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Maharashtra Politics: प्रधानमंत्री मोदी ने उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना को नकली करार दिया है. पंचायत बैठी है कि बाल ठाकरे ने जिस शिवसेना को आधी सदी पहले स्थापित किया था, उनके टूट से निकले 2 संगठन में से कौन सा असली है और कौन सा नकली है.
नरेंद्र मोदी ने जो कटाक्ष किया है, वह उद्धव के नेतृत्व वाले संगठन से बीजेपी के निपटने की नाकामी पर झुंझुलाहट का संकेत है. उद्धव ने इस प्रमुख राज्य में दो फाड़ होने और सत्ता छीनने के बावजूद हाशिए पर जाने से इनकार कर दिया है.
मोदी की टिप्पणी पर पलटवार करते हुए, सेना प्रमुख ने कहा कि उनकी पार्टी पीएम की डिग्री से बिल्कुल अलग है. इस तरह उन्होंने पीएम मोदी की डिग्री को 'फर्जी' बता दिया.
लेकिन देखिए, उद्धव गुट फीनिक्स की तरह उभरा- यानी ऐसा काल्पनिक पक्षी जो अपने खुद के राख से फिर जन्म लेता है. उद्धव विपक्षी खेमे की पहली पंक्ति में जगह बनने में कामयाब रहे.
तथ्य यह है कि लोकसभा चुनाव के लिए एमवीए की सीट शेयरिंग आवंटन में कुल 48 सीटों में से उद्धव सेना ने 21 सीटें हासिल की हैं. इसके बाद कांग्रेस की 17 और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की 10 सीटें हैं, जो अपनी कहानी खुद बताती है. इसके विपरीत, मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली सेना गुट को लोकसभा चुनाव से पहले संकट में देखा जा रहा है और मोदी-शाह उन्हें और उनके संगठन को हाशिये पर धकेलने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं.
जब भी बीजेपी को लगेगा कि वे किसी काम के नहीं रह गए हैं तो 'इस्तेमाल करो और फेंक दो' का फॉर्मूला हर सहयोगी दलों पर लागू होगा. यानी, हम महाराष्ट्र में भी एक या दो 'पशुपति पारस' को देख सकते हैं- जैसा बिहार में हुआ.
एक अलग पहचान होने और शिवाजी महाराज की विरासत का दावा करने के बावजूद, महाराष्ट्र हमेशा राजनीति की मुख्यधारा में रहा है जहां राष्ट्रीय दलों का महत्व रहा है. इसी विशेषता ने कांग्रेस को अपनी स्थापना के बाद से लगभग दो से तीन दशक पहले राज्य में सत्ता हासिल करने में मदद की थी.
महाराष्ट्र अलग है. राज्य में अब तक कोई भी क्षेत्रीय दल अपने दम पर सत्ता में नहीं आ सका है. यह तथ्य इस राज्य के बारे में बहुत कुछ बताता है.
करीब से देखने पर पता चलता है कि चार साल पहले जब बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ने के बाद शिवसेना ने अपनी राजनीति एकदम उलट दी थी. वह कांग्रेस के लिए 'लालू' बन गई थी और राहुल गांधी के लिए खड़ी हो गई थी. अब यह न केवल महाराष्ट्र में अपनी जगह बनाने में सक्षम हो गई है, बल्कि राज्य के विपक्ष में भी अपनी पकड़ बना रही है.
इसका मतलब यह है कि एकनाथ शिंदे ने 'महाशक्ति' की सहायता से अधिकांश सांसदों और विधायकों को अपने साथ ले लिया है- जैसा कि उन्होंने एक बार बीजेपी को तारीफ में कहा था. इससे एक तरह से उद्धव को खुद के दम पर लड़ने में मदद मिली है.
एक तरह से उद्धव शरद पवार के आशीर्वाद से महाराष्ट्र की 'ममता बनर्जी' बनने की कोशिश कर रहे हैं. शरद पवार भी उसी तरह की चुनौती का सामना कर रहे हैं.
लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र की दौड़ और तेज होने वाली है. 4 जून को जो नतीजे आएंगे वो विधानसभा चुनावों के लिए लाइनअप का संकेत देंगे. राज ठाकरे के शामिल होने से विधानसभा चुनाव से पहले एनडीए के और सरगर्म होने की उम्मीद है.
एनडीए को महाराष्ट्र में महायुति कहा जाता है. वर्तमान में इसकी सीट आवंटन को अंतिम रूप देने में अब तक की विफलता को इस रूप में देखा जा रहा है कि सत्तारूढ़ गठबंधन पहले ही इस प्रमुख राज्य में गति खो रहा है.
सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों बीजेपी असली शिवसेना को किसी न किसी तरह से हाशिए पर धकेलने पर आमादा है. सीएम शिंदे दिन पर दिन अधिक कमजोर और शक्तिहीन दिख रहे हैं क्योंकि बीजेपी ने उन्हें अपने कम से कम तीन मौजूदा सांसदों को बदलने के लिए मजबूर किया है और उनकी कुछ सीटों पर कब्जा करने पर आमादा है. अनकहा तर्क यह है कि उनकी पार्टी या उम्मीदवार के जीतने की संभावना कम है.
दिलचस्प बात यह है कि बीजेपी ने महाराष्ट्र की राजनीति में बदलाव लाने में जानबूझकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. महाराष्ट्र की राजनीति 1960 में अपनी स्थापना के बाद से सबसे अधिक घालमेल वाली स्थिति में है.
यहां सवाल यह है कि पार्टी में विभाजन के बाद पहला विधानसभा उपचुनाव जीतने वाली नकली शिवसेना के पीछे प्रधानमंत्री क्यों पड़े हैं? यह बात सोचने वाली है कि उद्धव पूरे राज्य में अच्छी भीड़ क्यों खींच रहे हैं? क्या यह स्वीकार करना नहीं है कि जिसे मोदी 'नकली' बता रहे हैं वो मराठों की भूमि पर विश्वगुरु को टक्कर दे रहा है?
प्रधानमंत्री मराठी वोटरों को भटकाने का प्रयास कर रहे हैं, जिन्होंने मराठों का दिल्ली के शासकों के सामने आत्मसमर्पण करना कभी पसंद नहीं किया. शिंदे बाल ठाकरे की विरासत पर केवल इस साधारण कारण से दावा नहीं कर सकते कि बाल ठाकरे ने संसद में कम प्रतिनिधित्व के बावजूद राजनीति में कभी भी गौण भूमिका नहीं निभाई.
वह पहले हिंदू हृदय सम्राट थे, जिन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के बाद जब नई दिल्ली में बीजेपी उन पर निशाना साध रही थी, तब मोदी को मुख्यमंत्री पद बरकरार रखने में मदद की थी. आज समय बदल गया है.
(सुनील गाताडे प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के पूर्व एसोसिएट एडिटर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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