महाराष्ट्र (Maharashtra) : लोकसभा चुनाव से पहले राज्य की क्षेत्रीय पार्टियों में या तो टूट हो रही है या फिर नेता पाला बदल रहे हैं. कुछ ऐसी ही स्थिति कांग्रेस की है, जहां एक महीने के अंदर पार्टी के तीन बड़े नेताओं ने "हाथ" का साथ छोड़ दिया है और अब ये एनडीए के साथ हो गए हैं. लेकिन सवाल है कि इन नेताओं के पार्टी छोड़ने से कांग्रेस की स्थिति क्या है और इसका चुनाव पर क्या असर होगा?
कांग्रेस की स्थिति क्या है?
कांग्रेस को महाराष्ट्र में पहला झटका राहुल गांधी की "भारत जोड़ो न्याय यात्रा" के शुरू होने से पहला लगा, जब 14 जनवरी को पूर्व केंद्रीय मंत्री मिलिंद देवरा ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया. उन्होंने अंग्रेजी में "एक्स" पर किए गये पोस्ट में लिखा कि "पार्टी के साथ मेरे परिवार का 55 साल पुराना रिश्ता खत्म हो गया है." वो पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली देवरा के बेटे हैं, जिन्हें गांधी परिवार का करीबी माना जाता था. जबकि मिलिंद राहुल गांधी टीम के बताए जाते हैं, लेकिन उनकी भी राहुल से नजदीकियां कुछ सालों से कम हो गई थी.
कांग्रेस से इस्तीफा देने के बाद मिलिंद एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना में शामिल हो गये थे. माना जा रहा है कि शिंदे सेना उन्हें मुंबई दक्षिण से लोकसभा का टिकट दे सकती है, जो उनकी पैतृक सीट है, और वो दो बार उस सीट से सांसद भी रह चुके हैं.
दूसरे नेता हैं, महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री और बांद्रा के कद्दावर नेता बाबा जियाउद्दीन सिद्दीकी हैं, जिन्होंने पिछले गुरुवार (8 फरवरी) को कांग्रेस का 'हाथ' छोड़ दिया. सिद्दीकी करीब 48 साल तक पार्टी के वफादार रहे. कांग्रेस छोड़ने के बाद उन्होंने एनसीपी का दामन थाम लिया.
इस लिस्ट में तीसरा और सबसे बड़ा चेहरा है राज्य के पूर्व सीएम अशोक चव्हाण का, जिन्होंने 12 फरवरी को कांग्रेस छोड़ने की घोषणा की और 13 फरवरी को बीजेपी में शामिल हो गये. अशोक पूर्व मुख्यमत्री शंकर राव चव्हाण के बेटे हैं, जो दो बार महाराष्ट्र के सीएम और केंद्र में वित्त और गृह मंत्री रह चुके हैं. अशोक चव्हाण वर्तमान महाराष्ट्र कांग्रेस चीफ नाना पटोले के कार्यशैली से नाराज बताए जा रहे हैं, उन्होंने इस बात के संकेत पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को दिए थे लेकिन उनके इश्य़ू को ध्यान नहीं दिया गया.
यानी कुल मिलाकर देखें तो एक महीने के भीतर कांग्रेस को महाराष्ट्र में तीन बड़े झटके लगे हैं. ये झटके लोकसभा चुनाव से पहले और कांग्रेस की "भारत जोड़ो न्याय यात्रा" के बीच में लगे हैं, जो 20 मार्च को मुंबई में समाप्त होगी. हालांकि, कांग्रेस तीनों नेताओं को लेकर केंद्र सरकार पर निशाना साध रही है, और उनका आरोप है कि "वाशिंग मशीन (बीजेपी या उसके सहयोगी दलों)" में जाने से इनके (नेताओं) दाग (कथित घोटालों की केंद्रीय एजेंसियों द्वारा जांच रुक जाएगी) धुल जाएंगे.
अब सवाल है कि इन नेताओं के जाने से कांग्रेस की क्या स्थिति है? दरअसल, मिलिंद देवरा और बाबा जियाउद्दीन सिद्दीकी अपने क्षेत्र तक सीमित थे, लेकिन अशोक चव्हाण के मामले में ऐसा नहीं है, वो राज्य के बड़े मराठवाडा नेता हैं, और दो बार सीएम रहने के अलावा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे हैं.
अशोक चव्हाण मराठावाड़ा में नांदेड क्षेत्र से आते हैं, और उनकी इस इलाके में अच्छी पकड़ है. 2014 के मोदी लहर में भी अशोक चव्हाण यहां अपनी सीट निकालने में सफल हुए थे,जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में वो दूसरे नंबर पर थे. हालांकि, 2019 में ही हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में अशोक चव्हाण ने जीत हासिल की थी और बीजेपी के श्रीनिवास को 97445 वोटों से मात दी थी. इस सीट पर कांग्रेस 8 बार कब्जा करने में सफल रही है जबकि बीजेपी का यहां अब तक कभी खाता भी नहीं खुला है.
