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महाराष्ट्र: मोदी के 'नकली' बताने से उद्धव या उनकी शिवसेना की राह पर कोई असर नहीं पड़ता

झटके के बावजूद उद्धव गुट फीनिक्स की तरह उभरा. उद्धव ठाकरे विपक्षी खेमे की पहली पंक्ति में जगह बनने में कामयाब रहे हैं.

सुनील गाताडे
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>Maharashtra Politics: Shivsena vs BJP</p></div>
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Maharashtra Politics: Shivsena vs BJP

((फोटो: विभूषिता सिंह/द क्विंट)

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Maharashtra Politics: प्रधानमंत्री मोदी ने उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना को नकली करार दिया है. पंचायत बैठी है कि बाल ठाकरे ने जिस शिवसेना को आधी सदी पहले स्थापित किया था, उनके टूट से निकले 2 संगठन में से कौन सा असली है और कौन सा नकली है.

नरेंद्र मोदी ने जो कटाक्ष किया है, वह उद्धव के नेतृत्व वाले संगठन से बीजेपी के निपटने की नाकामी पर झुंझुलाहट का संकेत है. उद्धव ने इस प्रमुख राज्य में दो फाड़ होने और सत्ता छीनने के बावजूद हाशिए पर जाने से इनकार कर दिया है.

मोदी की टिप्पणी पर पलटवार करते हुए, सेना प्रमुख ने कहा कि उनकी पार्टी पीएम की डिग्री से बिल्कुल अलग है. इस तरह उन्होंने पीएम मोदी की डिग्री को 'फर्जी' बता दिया.

चुनाव आयोग ने उद्धव से चुनाव चिह्न छीन लिया. विधानसभा अध्यक्ष ने बीजेपी की स्क्रिप्ट के अनुसार काम किया- ऐसे में यह सोचा गया था कि महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार का पतन उद्धव और उनके संगठन के लिए अस्तित्व के खात्मे की आहट जैसा होगा.

कैसे उद्धव के नेतृत्व वाली शिवसेना ने वापसी की?

लेकिन देखिए, उद्धव गुट फीनिक्स की तरह उभरा- यानी ऐसा काल्पनिक पक्षी जो अपने खुद के राख से फिर जन्म लेता है. उद्धव विपक्षी खेमे की पहली पंक्ति में जगह बनने में कामयाब रहे.

तथ्य यह है कि लोकसभा चुनाव के लिए एमवीए की सीट शेयरिंग आवंटन में कुल 48 सीटों में से उद्धव सेना ने 21 सीटें हासिल की हैं. इसके बाद कांग्रेस की 17 और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की 10 सीटें हैं, जो अपनी कहानी खुद बताती है. इसके विपरीत, मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली सेना गुट को लोकसभा चुनाव से पहले संकट में देखा जा रहा है और मोदी-शाह उन्हें और उनके संगठन को हाशिये पर धकेलने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं.

अगर डिप्टी सीएम अजित पवार बारामती की सीट को शरद पवार के पंजे से निकालकर बीजेपी को दिलाने में विफल रहे तो लोकसभा चुनाव के बाद उनका भी यही हाल होने वाला है.

जब भी बीजेपी को लगेगा कि वे किसी काम के नहीं रह गए हैं तो 'इस्तेमाल करो और फेंक दो' का फॉर्मूला हर सहयोगी दलों पर लागू होगा. यानी, हम महाराष्ट्र में भी एक या दो 'पशुपति पारस' को देख सकते हैं- जैसा बिहार में हुआ.

एक अलग पहचान होने और शिवाजी महाराज की विरासत का दावा करने के बावजूद, महाराष्ट्र हमेशा राजनीति की मुख्यधारा में रहा है जहां राष्ट्रीय दलों का महत्व रहा है. इसी विशेषता ने कांग्रेस को अपनी स्थापना के बाद से लगभग दो से तीन दशक पहले राज्य में सत्ता हासिल करने में मदद की थी.

इसने राज्य में कोई कद्दावर नेता नहीं होने और पिछले एक दशक से हावी होने की कोशिश कर रही बीजेपी के बावजूद कांग्रेस को अस्तित्व में बनाए रखा है.

महाराष्ट्र के विपक्ष में शिवसेना की महत्वपूर्ण भूमिका

महाराष्ट्र अलग है. राज्य में अब तक कोई भी क्षेत्रीय दल अपने दम पर सत्ता में नहीं आ सका है. यह तथ्य इस राज्य के बारे में बहुत कुछ बताता है.

करीब से देखने पर पता चलता है कि चार साल पहले जब बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ने के बाद शिवसेना ने अपनी राजनीति एकदम उलट दी थी. वह कांग्रेस के लिए 'लालू' बन गई थी और राहुल गांधी के लिए खड़ी हो गई थी. अब यह न केवल महाराष्ट्र में अपनी जगह बनाने में सक्षम हो गई है, बल्कि राज्य के विपक्ष में भी अपनी पकड़ बना रही है.

