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कुकी महिलाओं का दर्द पहले क्यों नहीं सुना, क्या न्याय के लिए वीडियो वायरल जरूरी?

Manipur: अगर वीडियो नहीं है तो टीवी के योग्य नहीं है, और अगर टीवी योग्य नहीं है तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है!

कविता कृष्णन
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>मणिपुर: नेताओं की चुप्पी पहले क्यों नहीं टूटी? क्या VDO वायरल होना जरूरी था?</p></div>
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मणिपुर: नेताओं की चुप्पी पहले क्यों नहीं टूटी? क्या VDO वायरल होना जरूरी था?

(फोटो: Photo Altered by Quint Hindi)

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मणिपुर (Manipur) में हिंसा भड़कने के करीब 80 दिन बाद, पूरे देश की आंखें तब अचनाक खुल गईं, जब बड़े नेताओं ने सूबे में हुई ताजा घटना के सिलसिले में पहली बार जिक्र किया या उसके बारे में बात की. हालांकि, कोई यह सवाल कर सकता है या किसी को इस बात को लेकर आश्चर्य हो सकता है कि प्रधानमंत्री और मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह अचानक से हमें अपने दिल में मौजूद राज्य (मणिपुर) के हालात के बारे में क्यों बता रहे हैं? या स्मृति ईरानी जैसे अन्य बीजेपी लीडर के मुख से 'मानवता' जैसा अनोखा शब्द क्यों निकल रहा है?

क्या इसका संकेत देना विद्रोहात्मक या खुले तौर पर देशद्रोह नहीं था कि मणिपुर में बलात्कार हो सकते हैं या कि पीएम मोदी शासित देश में मानवता के खिलाफ अपराध हो सकते हैं? क्या यह अभी कुछ दिन पहले की ही बात नहीं है कि जब राज्य का दौरा करने वाली महिला अधिकार कार्यकर्ताओं को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किए जाने का खतरा था? उन पर राजद्रोह का खतरा इसलिए था, क्योंकि महिला अधिकार कार्यकर्ताओं की जो टीम मणिपुर गई थी उसने कहा था कि महिलाओं के साथ बलात्कार की जो घटनाएं हुई हैं, वह 'राज्य प्रायोजित' हिंसा के नतीजे में हुई हैं.

कुछ दिनों पहले मणिपुर में मैतेई समुदाय की भीड़ द्वारा कुकी महिलाओं को नग्न घुमाने का कोई वीडियो नहीं था. अगर इस घटना का वीडियो नहीं मिला होता, तो यह वारदात टीवी के लायक नहीं थी और अगर यह टीवी के लायक नहीं है, तो ऐसा हुआ ही नहीं.

क्या खामोशी को तोड़ने के लिए वायरल होने की जरूरत है?

इस बार, एक वीडियो वायरल हुआ और लाखों स्मार्टफोन स्क्रीन पर गया. इसमें लोग इन महिलाओं की जिंदगी के सबसे बुरे वक्त को देख सकते हैं. इन महिलाओं से उनकी मानवीय गरिमा को छीन लिया गया और भीड़ द्वारा परेड करायी गयी...गेम ऑफ थ्रोन्स के 'वॉक ऑफ शेम' की तरह. इसमें डर, दया और उत्तेजना उत्पन्न करने वाले वे सभी तत्व हैं, जो वायरल वीडियो कंटेंट बनाते हैं. इसे टीवी और स्मार्टफोन स्क्रीन के मास्टर- पीएम मोदी से बेहतर कौन जानता है?

दुखते दिलों की बातें बिना देर किए सामने लानी चाहिए. लोकतंत्र के मंदिर में बहते हुए आंसुओं को कुशलता से दिखाना चाहिए. कम से कम तब तक जब तक मधु किश्वर अपना खुलासा नहीं लिखतीं और हमें बताती हैं कि महिलाएं और वीडियो एक आतंकवादी साजिश के 'बलिदान के शिकार' थे, जिसका उद्देश्य हिंदुओं को बदनाम करना और उन पर अत्याचार करना था.

आइए एन बीरेन सिंह के ट्वीट पर नजर डालते हैं. उनके मुताबिक मणिपुर पुलिस ने 'वीडियो सामने आने के तुरंत बाद' घटना का 'स्वतः संज्ञान' लिया (यानी जांच शुरू करने के लिए औपचारिक शिकायत का इंतजार नहीं किया). वे गए और बिना देरी किए 'पहली गिरफ्तारी' की.

