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डेसमंड टूटू ने जिस एक शब्द को दुनिया का सबसे मुश्किल शब्द कहा था, न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्डर्न (Jacinda Ardern) ने अपने देश की अल्पसंख्यक आबादी को वह शब्द बोल दिया. सॉरी!! जेसिंडा ने अपने देश में रहने वाले पैसिफिका लोगों से सत्तर के दशक की ज्यादतियों के लिए आधिकारिक रूप से माफी मांगी है.
पैसिफिका लोग न्यूजीलैंड में सिर्फ 7.4 प्रतिशत हैं. उनसे माफी मांगने, न मांगने का जेंसिडा की राजनीतिक उपलब्धियों पर कोई असर नहीं होने वाला. लेकिन फिर भी जेसिंडा ने उनसे माफी मांगी है. अपने पूर्ववर्ती नेताओं की गलतियों के लिए.
पैसिफिका लोग, यानी पेसेफिक आइलैंड्स से न्यूजीलैंड में सालों पहले माइग्रेट होने वाले लोग. सत्तर के दशक में उन लोगों के खिलाफ ‘डॉन रेड्स’ नामक अभियान चलाया गया था. वीजा से ज्यादा समय तक न्यूजीलैंड में रहने के नाम पर उन्हें उनके घरों से तड़के सुबह निकाला जाता था. फिर पुलिसिया यातनाएं शुरू होती थीं. जेलों में बंद किया जाता था. दूसरे देशों के प्रवासियों के मुकाबले उनसे ज्यादा बदसलूकियां की जाती थीं.
जेसिंडा ने इस ऐतिहासिक नस्लवादी नीति पर माफी मांगी है- न सिर्फ अंग्रेजी में, बल्कि माओरी, तोंगन और सामोअन में भी. ये तीनों भाषाएं ओशिआनिया में बोली जाती हैं. एक बात और, न्यूजीलैंड की सरकार ने ‘डॉन रेड्स’ के काले अध्याय को इतिहास की किताबों में शामिल करने का भी फैसला किया है.
जेसिंडा वह पहली नेता नहीं हैं, जिन्होंने अतीत की गलतियों पर माफी मांगी है. इसी साल अमेरिका के इतिहास के सबसे बुरे तुलसा नरसंहार पर कई नेता माफी मांग चुके हैं. 1921 में ओक्लाहोमा के शहर तुलसा में व्हाइट लोगों ने दो दिनों तक मार-काट मचाई थी जिसमें 300 से ज्यादा ब्लैक लोगों की जान गई थी. इस साल इस घटना के सौ साल पूरे हुए और खुद तुलसा के मेयर ने वहां के ब्लैक लोगों से माफी मांगी.
कई साल पहले कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो कोमागाता मारू घटना के लिए माफी मांग चुके हैं. 1914 में कोमागाता मारू नाम के जहाज से साढ़े तीन सौ से ज्यादा भारतीय कनाडा पहुंचे लेकिन ज्यादातर को वापस भेज दिया गया. वापस भारत लौटने पर उन लोगों पर गोलीबारी की गई और 19 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा. यह घटना नस्लवाद का प्रतीक है, और ट्रूडो ने इसके लिए माफी मांगकर कनाडा में कानून के जरिए किए गए अन्याय और भेदभाव के लिए भी शर्मिन्दगी जाहिर की थी.
इस बीच हम पश्चिमी जर्मनी के चांसलर विली ब्रैंड्ट की माफी को नहीं भूल सकते. विली ब्रैंड्ट की सत्तर की दशक की उस तस्वीर को याद कीजिए जब वह वारसा घेटो के स्मारक के सामने घुटनों के बल सिर झुकाकर बैठ गए थे. बोले तो कुछ नहीं थे लेकिन उनकी एक मुद्रा हजार शब्दों से भी ज्यादा प्रभावशाली थी. आंख बंदकर मानो यहूदियों के साथ हुए अन्याय की माफी मांग रहे थे. नाजी कुकर्मों की माफी मांग रहे थे. ‘शैतान जर्मन लोगों’ की छवि की बजाय वह ऐसी शख्सीयत के तौर पर दिखाई दिए थे जो प्रायश्चित करना चाहता है. इस बात की जिम्मेदारी लेना चाहता है कि देश की राजनीति में कुछ तो गलत हुआ था.
यह हिम्मत सबमें नहीं होती. अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इसका उदाहरण हैं. वह कभी माफी नहीं मांगते. ऐसे ही ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री जॉन होवार्ड साफ मना कर चुके हैं कि वह ओबोरिजिनीज, यानी ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों से माफी नहीं मांगेंगे. भला, वर्तमान पीढ़ी को अतीत के गुनाहों की माफी क्यों मांगनी चाहिए- वह सवाल कर चुके हैं.
यूके के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर 19वीं शताब्दी में आइरिश आलू अकाल के लिए माफी मांगने के लिए तो तैयार हो गए थे लेकिन औपनिवेशिक शासन के पापों के लिए नहीं. हां, पूर्व प्रधानमंत्री डेविड कैमरून भारत के जलियांवाला बाग कांड के लिए माफी मांगते-मांगते रह गए थे. उन्होंने बस इसे एक शर्मनाक घटना बताकर कन्नी काट ली थी.
अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन तो नॉन अपॉलोजी के बादशाह माने जाते थे. जिसे अंग्रेजी में कहा जाता है, ‘एक्सपर्ट इन द आर्ट ऑफ नॉन अपॉलोजी’. वाटरगेट स्कैंडल में उन्होंने सिर्फ इतना कहा था, मिस्टेक्स वर मेड (गलतियां हो गईं). इसके बाद रोनाल्ड रीगन ने ईरान कॉन्ट्रा मामले में यही रवैया अपनाया था.
