काम कर रहा है. उनका ट्विटर हैंडिल है @RakhshandaJalil. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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