लेकिन यह ट्वीट झूठा है...

पुलिस अनजान नहीं हो सकती

वीडियो वायरल होने तक मणिपुर पुलिस को इस क्रूरता के बारे में पता नहीं चला. इसके बजाय, पुलिस को पहले से ही इसकी भनक लग गई थी.

एक छोटा सा संदर्भ है जो कि यह वेरिफाई करने में मदद करेगा कि कैसे पुलिस को इसके बारे में मालूम था. 3 मई को मणिपुर में हिंसा भड़कती है और कुकी समुदाय के लोगों पर मैतेई समुदाय द्वारा हमला होने लगता है.

एक दिन बाद, मैतेई भीड़ ने कुकी-ज़ो समुदाय की इन तीन महिलाओं को कथित तौर पर नग्न किया, परेड कराई और गैंगरेप किया, जबकि वे महिलाएं एक पुलिस टीम की सुरक्षा में थीं.

पुलिस को इसकी जानकारी थी क्योंकि उनकी टीम ने वास्तव में इस जघन्य अपराध को होते हुए देखा था. उन्होंने अपराधियों द्वारा अपनी क्रूरता का उत्साहपूर्वक वीडियो बनाते हुए भी देखा होगा.

अगर पुलिस को इसकी जानकारी थी, तो एन बीरेन सिंह को भी इसके बारे में पता था. लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा क्योंकि तब तक, कम से कम यह वीडियो मणिपुर के बाहर वायरल नहीं हुआ था.

जिनके साथ यह क्रूर घटना हुई (सर्वाइवर) वे चुप नहीं थीं. जैसा कि कई रिपोर्टों से पता चलता है कि उन्होंने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी. वे चाहती थीं कि उन्हें अच्छी तरह सुना जाए लेकिन न तो राज्य, न ही केंद्र सरकार और न ही इंडियन टीवी मीडिया ने उन पर तब तक कोई ध्यान दिया, जब तक कि उनका नग्न अवस्था में वीडियो वायरल नहीं हो गया. इंसाफ के लिए उनकी सक्रिय मांगों (आवाजों) को नजरअंदाज कर दिया गया. यह जो बातें मायने रखती हैं, वो हैं- नग्न, असहाय, अपमान और चुप्पी. ऐसे नजारे देखने के बाद ही उनको महत्व दिया गया.

उदाहरण के लिए, ज़ोमी स्टूडेंट्स फेडरेशन के एक यूट्यूब चैनल ने 15 मई को 13 मिनट का एक ऑडियो पोस्ट किया, जिसमें उन लोगों का इंटरव्यू था जिनके साथ यह क्रूर घटना हुई थी. यह एक सोबर डॉक्यूमेंटेशन था, जिसमें बड़ी ही जिम्मेदारी से बोलने वालों की पहचान नहीं उजागर की गई है, लेकिन भारत के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस पर बात नहीं की.

हमें इस बात पर विचार करना होगा कि इस क्रूर घटना का दंश झेल रही एक सर्वाइवर की आवाज (जोकि अपनी भावहीन आवाज में) उस भाषा में अपनी कहानी बता रही है, जो दिल्ली/मुंबई न्यूज रूम के लिए 'विदेशी' है, उसे सुनना बाेरिंग है. हमारे लिए एक वीडियो लाइए, जिसमें सर्वाइवर नग्न है और भीड़ द्वारा उस पर हमला किया जा रहा है, उसके बाद हम इसके बारे में विचार करेंगे.

इसमें कोई शक नहीं कि एन बीरेन सिंह ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया.

18 मई को आखिरकार पुलिस ने एक एफआईआर दर्ज की. अब यह घटना आधिकारिक दस्तावेज में आ गई लेकिन इसके बावजूद भी उनकी ओर से एक भी शब्द नहीं बोला गया. इस क्रूर घटना की एक सर्वाइवर ने 1 जून को हैदराबाद विश्वविद्यालय की समाजशास्त्री (सोशियोलॉजिस्ट) होइनिलिंग सितलहोउ से अपनी आपबीती सुनाई.

सितलहोउ ने कॉल पर कई महिलाओं से बात की और उसे अपने डीटेल में शामिल किया. इसके साथ ही उन्होंने बलात्कार और क्रूर हमलों (जो घातक हो सकते थे) की सर्वाइवर्स की गवाही को भी उसमें शामिल किया. उन्होंने बलात्कार और हत्या की शिकार महिलाओं के परिवारजनों से भी बात की.