सोचिए अगर अमेरिका दूसरे विश्व युद्ध में जापानी लोगों को कैद करने पर माफी मांगता. जापान इस बात पर माफी मांगता कि उसने युद्ध में क्या-क्या किया था. अमेरिका हिरोशिमा-नागासाकी के लिए माफी मांगता. अपने यहां सिख और मुसलमानों के कत्ले आम पर माफियां मांगी जातीं. दलितों, आदिवासियों के साथ बुरे सलूक- रोजाना की प्रताड़नाओं की माफी मांगी जाती? पर सच और घावों पर मरहम रखना तो बहुसंख्यक राजनीति के लिए अनजानी बात है. इसके लिए आत्मालोचना की जरूरत होती है. उस असल नेतृत्व की जरूरत होती है जो खुद को ही नहीं, सबको अपने भीतर झांककर उस घृणा के स्रोत को पहचानने को कहता है.
ये माफियां न्यूजीलैंड, कनाडा, जर्मनी, अमेरिका में मांगी गई हैं. लोकतंत्र, स्वतंत्रता, न्याय इत्यादि की मिसालें. लेकिन अगर हम इन आधुनिक राष्ट्र राज्यों के इतिहास को खंगालें तो यही पाएंगे कि इनकी नींव मूल निवासियों के नरसंहार पर ही रखी गई है.
हेनरी सातवें ने इंग्लैंड से जिप्सियों को बेदखल किया था. किंग फर्नान्डो और क्वीन इसाबेल ने यहूदियों को स्पेन से बाहर निकाला था. तुर्की और ग्रीस की ट्रीटी में ‘लोगों का एक्सचेंज’ हुआ था. बकौल, मशहूर सोशलॉजिस्ट एंड्रिएस विमर, आधुनिक राष्ट्र राज्यों में बड़े पैमाने पर इनडिजीनियस लोगों का दमन किया गया.
एक तरफ लोकतंत्र, नागरिकता और संप्रभुता के नारे बुलंद किए गए, लोगों को साथ लेकर चलने के दावे किए गए- दूसरी तरफ जातीयता या राष्ट्रीयता के आधार पर लोगों को अलग-थलग करने के मानदंड बनाए गए.
आधुनिकता का सबसे बड़ा संकेत- राजनीतिक भागीदारी होता है. कानून की नजरों में सबको एक बराबर मानना. जब राज्य की शक्ति का मनमाने ढंग से इस्तेमाल न हो. कमजोर और गरीब लोगों की रक्षा हो. सामजिक न्याय और सुरक्षा प्राप्त हो. जब किसी को यह सब मिलता है तभी माना जाता है कि कोई वर्ग किसी देश में दूसरों के बराबर है.
जेसिंडा ने ऐसे वक्त में माफी मांगी है, जब जाति, नस्ल और धर्म के नाम पर पूरी दुनिया तबाह की जा रही है. नस्लीय सफाए की जुगत भिड़ाई जा रही है. हर देश में ऐसे समूह मौजूद हैं जिनके जख्मों से लहू टपक रहा है, पर दुनिया में गजब की बेपरवाही है. जेसिंडा की माफी आत्मावलोकन की भाषा है.
माफी मांगना और माफ करना, अतीत, वर्तमान और भविष्य के बीच एक कड़ी का काम करता है. माफी से किसी वर्ग, किसी समूह को यह तसल्ली होती है कि देश उन्हें अपना मानता है. उनकी आशंका देश की आशंका है. उनके खिलाफ किसी हिंसा को लापरवाही से नहीं लिया जाता. उन पर हमला करने वाले को कोई समुदाय, कोई राजनीतिक दल अपनाने को तैयार नहीं. यह एक बड़ा आश्वासन है कि घृणा प्रचारक या घृणा की हिंसा का कोई पैरोकार नहीं है.
यूं जॉन होवार्ड जैसे नेता पूछ चुके हैं कि युवा पीढ़ी बीतें दिनों के लिए माफी क्यों मांगे? इसके हिमायती भी कई हो सकते हैं. पर अपने किए की माफी मांगने में क्या गुरेज? इस लिहाज से हम एक नई मिसाल भी कायम कर सकते हैं.
पिछले दिनों कनाडा में एक मुसलमान परिवार पर हिंसा के बाद प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने कहा था कि उनके देश में घृणा जिंदा है जो बाहर निकल रही है. उन्होंने इस हिंसा पर लीपापोती नहीं की थी. न ही उनके पाकिस्तानी मूल, मुसलमान होने की वजह से हत्या को जायज ठहराया था. वहां की राजनीति ने इस घृणा को सहलाया नहीं था. कानून का पालन करने वाली एजेंसियों ने इस मामले में नरमी नहीं दिखाई थी.
हम ट्रुडो से एक कदम आगे जा सकते हैं. ऐसी हिंसा को पहचानने के साथ-साथ उसके लिए माफी मांग सकते हैं. रोजाना की हिंसा पर. अतीत के लिए नहीं, वर्तमान के लिए. चूंकि यहां धार्मिक अभियानों को अक्सर हिंसा का बहाना बनाया गया. भले कांग्रेस ने सिख दंगों के लिए माफी न मांगी हो लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसके लिए क्षमा मांग चुके हैं. क्या 2002 में गुजरात के लिए प्रधानमंत्री माफी मांगना चाहेंगे? या दिल्ली में ‘गोली मारने’ की इच्छा जाहिर करने वाले अपनी टिप्पणियों पर सोचना चाहेंगे? बहुसंख्यक समुदाय धर्म के इस अर्थ के लिए माफी मांगना चाहेगा?
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