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राजस्थान (Rajasthan) में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों पर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) के इस्तीफे की मांग को लेकर भारतीय जनता पार्टी (BJP) के सांसदों ने संसद परिसर में महात्मा गांधी की मूर्ति के सामने धरना दिया. यह बहस को पूरे देश में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की ओर मोड़ने की कोशिश का हिस्सा है. मीडिया भी भारत में खासकर विपक्ष शासित राज्यों में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के आंकड़े दिखाकर BJP नेताओं की मदद करने में जुट गया है.
ऐसा तब हो रहा है जब विपक्षी दल मणिपुर (Manipur) के हालात पर प्रधानमंत्री के बयान और उसके बाद व्यापक चर्चा की मांग पर अड़े हुए हैं. वे केंद्र सरकार की जवाबदेही चाहते हैं, लेकिन सरकार सवाल का सामना करने से भाग रही है.
इसके अलावा अब केंद्रीय गृह मंत्री का कहना है कि सरकार मणिपुर पर बहस के लिए तैयार है, लेकिन विपक्ष इससे भाग रहा है. हकीकत यह है कि सरकार बहुत चालाकी से जनता से यह छिपा रही है कि वह नियम 176 के तहत बहस चाहती है, जिसमें केवल 5-6 सांसदों के साथ केवल 45-60 मिनट की बहुत छोटी चर्चा की इजाजत होगी, जबकि विपक्ष नियम 267 के तहत चर्चा की मांग कर रहा है, जिसमें ज्यादा सदस्यों को शामिल करते हुए लंबी चर्चा मुमकिन है. क्या मणिपुर बड़ी बहस का हकदार नहीं है?
वीडियो सामने के बाद अगर हम मणिपुर की राज्य सरकार, भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और मीडिया की प्रतिक्रिया पर ध्यान दें तो हम प्रधानमंत्री के बयान का मतलब समझ सकते हैं. कुकी महिलाओं के खुलेआम यौन उत्पीड़न के वीडियो के बाद देश में भड़के गुस्से की लहर को शांत करने के लिए प्रधानमंत्री ने मानसून सत्र शुरू होने से पहले संसद के बाहर दिए अपने लंबे बयान में करीब 30 सेकेंड अपना गुस्सा जाहिर करने पर खर्च किया. उन्होंने एक राष्ट्रप्रेमी राजनेता की तरह सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से महिलाओं की सुरक्षा करने को कहा. उनके संबोधन में सबसे आखिर में मणिपुर का नाम आया जिसमें उन्होंने राजस्थान और छत्तीसगढ़ का जिक्र सबसे पहले उन राज्यों के तौर पर किया जहां महिलाओं के खिलाफ हिंसा होती है.
और फिर BJP बात को ले उड़ी कि अब जब प्रधानमंत्री ने मणिपुर में हुई हिंसा पर बहुत सख्ती से बात की है, तो अब मणिपुर को लेकर सरकार से सवाल पूछने का कोई मतलब नहीं है. तर्क आगे बढ़ाया गया कि इस बयान के बाद विपक्ष को मणिपुर की हिंसा पर संसद में चर्चा की अपनी जिद छोड़ देनी चाहिए. और यह भी कहा गया कि सरकार विपक्ष के सवालों का जवाब देने के लिए बाध्य नहीं है क्योंकि प्रधानमंत्री ने सरकार का रुख साफ कर दिया है.
प्रधानमंत्री के बयान के बाद वीडियो में दिख रहे चार लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया. यहां तक कि एक आरोपी का घर भी गांव की महिलाओं ने जला दिया. मणिपुर के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने मुजरिमों के लिए मौत की सजा की मांग करने का इरादा भी जाहिर कर दिया है. सरकार चाहती है कि मामला यहीं रफा-दफा हो जाए और इस पर चर्चा करने की जिद इसे राजनीतिक रंग देने की भद्दी चाल भर है. और हम पाते हैं कि नैतिकता के शुरुआती बुखार के बाद मीडिया वापस सामान्य हालत में आ रहा है. टीवी के दर्शक हमें बताते हैं कि मणिपुर अब बड़ी खबर नहीं है.
लेकिन हम जानते हैं कि विपक्ष ने पहले ही साफ कर दिया था कि वह पहले मणिपुर पर चर्चा चाहता है. आखिर इससे बड़ा और अहम मुद्दा क्या हो सकता है कि मणिपुर राज्य, जो तीन महीने से हिंसा की आग में सुलग रहा है और राज्य और केंद्र सरकार दोनों इसके सामने असहाय नजर आ रहे हैं? विपक्ष को इस मांग को उठाने के लिए इस वीडियो की जरूरत नहीं थी. फिर भी BJP नेता कह रहे हैं कि हिंसा के करीब तीन महीने बाद वीडियो क्यों जारी किया गया: जरूर कोई साजिश होगी!