कुल मिलाकर, उन्होंने मौखिक साक्ष्यों के आधार पर कुकी महिलाओं के खिलाफ हिंसा की चार अलग-अलग घटनाओं का डॉक्यूमेंटेशन किया.

वे चारों घटनाएं हैं: (1)- तीन महिलाओं को नग्न करके उनकी परेड करवाना.

(2)- बहुत ही कम उम्र की महिलाओं के साथ रेप और हत्या करना.

(3)- एक महिला की गोली मारकर हत्या, जिसका शव जला और बिखरा पाया गया था.

(4) एक 18 वर्षीय महिला का अपहरण, रेप और क्रूरतापूर्वक पिटाई की घटना.

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बोलने में इतनी देर क्यों हुई?

सितलहोउ द्वारा तैयार किए गए डॉक्यूमेंट में एक बात कॉमन थी: मैतेई भीड़ इन अपराधों को अंजाम दे रही थी, वे अपने पीड़ितों (और शायद खुद को) को यह बता रहे थे कि वे कुकी पुरुषों द्वारा मैतेई महिलाओं के रेप और क्रूर हत्याओं का बदला ले रहे हैं. उन्होंने ऐसे कई उदाहरण गिनाए जहां मैतेई वर्चस्ववादी उग्रवादियों ने अन्य मामले की तस्वीरें प्रसारित कीं, इसके साथ ही मैतेई महिलाओं के साथ रेप और हत्या की मनगढ़ंत कहानियां भी गढ़ी.

भले ही इनमें से हर एक वायरल हुए दावे का खंडन किया गया था, लेकिन उन वायरल दावों ने अपना काम कर दिया था. बलात्कारी कुकी-ज़ो पुरुषों की 'भीड़' द्वारा मैतेई नारीत्व (वुमेनहुड) का उल्लंघन किए जाने की नस्लवादी इमेज को मजबूती देने में सफल रहे.

1 जून को 'मणिपुर की बेटियों' और 'मणिपुर की माताओं' के इतने भयानक बलात्कारों, अत्याचारों और हत्याओं डीटेल्ड जानकारी के बाद, हमने बीरेन सिंह या पीएम मोदी से कुछ नहीं सुना.

सितलहोउ ने जो जानकारी प्रजेंट की, वह तब से सही साबित हो गई है, जब से उनके द्वारा डॉक्यूमेंटेड की गई सभी घटना की पुष्टि की गई है. कुछ मामलों में मणिपुर पुलिस द्वारा दर्ज की गई FIR और अन्य में प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय समाचार प्रकाशनों के खोजी पत्रकारों द्वारा कहानियों की सख्ती और बारीकी से जांच की गई, जिनमें से कुछ ने व्यक्तिगत रूप से रेप सर्वाइवर्स, उन माताओं जिन्होंने अपनी बेटियों के साथ रेप और हत्या के बारे में सुना और गवाहों से बात करने में घंटों बिताए और अपनी स्टोरी पब्लिश की.

लेकिन इसके बाद भी हमारे नेताओं के दिल से एक भी आवाज नहीं निकली. आज भी, उन अन्य पीड़ितों को इसलिए भुला दिया गया है क्योंकि अभी तक दुनिया ने उन पर अत्याचार, रेप, पिटाई और हत्या के वीडियो नहीं देखे हैं.

जब India Today ने सीएम एन बीरेन सिंह से पूछा कि वह अभी तक चुप क्यों रहे, इसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा, "इसी तरह के सैकड़ों मामले हैं, इसलिए हमने इंटरनेट पर बैन लगा दिया है."

आइए, इस बयान को हजम कर पाने के लिए थोड़ा वक्त लेते हैं.

एक मुख्यमंत्री को आमतौर पर यह कहते हुए सुनना डरावना और चिंताजनक है कि उन्हें पिछले ढाई महीनों के दौरान हिंसक जातीय भीड़ द्वारा रेप के "सैकड़ों मामलों" की जानकारी है. वहीं इस संबंध में पीएम मोदी द्वारा राजस्थान और छत्तीसगढ़ को लेकर जो बातें कही गई हैं, वह बेतुकी लगती हैं.

अभी भी सामने नहीं आए हैं "सैकड़ों केस"

भारत में कहीं भी यौन उत्पीड़न और पुलिस की उदासीनता एक बड़ी समस्या है लेकिन यह उस समस्या से बहुत अलग है, जिसे मुख्यमंत्री खुद जातीय भीड़ द्वारा 'बलात्कार की महामारी' बताते हैं.