इसका मतलब यह है कि एकनाथ शिंदे ने 'महाशक्ति' की सहायता से अधिकांश सांसदों और विधायकों को अपने साथ ले लिया है- जैसा कि उन्होंने एक बार बीजेपी को तारीफ में कहा था. इससे एक तरह से उद्धव को खुद के दम पर लड़ने में मदद मिली है.

एक तरह से उद्धव शरद पवार के आशीर्वाद से महाराष्ट्र की 'ममता बनर्जी' बनने की कोशिश कर रहे हैं. शरद पवार भी उसी तरह की चुनौती का सामना कर रहे हैं.

लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र की दौड़ और तेज होने वाली है. 4 जून को जो नतीजे आएंगे वो विधानसभा चुनावों के लिए लाइनअप का संकेत देंगे. राज ठाकरे के शामिल होने से विधानसभा चुनाव से पहले एनडीए के और सरगर्म होने की उम्मीद है.

यदि मोदी को तीसरा कार्यकाल मिलता है, तो बीजेपी का एकमात्र ध्यान इस बात पर होगा कि राज्य में खुद के दम पर सत्ता की कुर्सी पर कैसे बैठा जाए, इसके लिए बहुत उलट-फेर होगा.
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क्या बीजेपी अपने इस प्रमुख राज्य में पकड़ खो रही है?

एनडीए को महाराष्ट्र में महायुति कहा जाता है. वर्तमान में इसकी सीट आवंटन को अंतिम रूप देने में अब तक की विफलता को इस रूप में देखा जा रहा है कि सत्तारूढ़ गठबंधन पहले ही इस प्रमुख राज्य में गति खो रहा है.

यह उस राज्य के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है जिसे बीजेपी अपना 'उत्तर प्रदेश' या 'गुजरात' बनाना चाहती है. कोई यह नहीं कह रहा है कि बीजेपी शक्तिहीन है लेकिन वह अपनी नासमझी का परिचय देते हुए बहुत सारे हथकंडे अपना रही है.

सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों बीजेपी असली शिवसेना को किसी न किसी तरह से हाशिए पर धकेलने पर आमादा है. सीएम शिंदे दिन पर दिन अधिक कमजोर और शक्तिहीन दिख रहे हैं क्योंकि बीजेपी ने उन्हें अपने कम से कम तीन मौजूदा सांसदों को बदलने के लिए मजबूर किया है और उनकी कुछ सीटों पर कब्जा करने पर आमादा है. अनकहा तर्क यह है कि उनकी पार्टी या उम्मीदवार के जीतने की संभावना कम है.

दिलचस्प बात यह है कि बीजेपी ने महाराष्ट्र की राजनीति में बदलाव लाने में जानबूझकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. महाराष्ट्र की राजनीति 1960 में अपनी स्थापना के बाद से सबसे अधिक घालमेल वाली स्थिति में है.

इसका एक कारण यह है कि 2014 में राष्ट्रीय परिदृश्य पर मोदी के उभरने के बाद बीजेपी नंबर 4 से नंबर 1 स्थान पर पहुंच गई, लेकिन राज्य पर अपना पूरा प्रभाव नहीं जमा पाई है. 288 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत के लिए 145 का आंकड़ा बीजेपी के पास नहीं है. उसे 2014 में 122 और 2019 में 105 सीटें मिली थीं.

यहां सवाल यह है कि पार्टी में विभाजन के बाद पहला विधानसभा उपचुनाव जीतने वाली नकली शिवसेना के पीछे प्रधानमंत्री क्यों पड़े हैं? यह बात सोचने वाली है कि उद्धव पूरे राज्य में अच्छी भीड़ क्यों खींच रहे हैं? क्या यह स्वीकार करना नहीं है कि जिसे मोदी 'नकली' बता रहे हैं वो मराठों की भूमि पर विश्वगुरु को टक्कर दे रहा है?

प्रधानमंत्री मराठी वोटरों को भटकाने का प्रयास कर रहे हैं, जिन्होंने मराठों का दिल्ली के शासकों के सामने आत्मसमर्पण करना कभी पसंद नहीं किया. शिंदे बाल ठाकरे की विरासत पर केवल इस साधारण कारण से दावा नहीं कर सकते कि बाल ठाकरे ने संसद में कम प्रतिनिधित्व के बावजूद राजनीति में कभी भी गौण भूमिका नहीं निभाई.

वह पहले हिंदू हृदय सम्राट थे, जिन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के बाद जब नई दिल्ली में बीजेपी उन पर निशाना साध रही थी, तब मोदी को मुख्यमंत्री पद बरकरार रखने में मदद की थी. आज समय बदल गया है.

(सुनील गाताडे प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के पूर्व एसोसिएट एडिटर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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