इसके अलावा अब बहस दूसरे राज्यों में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की ओर मुड़ गई है. यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि यह मसला सिर्फ मणिपुर का नहीं है. BJP नेता पूछ रहे हैं कि लोग बंगाल, राजस्थान के बारे में बात क्यों नहीं कर रहे हैं; सिर्फ मणिपुर हिंसा की ही बात क्यों हो रही है. एक मंत्री का कहना है कि बंगाल, राजस्थान में महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर बहस बहुत जरूरी है क्योंकि असल मुद्दा महिलाओं के खिलाफ हिंसा का है. कुछ बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि बलात्कार या यौन हिंसा इतनी अजीब बात नहीं है. ऐसा हर समय होता रहा है. इस घड़ी BJP की सरकार में साथी रहे जॉर्ज फर्नांडिस का 21 साल पुराना बयान याद आता है. गुजरात में 2002 में मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के बाद उन्होंने कहा था कि ऐसी चीजें होती रहती हैं और इसे मुद्दा नहीं बनाना चाहिए.
क्या आपको कुछ साल पहले झारखंड में भीड़ के हाथों तबरेज अंसारी की हत्या के वीडियो के बाद पीएम मोदी का बयान याद है? मॉब लिंचिंग का वीभत्स वीडियो वायरल होने के बाद उन्हें प्रतिक्रिया देने को मजबूर होना पड़ा. लेकिन उन्होंने एक चालाकी भरा बयान दिया: “मुझे दुख है, और जिम्मेदार लोगों को कड़ी सजा मिलेगी. लेकिन विपक्ष का झारखंड को लिंचिंग का केंद्र कहना गलत है क्योंकि यह राज्य के सभी लोगों का अपमान करने जैसा है.”
यह मामला सिर्फ दो महिलाओं के साथ हुई जघन्य हिंसा का नहीं है. यह हजारों कुकी लोगों के खिलाफ हिंसा के बारे में है. सिर्फ यही दो नहीं, कई और कुकी महिलाओं को यौन हिंसा का सामना करना पड़ा है. 125 से अधिक कुकी मार डाले गए हैं. इस हिंसा में सरकार कुकी लोगों के खिलाफ रही है. हिंसक मैतेई गिरोहों को सरकारी हथियार लूटने की छूट दे दी गई. पीड़ित महिलाओं ने प्रेस को यह भी बताया कि यह कहना गलत होगा कि भीड़ ने उन्हें पुलिस से छीना; दरअसल, पुलिस ने ही उन्हें भीड़ के हवाले कर दिया था.
कुकी-मैतेई (Kuki-Meitei) के पुराने संघर्ष का हवाला देकर इस हिंसा से बचा नहीं जा सकता है. साफ-साफ कहना होगा कि आज हम जो हिंसा देख हैं, वह सरकार की मदद से की गई है.
मुख्यमंत्री, BJP नेता और मीडिया अभी भी हिंसा के लिए ‘ड्रग्स माफिया’, तस्करी और बाहरी लोगों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. बुद्धिजीवी वर्ग में अभी भी यह कहने में हिचकिचाहट है कि यह असल में BJP की मैतेई बहुसंख्यकों वाली सरकार द्वारा कुकी अल्पसंख्यकों के खिलाफ की गई हिंसा है.
यह हिंसा न केवल मैतेई बहुसंख्यकवाद को ताकत देती है बल्कि साथ ही देश के दूसरे हिस्सों के लोगों के मन में बाहरी लोगों के प्रति डर पैदा करने का काम करती है. इस हिंसा के जरिये BJP अपने घटक दलों को बताना चाहती है कि बाहरी तत्वों या बाहरी लोगों की पहचान करने और उन्हें काबू में रखने की कीमत चुकानी पड़ती है और उन्हें इसे सहन करने के लिए तैयार रहना चाहिए.
हम यह भी देख रहे हैं कि असम के मुख्यमंत्री ठीक उसी तरह असम में हिंसा भड़काने की कोशिश कर रहे हैं, जैसे मणिपुर के मुख्यमंत्री ने किया है. वह बंगाली मुसलमानों को बाहरी बताते रहे हैं जिन्हें भगाया जाना चाहिए. वह उनके खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा की जमीन तैयार कर रहे हैं. हम खामोशी से देख रहे हैं. प्रधानमंत्री, BJP और RSS ने देश के दूसरे हिस्सों में बाहरी लोगों या घुसपैठियों को हमेशा निशाना बनाया है. लोग जानते हैं कि वे कौन हैं. हिंदी सिनेमा और मीडिया इस बाहरी-विरोधी शातिराना अभियान में शामिल हो गए हैं.
सुप्रीम कोर्ट को भी वीडियो सामने आने के बाद ही हालात की गंभीरता समझ में आई, जबकि मई के पहले हफ्ते में ही मामला उसके सामने रखा जा चुका था. लेकिन तब अदालत को व्यवस्था की मर्यादाओं की ज्यादा फिक्र थी. इसमें दखल देने से परहेज किया गया. अब यह अपनी तकलीफ जता रहा है. फिर सड़क से गुजरते एक आम शख्स और विद्वान जजों के बीच फर्क क्या है?
हम इस पाखंड, झूठ, धोखा और बेशर्मी का सामना करने पर क्यों मजबूर हैं? क्योंकि हमने झूठ और हिंसा की विचारधारा को ताकत दी है. अब हम नफरत, हिंसा और बंटवारे की सोच की समर्थक इस सरकार को हटाकर ही हिंसा से छुटकारा पा सकते हैं. तभी हमें कुछ नैतिक राहत मिल सकेगी?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @Apoorvanand__. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है. यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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