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मणिपुर (Manipur Violence) में जारी हिंसा ने सैकड़ों लोगों की जान ली है. यहां आंतरिक संघर्ष ने गृह युद्ध का रूप ले लिया है लेकिन केंद्र उसके प्रति अब भी उदासीन है. इसकी चारों ओर आलोचना हो रही है, और लोग हैरान हैं कि केंद्र क्यों इस मसले पर दखल नहीं दे रहा.
सवाल उठाने स्वाभाविक हैं कि प्रधानमंत्री इस मसले से क्यों निपटना नहीं चाहते. क्या हालात सचमुच हाथ से निकल चुके हैं? या, जो नजर आ रही हैं, परतें उससे भी गहरी हैं? समय ही बताएगा कि मणिपुर का भविष्य क्या है.
राज्य पर काले बादल मंडरा रहे हैं. यह एक विसंगति ही है, जहां सामाजिक व्यवस्था पूरी तरह से टूट गई है. खास तौर से कुकी-ज़ो और मैतेई लोगों के बीच.
दोनों पक्षों के बीच भरोसा टूट गया है. दोनों समूहों के बीच लगभग अलगाव हो गया है. कुकी क्षेत्रों के लिए अलग प्रशासन की मांग मजबूत हो रही है. यह मांग कुकी इंपी लोग ही नहीं, कुकी समुदाय के बीजेपी विधायकों की भी है.
पिछले साल 6 अगस्त को मणिपुर विधानसभा ने सर्वसम्मति से राज्य में एनआरसी लागू करने पर सहमति जताई थी. यहां कट-ऑफ का साल 1961 है. हम सभी जानते हैं कि 1951 एनआरसी के बाद असम का एनआरसी अपनी तरह का पहला ऐसा रजिस्टर है.
मणिपुर में एनआरसी के लिए सहमति भी है, और मांग भी, खासकर मैतेई और नगा नागरिक समूहों और संस्थानों की तरफ से, जो अपने अपने हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं. कुकी इंपी जैसे कुकी नागरिक समूहों ने भी मणिपुर में एनआरसी प्रक्रिया पर रजामंदी दी है.
तीन इमा कीथेल्स (महिलाओं की तरफ से चलाए जाने वाले बाजार) की महिलाएं, मणिपुर के स्टूडेंट संगठन-ऑल नगा स्टूडेंट्स एसोसिएशन मणिपुर (एएनएसएएम), मणिपुरी स्टूडेंट्स फेडरेशन (एमएसएफ), डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स अलायंस ऑफ मणिपुर (डीईएसएएम), कांगलेईपाक स्टूडेंट्स एसोसिएशन (केएसए), स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ कांगिसिपाक (एसयूके) और अपुनबा इरेइपाक्की महेइरोई सिनपंगलुप (एआईएमएस), इन सभी ने राज्य में एनआरसी की मांग की है.
यूनाइटेड नगा काउंसिल (यूएनसी) ने पहले भी कहा है कि प्रवासी और स्वदेसी लोगों के साथ एक जैसा बर्ताव नहीं किया जा सकता है. यूनिटी ऑफ मैतेई सोसायटी होजाई, असम ने भी हाल ही में मणिपुर में एनआरसी की जरूरत बताते हुए एक ज्ञापन सौंपा है.
हालांकि कुकी इंपी से अलग, कुकी स्टूडेंट्स यूनियन ने एनआरसी प्रक्रिया के बारे में चिंता जताई है. उन्हें डर है कि इसकी वजह से बड़ी संख्या में लोग आंतरिक रूप से विस्थापित हो सकते हैं. गृह मंत्रालय ने हाल ही में मिजोरम और मणिपुर की राज्य सरकारों को एक पत्र भेजा है. जिन लोगों ने उस पत्र को देखा है, वे बताते हैं कि केंद्र ने राज्य सरकारों को अगले सितंबर तक "अवैध प्रवासियों" का बायोमेट्रिक डेटा इकट्ठा करने का निर्देश दिया है. यह एनआरसी की दिशा में उठाया गया एक कदम ही है.
कोई भी समझदार इंसान यह नहीं चाहेगा कि वह अपने राज्य से बेदखल हो जाए, उसे डिटेंशन कैंप सेंटर में भेज दिया जाए, उसे बेइज्जत किया जाए और उसे अपनी नागरिकता को साबित करने के लिए अदालत में घसीटा जाए. एनआरसी गलत तरीके से आपके अधिकार छीनता है (सामाजिक, नागरिक और आर्थिक) और गरिमा भी, क्योंकि वह आपको अपनी नागरिकता साबित करने को कहता है- सिर्फ इसलिए क्योंकि दूसरे लोगों और सरकार के मन में शक है. जिस तरह से मैतेई लीपुन ने मणिपुर में एनआरसी की जरूरत को उचित ठहराया है, अगर वह सचमुच लागू हो जाता है तो यह बहुत विनाशकारी होगा.
दरअसल यह पूरी प्रक्रिया बहुत सुराखदार है. इसमें कुछ लोगों और समूहों को निशाना बनाकर डॉक्यूमेंट्स को तैयार किया जाता है. नागरिक समूह किसी हिचकिचाहट के बिना, किसी शख्स या समूह के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकते हैं. चूंकि साबित करने की जिम्मेदारी प्रतिवादी (यानी जिस पर आरोप लगा है, उस पर) पर है, इसलिए लोग सर्विलांस और शिकायत करने के लिए उत्साहित होते हैं. कुख्यात ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) ने असम में एनआरसी में दावों और आपत्ति प्रक्रिया के दौरान ऐसे सर्विलांस का काम बखूबी किया.