एन बीरेन सिंह को जिस सवाल का जवाब देने की जरूरत है वह यह है कि

  • उन 'सैकड़ों' बलात्कार पीड़ितों में से वह कितनी पीड़ितों से मिले हैं या मिलने की कोशिश की है?

  • कितनी पीड़ितों को पुलिस में शिकायत दर्ज कराने में सहायता प्रदान की गई है?

  • कितनी FIR दर्ज की गई हैं और उनमें से हर FIR में जांच का क्या स्टेटस है?

क्या मीरा पैबिस, जिन्होंने नाटकीय ढंग से बीरेन सिंह को सीएम पद से इस्तीफा देने से रोका था, उनसे ये सवाल पूछेंगी? ऐसा लगता है कि उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं है कि ये "सैकड़ों" महिलाएं कुकी हैं या मैतेई.

इन सबसे ऊपर बढ़कर...अगर वह (बीरेन सिंह) मानते हैं कि उनकी कार्यकाल में सैकड़ों रेप और अत्याचार हुए हैं तो उन्हें मुख्यमंत्री क्यों बने रहना चाहिए?

पीएम मोदी ने उन "सैकड़ों मामलों" के बारे में कुछ नहीं कहा है, जिनके बारे में बीरेन सिंह ने बात की थी. उन्होंने उन अन्य सभी रेप सर्वाइवर्स और पीड़ितों के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा है, जो वायरल वीडियो में नही हैं.

उन्होंने "लोकतंत्र का मंदिर" और "मणिपुर की बेटियां" जैसी घिसी-पिटी बातों का इस्तेमाल करते हुए हमें आश्वस्त करने की कोशिश की:

यह वीडियो मुझे भी उतना ही झकझोरता है, जितना आपको...मैं यह सुनिश्चित करने जा रहा हूं कि बलात्कारियों को सजा मिले.

ये बातें होती हैं...राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी होती हैं, मोदी के नेतृत्व में भारत में सब ठीक है, हम अभी भी अमृत काल के सुनहरे रास्ते पर हैं.

“रेप के लिए 'न्याय' को कैसे पहचाने?”

ऐसे में बीरेन सिंह का मृत्युदंड का वादा निश्चित रूप से एक और टालमटोल (ध्यान भटकाने वाली) रणनीति का हिस्सा है, जैसा कि रेप के लिए हमेशा मौत की सजा होती है. और यह तभी काम करता है जब हमारी अंतरात्मा को रेप का संज्ञान लेने के लिए किसी क्रूरता के वायरल वीडियो की जरूरत होती है.

अगर हमारा नैतिक नजरिया केवल महिलाओं के कपड़े उतारकर कैमरे के सामने परेड कराने के सनसनीखेज तमाशे पर ही टिका रह सकता है, तो नेताओं के लिए यौन हिंसा में अपने शामिल होने के लिए जवाबदेही से बचना आसान है, खासकर जब ऐसी हिंसा इन्हीं नेताओं की बहुसंख्यकवादी राजनीति का अभिन्न हिस्सा है.

वे हमें एक और संतोषजनक सनसनीखेज, सार्वजनिक रूप से मंचित तमाशा की आशा देकर हमारा ध्यान भटका सकते हैं: एक जिसमें बलात्कारियों को फांसी दी जाती है या हिरासत में हत्याओं में टीवी पर गोली मारकर हत्या कर दी जाती है (जैसा कि हैदराबाद में दिशा मामले में हुआ).

इस मामले में वीडियो वायरल होने के तुरंत बाद पुलिस द्वारा 'पहली गिरफ्तारी' करने की कहानी संदेहास्पद है. क्या वाकई पुलिस ने जांच और सबूतों के आधार पर किसी को गिरफ्तार किया है? या जैसा कि अक्सर होता है, क्या उन्होंने वीडियो की वजह से उत्पन्न आक्रोश को शांत करने के लिए अचानक किसी को पकड़ लिया है?

(यह एक ओपीनियन पीस है और इसमें व्यक्त किए गए विचार लेखिका के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है. इसको लिखने वाली कविता कृष्णन एक महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं, जो हिंसा की समस्याओं, खासकर 2012 के निर्भया रेप मामले में अपनी एडवोकेसी के लिए जानी जाती हैं. वो @kavita_krishnan पर ट्वीट करती हैं.)

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