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इस 28 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में कुछ अजीब हुआ. सुबह सीनियर एडवोकेट डॉ अभिषेक मनु सिंघवी ने तत्काल सुनवाई के लिए भारत के चीफ जस्टिस की बेंच के सामने दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया (Manish Sisodia) की याचिका का जिक्र किया.
मनीष सिसोदिया को वर्ष 2021-22 की दिल्ली आबकारी नीति (जो अब रद्द की जा चुकी) को तय करने और उसे लागू करने में अनियमितताओं के एक कथित मामले में 4 मार्च तक सीबीआई हिरासत में भेज दिया गया है.
भले ही चीफ जस्टिस ने कहा कि याचिकाकर्ता संबंधित हाई कोर्ट के सामने वैकल्पिक उपाय का लाभ उठा सकता है, फिर भी वह उस दिन याचिका पर सुनवाई के लिए सहमत हो गए.
हालांकि जब उस मामले की सुनवाई हुई, तो चीफ जस्टिस ने यह कहते हुए याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 का इस्तेमाल अन्य बातों के साथ-साथ रिमांड को चुनौती देने और जमानत मांगने के लिए नहीं किया जा सकता है. और यह भी कि अभी सिसोदिया के पास संबंधित हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का विकल्प मौजूद है.
डॉ सिंघवी ने याचिका दी थी कि मामला 'असाधारण परिस्थितियों' से जुड़ा हुआ है और इसलिए सुप्रीम कोर्ट के दखल की जरूरत है, पर इस पर ध्यान नहीं दिया गया.
लेकिन दो मुनासिब सवालों के बारे में सोचा जा सकता है:
जब मामले का जिक्र किया गया था और चीफ जस्टिस ने याचिकाकर्ता को अपनी आपत्ति जताई थी तब सुप्रीम कोर्ट ने सुबह ही याचिका को खारिज क्यों नहीं कर दिया?
कोई यह कैसे निर्धारित करता है कि कौन सी 'असाधारण परिस्थितियां' सुप्रीम कोर्ट की नजर में वैध हैं?
जबकि न्यायिक कार्य में दक्षता को खुद इंसाफ के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए, हिरासत और गिरफ्तारी से जुड़े मामलों में समय का बहुत महत्व होता है. इस प्रकार अगर सुप्रीम कोर्ट ने किसी विवादित मुद्दे के बारे में अपना मन बना लिया है, तो उसे लंबी निरर्थक सुनवाई करने की बजाय तुरंत दिशानिर्देश दे देने चाहिए, जो कि मंगलवार को हुआ था.
इससे न केवल अदालत का कीमती समय बचेगा, बल्कि देश में अधिकारों से संबंधित फैसलों के मानदंड भी तय होंगे. लेकिन नंबर एक मुद्दे पर चर्चा बाद में करेंगे, पहले नंबर दो मुद्दे पर बातचीत करें, जो इस लेख के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है.
28 फरवरी की सुनवाई में डॉ सिंघवी ने कुछ मामलों का जिक्र किया, विशेष रूप से पत्रकार प्रशांत कनौजिया और दिवंगत विनोद दुआ और टीवी एंकर अरनब गोस्वामी के मामले. इसमें अदालत ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हवाला देते हुए रिहाई का आदेश दिया या मामलों को ही निरस्त कर दिया.
हालांकि बेंच ने मनीष सिसोदिया के मामले को इन मामलों से अलहदा रखा और कुछ ऐसे मानदंड दिए जो अविश्वसनीय महसूस हुए. मौखिक रूप से कहा गया कि विनोद दुआ के मामले में पत्रकारिता की स्वतंत्रता का मुद्दा शामिल था लेकिन वर्तमान मामले पर वैसा ही बर्ताव नहीं किया जा सकता. चूंकि यह भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत अपराधों से संबंधित है.
प्रथम दृष्टया सुप्रीम कोर्ट ने जो अप्राकृतिक भेद किया है, उसका कोई आधार नहीं है.
एक तर्क दिया जा सकता है कि पहले के मामले उन अपराधों से संबंधित थे जो बोलने की स्वतंत्रता के परस्पर विरोधी थे. लेकिन इसका जवाब मिलना अभी बाकी है कि जब किसी व्यक्ति की वैसी ही अमूर्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता दांव पर होती है तो उस मामले में अलहदा बर्ताव क्यों किया जाना चाहिए.
यहां जिक्र करना जरूरी नहीं, इससे यह भी पता चलता है कि हमारे सुप्रीम कोर्ट के कामकाज का अंदाजा लगाना मुश्किल है, खासकर व्यक्तिगत स्वतंत्रता और व्यक्तियों की स्वतंत्रता से संबंधित सीधे मामलों में.
भारत का सुप्रीम कोर्ट कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड है. यानी उसकी अदालत की टिप्पणियां और फैसले एक भंडार जैसे होते हैं जिन पर निचली अदालतें, और खुद सुप्रीम कोर्ट भी भरोसा करता है. वे एक जैसे तथ्यात्मक और कानूनी सवालों, जो मिलते-जुलते होते हैं, पर उनसे मार्गदर्शन हासिल करता है.
ऐसी मिसालों से न्यायिक फैसलों का अंदाजा लगाना आसान होता है, और संभावित याचिकाकर्ता आकलन कर सकता है कि अदालत के सामने उसका दावा कामयाब होगा या नहीं.