असम के मामले में ऑल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट्स यूनियन (एएमएसयू) ने यह विरोध किया था. वह भी 2010 में बारपेटा में एनआरसी के पायलट प्रोजेक्ट को लेकर. विरोध के दौरान, पुलिस की गोलीबारी में कम से कम चार लोगों की मौत हो गई और कई घायल हो गए. असम में मुसलमान और विशेषकर बंगाली मूल के लोग दूसरे दर्जे के नागरिक हैं. उन्हें असम में "स्वदेसी" नहीं माना जाता है. उनकी नागरिकता पर संदेह किया जाता है और एनआरसी की पूरी कवायद खास तौर से उन्हें निशाना बनाने वाला एक हथियार है.
कुकी समूहों का मामला अलग है जोकि पूर्वोत्तर के मूल निवासी हैं. मणिपुर, मिजोरम या कहीं भी एनआरसी से कोई फायदा नहीं होने वाला. यह सामाजिक विभाजन को गहरा करेगा, और शरणार्थी, राज्यविहीन लोग और आईडीपी पैदा करेगा. जैसा कि असम में हुआ है, वे सभी समूह जिन्हें मणिपुर या मिजोरम का मूल निवासी नहीं माना जाता है, उन्हें सबसे अधिक नुकसान होगा.
हम देख रहे हैं कि मिजोरम सरकार ने कुकी-ज़ो समूहों सहित कई लोगों का स्वागत किया है. मिजोरम के घरेलू रजिस्टर रखरखाव (मेनटेंस ऑफ हाउसहोल्ड रजिस्टर्स) बिल, 2019 का दायरा क्या है? आख़िरकार, यह नागरिकों और गैर-नागरिकों का एक रजिस्टर है जिसे हर तीन महीने में अपडेट किया जाना है.
इसी तरह मणिपुर में मणिपुर जन संरक्षण (पीपुल्स प्रोटेक्शन) बिल 2018 है. इसके हिसाब से मणिपुर के लोग वे "मणिपुरी लोग हैं जिनके नाम एनआरसी 1951 (क्योंकि मणिपुर तब असम का हिस्सा था), 1951 की जनगणना रिपोर्ट और 1951 की ग्राम निर्देशिका में हैं. इसके अलावा इन लोगों के वंशज भी जिन्होंने मणिपुर के सामूहिक सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन में योगदान दिया है.”
नतीजतन, गैर मणिपुरी लोग राज्य में सिर्फ मेहमान हैं. मैं मणिपुरी लोगों की परिभाषा को मूल निवासी (आईओ) श्रेणी की तरह देखने को मजबूर हूं जिसे एनआरसी प्रक्रिया में इस्तेमाल किया गया था. इसने बहुत से लोगों को शक के दायरे से बाहर किया, और साथ ही, सीएए भी जिसने बंगाली हिंदुओं की हिफाजत की. यानी साफ है कि यह प्रक्रिया बंगाली मुसलमानों को निशाना बनाने का काम करती है.
यह एक पैटर्न की तरह है. एनआरसी से हमेशा अल्पसंख्यक को ही नुकसान होगा. उन्हें ही इसका सामाजिक खामियाजा भुगतना होगा. दूसरी तरह से, एनआरसी एक बहुसंख्यकवादी हथियार है जिससे सिर्फ राज्यविहीन लोगों का हुजूम तैयार होगा.
मणिपुर संघर्ष से भूमि, जातीय स्थिति, जाति, पहाड़ी-घाटी आधार पर बंटवारा होगा, और 'नार्को आतंकवाद' भी. नागरिकता का सवाल जो सबसे अधिक अहम है, भविष्य के लिए चिंताजनक संकेत है. इसके अलावा मुझे डर है कि म्यांमार के शरणार्थियों का बायोमेट्रिक डेटा जमा करने की जल्दबाजी से, एनआरसी प्रक्रिया को वैध बनाने का चोर दरवाजा खुल जाएगा. इसके बाद मिजोरम और मणिपुर में एनआरसी का असल रूप दिखाई देगा.
सभी कुकी "अवैध प्रवासी" और बाहरी हैं, और राज्य के सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने के लिए ख़तरा, यह टिप्पणी भी फिक्र की बात है. जब सभी कुकियों को "अवैध", "नार्को-आतंकवादी" वगैरह कहा जाने लगे तो मैतेई लोगों की तरफ राजनैतिक बदलाव को ज़ेनोफोबिक और अंधराष्ट्रवादी स्वर मिलता है.
एक समुदाय के लिए ऐसी सामूहिक नफरत से कुछ भी अच्छा नहीं हो सकता. मैं इसे असमिया समाज के सामाजिक पतन के तौर पर देखता हूं. इसकी वजह ‘बाहरी लोगों’ को लेकर वह मनोग्रंथि है जिसका आधार आत्ममुग्धता है. एनआरसी ने इस सामाजिक विभाजन को गहरा किया है क्योंकि उसने ‘बाहरी लोगों’ से जुड़ी इस सोच को कानूनी सहमति दी है. एनआरसी के आकर्षण में बंधने वाले, अपने भीतर की मानवता को खो देते हैं. बल्कि वे उस कड़वाहट से भर जाते हैं जो किसी भी समाज को तहस नहस कर सकता है.
(सूरज गोगोई बेंगलुरू की आरवी यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड साइंसेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और ये उनकी संस्था का प्रतिनिधित्व नहीं करते. क्विंट न तो लेखक का समर्थन करता है और न ही उसके लिए जिम्मेदार है.)
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