चव्हाण के जाने से कांग्रेस को नादेंड में बड़ा झटका लगा है. उनकी पहचान जमीनी और जन नेता के तौर पर होती है. महाराष्ट्र को लेकर आए हालिया चुनावी सर्वे में भी 'INDIA' ब्लॉक राज्य में अन्य जगहों की अपेक्षा मजबूत दिख रहा था, ऐसे में चुनाव से ऐन वक्त पहले चव्हाण का जाना कांग्रेस के लिए बड़ा नुकसान साबित हो सकता है. इसके अलावा, पार्टी को इसका असर मराठा वोटों के नुकसान के तौर पर भी उठाना पड़ सकता है. क्योंकि एनसीपी के बाद कांग्रेस में अशोक चव्हाण बड़े मराठवाडा नेता थे.
अशोक संगठन के नजरिए से भी कांग्रेस के मजबूत स्तंभ थे. ऐसे में उनका जाना कांग्रेस के लिए कई मोर्चो पर नुकसानदायक है. इसका जिक्र कांग्रेस नेता संजय निरूपम ने भी किया है.
वहीं, बाबा जियाउद्दीन सिद्दीकी के जाने से कांग्रेस को बांद्रा में बड़ा झटका लगा है. बाबा 1999, 2004 और 2009 में तीन बार बांद्रा पश्चिम विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहे हैं. उनके जाने से बांद्रा क्षेत्र के साथ मुस्लिम वोटों पर भी कांग्रेस को असर पड़ सकता है. हालांकि उनके बेटे जीशान सिद्दीकी बांद्रा पूर्व निर्वाचन क्षेत्र से अभी कांग्रेस विधायक हैं.
जबकि मिलिंद देवरा के जाने से कांग्रेस को मुंबई दक्षिण सीट पर नुकसान होगा. मिलिंद ने दक्षिण मुंबई में कांग्रेस की रणनीति को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उनके जाने से कांग्रेस की स्थिति कमजोर हो गई है, जिससे एक खालीपन आ गया है जिसे आगामी चुनावों में भरना चुनौतीपूर्ण हो सकता है.
मिलिंद के जाने से पार्टी को आर्थिक तौर पर भी झटका लगा है. पहले उनके पिता मुरली देवरा और फिर मिलिंद, दोनों का औद्योगिक दिग्गजों के साथ बेहतरीन संबंध था, जिसका लाभ पार्टी को मिलता था, इसलिए खड़गे ने अपनी टीम में मिलिंद को संयुक्त कोषाध्यक्ष की जिम्मेदारी दी थी.
ऐसे में जब पार्टी राज्य दर राज्य चुनाव हार रही है और लोकसभा चुनाव के मुहाने पर देश खड़ा है, तो पार्टी को राजनीतिक और आर्थिक दोनों तौर पर मिलिंद की कमी खलेगी, जो पार्टी चलाने और फंडिंग के नजरिये से कांग्रेस को लाभ दिला सकते हैं.
हालांकि, यहां गौर करने वाली बात यहा है कि तीनों नेताओं ने पार्टी छोड़ते हुए ये आरोप लगाया कि हाईकमान ने उनकी बात को नजरअंदाज कर दिया,
कांग्रेस की स्थिति पर जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर आनंद कुमार ने कहा, "लगातार नेताओं का कांग्रेस से जाना, पार्टी के लिए खतरे की घंटी है. इससे कांग्रेस खत्म नहीं होगी, लेकिन उसकी जड़ें जरूर कमजोर होगीं. पार्टी के लिए ये वक्त आत्मचिंतन करने का है कि आखिर क्यों उसके पुराने खंभे छोड़कर जा रहे हैं और यात्रा के जरिए जो नए खंभे बनाने की कोशिश की जा रही है उसकी क्या स्थिति है. महाराष्ट्र की मौजूदा सियासत इस वक्त राष्ट्रीय मुद्दों से अधिक क्षेत्रीय दबाव से ज्यादा प्रभावित नजर आ रही है."
जहां गये वहां क्या लाभ मिलेगा?
मिलिंद देवरा के शिंदे सेना में शामिल होने से पार्टी के पाले में मुंबई दक्षिण सीट आ सकती हैं, जहां से उद्धव सेना के नेता अरविंद सांवत सांसद हैं और गठबंधन में भी वो ही इस पर दावा कर रहे हैं. क्योंकि 2014 और 2019 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस-शिवसेना का गठबंधन नहीं था, तो ये सीट आराम से मिलिंद के हिस्से में आ रही थी.
अगर मिलिंद के चुनाव लड़ने से शिंदे सेना के पाले में ये सीट आ गई तो न सिर्फ एकनाथ शिंदे मजबूत होंगे पार्टी उनकी राजनीतिक ताकत भी बढ़ेगी, जो एनडीए के नंबर को बढ़ाने में भी मजबूती से काम आएगा. यहां गौर करने वाली बात यह है कि मोदी लहर के बावजूद 2014 और 2019 लोकसभा चुनाव में मिलिंद मुंबई दक्षिण सीट पर दूसरे नंबर पर थे. ऐसे में यहां उनके जीतने की संभावना की जा रही है.