इसका एक संभावित नतीजा यह है कि सुप्रीम कोर्ट दोतरफा बात नहीं कर सकता, यानी उसके फैसलों में विसंगति नहीं हो सकती, खासकर जब मुद्दे से संबंधित तथ्यों पर एक समान बर्ताव करने की बात आती है.
इसके अलावा महत्वपूर्ण मौलिक अधिकारों से जुड़े मामलों, जैसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता (जैसे जमानत की सुनवाई) के लिए उच्च स्तर की जांच और पहचान योग्य निर्धारकों की आवश्यकता होती है. इससे एपेक्स कोर्ट को याचिका का सही मूल्यांकन करने में मदद मिलती है.
ऐसे मामलों में कुशलता के साथ-साथ न्यायिक समय का भी बहुत महत्व है. यानी कितना समय दिया गया और कब दिया गया (यहां हमारा नंबर एक सवाल भी आ जाता है).
बदकिस्मती से इस दिशा में निराशाजनक प्रगति हुई है. 28 फरवरी को मनीष सिसोदिया के मामले में जो हुआ, उससे यह स्पष्ट है:
यह एपेक्स कोर्ट के लिए उचित मौका था कि वह साफ और सुसंगत दलील देता और सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों से जुड़े फैसलों की रूपरेखा स्पष्ट करता है. लेकिन अब यह नष्ट हो गया है. खराब तर्कपूर्ण आदेश ही भारतीय कानून में अनसुलझे मामलों का अंबार लगाते हैं.
उससे भी खराब यह है कि विरोधाभासी फैसलों के ही चलते, इंसाफ दिलाने वाले संस्थानों से लोगों का भरोसा टूटता है.
इसके अलावा ऐसी कई बातें हैं जो मनीष सिसोदिया की रविवार को अचानक हुई गिरफ्तारी को नाटकीय बनाती हैं.
सबसे पहले, सिसोदिया की गिरफ्तारी अर्नेश कुमार मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करती है, जिसमें कहा गया है कि सात साल तक की जेल वाले अपराध के आरोपी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है.
हां, अर्नेश कुमार मामले का लाभ उठाने के लिए कई बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए. जैसे मामले की उचित जांच, जब भी आवश्यक हो, अदालत के सामने अभियुक्त की उपस्थिति वगैरह. लेकिन जैसा कि संबंधित सभी लोगों ने माना है कि सिसोदिया अगस्त 2022 में अपने खिलाफ एफआईआर दर्ज होने के बाद से दो मौकों पर मामले की जांच में शामिल हुए थे.
राउज एवेन्यू कोर्ट ने हिरासत की अवधि बढ़ाने का बेतुका तर्क दिया. उसने कहा कि सिसोदिया 'संतोषजनक ढंग से और वैध रूप से अपने खिलाफ लगाए गए सबूतों को स्पष्ट' करने में विफल रहे हैं. यह तार्किक नहीं लगता और हाई कोर्ट को इसे खारिज कर देना चाहिए जोकि खुद को अपराधी न बताने के किसी व्यक्ति के अधिकार के हित में है. यानी किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को अपने खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा.
इस पूरे उपद्रव में दिल्ली के उपराज्यपाल (एलजी) के कार्यालय की भूमिका भी चर्चा का विषय है.
जबकि 2021 की आबकारी नीति को शुरुआत में एलजी के कार्यालय की मंजूरी मिल गई थी, उसी कार्यालय ने कुछ महीने बाद मनीष सिसोदिया के खिलाफ सीबीआई जांच की सिफारिश की, वह भी एक रिपोर्ट के आधार पर जिसमें आरोप लगाया गया था कि नीति वैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करती है और उसका प्रतिकूल वित्तीय प्रभाव पड़ा है.
अनुमोदन प्रक्रिया में एलजी की भूमिका के कानूनी निहितार्थों पर टिप्पणी करना जल्दबाजी होगी, लेकिन एक सरकारी कार्यालय के रुख में नाटकीय बदलाव से नैतिकता और कुशासन के वैध प्रश्न उठते हैं. इसे समझने के लिए राजनीति विज्ञान में डिग्री की भी जरूरत नहीं है कि उपराज्यपाल के कार्यालय के कामकाज में विसंगतियां हैं, जिसका कारण वहां बैठे अधिकारी खुद ही जान सकते हैं.
अदालतें राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का अखाड़ा बना दी गई हैं, और हमारी तरफ से यह मान लेना समझदारी नहीं होगी कि हमारी सुप्रीम कोर्ट इस असली राजनीति से अनजान है.
इस तरह इंसाफ देते समय शीर्ष अदालत को इस बात पर ध्यान देना होगा कि विरोधी पक्षों के बीच ताकत का कैसा खेल खेला जा रहा है.
यहां दांव पर सिर्फ एक उपमुख्यमंत्री की किस्मत नहीं लगी है, बल्कि राजनीतिक लोकतंत्र का भाग्य और न्याय व्यवस्था पर आम जनता का भरोसा भी टिका हुआ है.
(हर्षित आनंद दिल्ली में प्रैक्टिस करने वाले एडवोकेट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @7h_anand है और उनसे 7h.anand@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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