वहीं, बाबा जियाउद्दीन सिद्दीकी के अजित पवार के साथ जाने से क्या असर होगा, इस पर वरिष्ठ पत्रकार राजा माने ने कहा, "कुछ समय से महाराष्ट्र में उद्धव सेना की छवि मुस्लिमों के बीच सुधर रही थी, जिसका लाभ MVA को मिलता लेकिन बाबा के एनसीपी में जाने से अजित पवार की पार्टी को वोटों का लाभ होगा."
एनसीपी की पहचान राज्य में सेक्युलर दल के तौर पर होती रही है. बाबा अपने क्षेत्र में प्रभावशाली हैं, ऐसे में लोकसभा से ज्यादा विधानसभा चुनाव में एनसीपी को उनके आने का लाभ मिलेगा.राजा माने, वरिष्ठ पत्रकार
अशोक चव्हाण की बीजेपी में एंट्री कई मायने में खास है. दरअसल, चव्हाण के आने से बीजेपी को राज्य में एक बड़ा मराठवाडा चेहरा मिल जाएगा, जिसकी वो लंबे समय से तलाश कर रही थी, दूसरा, उसको अपना जनाधार बढ़ाने में मदद मिलेगी. चव्हाण भले ही नांदेड़ क्षेत्र में प्रभाव रखते हैं लेकिन दो बार मुख्यमंत्री रहने के कारण उनका पूरे महाराष्ट्र में असर है. उनके पिता भी सीएम रह चुके हैं, ऐसे में चव्हाण के पास राज्य में अपने कार्यकर्ता हैं.
अशोक चव्हाण के आने से बीजेपी की एकनाथ शिंदे और अजित पवार पर पहली निर्भरता कम होगी, क्योंकि दोनों मराठवाड़ा नेता हैं. दूसरा दोनों को बैलेंस करने में मदद मिलेगी और तीसरा दोनों की ताकत भी नहीं बढ़ेगी.
इसके अलावा मराठवाड़ा के साथ चव्हाण की पश्चिम महाराष्ट्र में भी मजबूत पकड़ है. इन दोनों इलाकों में बीजेपी कमजोर है और उसका चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं था.
नांदेड़ जिले में 9 विधानसभा सीटें हैं- किनवाट, हडगांव, भोकर, नांदेड़ उत्तर, नांदेड़ दक्षिण, लोहा, नौगांव, देगलुर , मुखेड. यहां पार्टी का प्रदर्शन पिछले दोनों विधानसभा चुनाव में अच्छा नहीं था, 2014 में बीजेपी को एक और 2019 में दो सीट पर जीत मिली थी.
चव्हाण के आने से बीजेपी को राज्य में मजबूत, जमीनी और जनाधार वाला नेता मिल जाएगा. बीजेपी ने नारायण राणे को मराठवाडा नेता के तौर पर जरूर पार्टी में शामिल कराया था और उन्हें राज्यसभा भेजकर केंद्र में मंत्री भी बनाया लेकिन वो कुछ खास असर नहीं दिखा पाए. चव्हाण के आने से पार्टी को उम्मीद है कि वो कमी पूरी हो जाएगी.
राजनीतिक जानकारों की मानें तो, अशोक चव्हाण के जरिए बीजेपी प्रदेश में अपनी स्थिति को मजबूत करने में जुटी है. पार्टी लंबे समय से ऐसे नेता की तलाश कर रही थी, जो 10 से 12 साल तक उसका नेतृत्व कर सके, जिससे राज्य में नई लीडरशिप को तैयार किया जा सके, और चव्हाण इसमें बिल्कुल फिट बैठते हैं, वो अभी 65 साल के हैं और इस लिहाज से अगले 10 से 12 साल तक पालिटिक्स में एक्टिव रह सकते हैं. यहां गौर फरमाने वाली बात यह है कि देवेंद्र फडणवीस नेतृत्व के तौर पर पार्टी को उतना मजबूत नहीं कर पा रहे हैं, जिनता अपेक्षाकृत था.
प्रदेश बीजेपी से जुड़े एक सूत्र ने कहा, "अशोक चव्हाण को भले ही बीजेपी अभी राज्यसभा भेजे लेकिन विधानसभा चुनाव में पार्टी उनको मैदान में उतार सकती है. चुनाव के बाद पार्टी उन्हें बड़ी जिम्मेदारी भी देने का प्लान कर रही है."
सूत्रों की मानें तो बीजेपी अशोक चव्हाण के संपर्क में दो साल से थी. महाराष्ट्र विधानसभा में जब शिंदे सरकार को अपना बहुमत साबित करना था, तो उस वक्त भी अशोक चव्हाण अपने समर्थक विधायकों के साथ देर में पहुंचे थे, जिससे एनडीए सरकार को विश्वास मत हासिल करने में मदद मिली थी.
जानकारों की मानें तो, अशोक चव्हाण के बीजेपी में आने से उनका राजनीतिक भविष्य भी सुधर जाएगा जो कांग्रेस में बिगड़ता दिख रहा था. अगर आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाले मामले को छोड़ दें तो चव्हाण पर कोई बड़ा मामला नहीं हैं. ऐसे में वो बीजेपी के लिए कई मायने में फायदेमंद साबित हो सकते हैं.
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