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इस सप्ताह की शुरूआत में पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) का संसदीय करियर 33 साल के लंबे सफर के बाद समाप्त हो गया. इसके साथ मीडिया में उन रिपोर्ट्स की बाढ़ आ गयी जिसमें मनमोहन सिंह के सार्वजनिक जीवन की समृद्ध विरासत का बखान था.
उन्हें आर्टिकल्स में सम्मानित, विद्वान और आर्थिक सुधारों के निर्माता के तौर पर बताया गया. लेखकों ने याद किया कि कैसे इस मृदुभाषी अर्थशास्त्री को 1991 में तात्कालिक प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने वित्त मंत्रालय का नेतृत्व करने के लिए चुना था. मनमोहन सिंह को देश की बीमार अर्थव्यवस्था को बदलने का काम सौंपा गया था. इस काम के लिए जरूरत थी कि पुरानी और स्थापित आर्थिक नीतियों को पूरी तरह से बदला जाए और उसे वर्तमान समय के अनुरूप बनाया जाए. उन्होंने इस काम को शानदार तरीके से किया. उन्होंने आत्मविश्वास के साथ उदारीकरण की शुरुआत की जिससे देश आर्थिक विकास के तरफ बढ़ा और मध्यम वर्ग का विस्तार हुआ.
मनमोहन सिंह की राजनीति में दूसरा सबसे बड़ा क्षण तब आया जब 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली UPA की सरकार सत्ता में आई. तब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी से अपना नाम हटा लिया और यह शीर्ष पद संभालने का जिम्मा अपने 'भरोसेमंद डॉक्टर' को दे दिया. UPA सरकार ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व में फिर से अगला चुनाव (2009) भी अपने पाले में कर लिया.
भारत-अमेरिका परमाणु संधि मनमोहन सिंह की सरकार को उस हद तक ले गयी जहां उन्हें वाम दलों के अहम समर्थन को खोना पड़ा. इस संधि पर विशेषज्ञों और टिप्पणीकारों ने खूब लिखा और बारीकी से उसे तौला. दूसरी तरफ विवादों के अलग-अलग स्टेज से जब परमाणु समझौता गुजर रहा था तो मीडिया ने भी जमकर रिपोर्टिंग की.
न्यूज रूम के अंदर और बाहर, इस संधि के कई समर्थक थे लेकिन साथ ही इसके आलोचक भी कई थे जिन्होंने संधि के हर पैराग्राफ, हर वाक्य पर अपनी टिप्पणी की. और यह चीज सिर्फ परमाणु संधि के साथ नहीं बल्कि मनमोहन सरकार के कार्यकाल के दौरान दूसरे अन्य प्रमुख नीतियों का साथ भी मीडिया ने ऐसा किया. यह आज से बिल्कुल विपरीत है जहां सरकार की मुख्य नीतियों पर मुख्यधारा की मीडिया में विस्तृत रिपोर्ट की कमी है. उदाहरण के लिए हाल ही में बदले गए क्रिमिनल कानूनों के मामले में.
तब मीडिया ने यह रिपोर्ट करने में संकोच नहीं किया कि सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद कैसे यूपीए सरकार के कुछ कानूनों पर असर डाल रही थी या फिर UPA गठबंधन में विभिन्न सहयोगी दल सरकार को अलग-अलग दिशाओं में खींच रहे थे. इसी तरह, प्रधान मंत्री कार्यालय और कांग्रेस संगठन के बीच के उतार-चढ़ाव वाले संबंधों का अंतहीन कवरेज मीडिया कर रही थी, जिसे दोनों तरफ की आधिकारिक मशीनरी हवा दे रही थी.
मनमोहन सिंह के पास संजय बारू के रूप में एक स्पष्टवादी और मिलनसार प्रेस सलाहकार थे, जो लगातार पत्रकारों के संपर्क में रहते थे और साथ ही उन्होंने अपने दरवाजे पत्रकारों के लिए हमेशा खोले रखें. कोई भी प्रेस से बात करने से नहीं डरता था. संसद एक अलग ही मंच था जहां प्रेस के लोग एक कप कॉफी के साथ मंत्रियों और सांसदों के साथ नोट्स का आदान-प्रदान कर सकते थे. विभिन्न मंत्रियों और राजनीतिक दलों के ऑफिस वर्चुअल अड्डे थे जहां बातचीत स्वतंत्र रूप से होती थी और जानकारी एक क्लिक की दूरी पर थी.
आज कहानी बिल्कुल अलग है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दस सालों में एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित नहीं किया है. संसद में मीडिया की पहुंच को गंभीर रूप से कम कर दिया गया है और नए संसद भवन में मीडियाकर्मियों और सांसदों के बीच अनौपचारिक बातचीत के लिए जगह भी खत्म कर दी गई है. वर्तमान पीएमओ में ऐसे नौकरशाह हैं जिनका वस्तुतः कोई चेहरा नहीं है और वे पत्रकारों से बात करने से कतराते हैं, सिवाय कुछ मुट्ठीभर लोगों के, जो वर्तमान सरकार के साथ वैचारिक रूप से जुड़े हुए हैं.
ऐसा ही ट्रेंड इस सरकार के दूसरे मंत्रालयों ने अपनाया है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जो पहला आदेश जारी किया था वह था मान्यता प्राप्त पत्रकारों के फ्री एंट्री पर रोक लगाना. अब पत्रकारों को केवल तभी एंट्री की अनुमति है जब उन्होंने किसी अधिकारी से पहले से अपॉइंटमेंट लिया हो. यह सुनिश्चित करने का एक तय तरीका है कि नौकरशाह पत्रकारों से अनौपचारिक रूप से बात न करें क्योंकि ये बातचीत अब ऑन-रिकॉर्ड होगी.
यहां तक कि जब 2011 में अन्ना हजारे और एक्टिविस्ट अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था और अंततः यूपीए सरकार की विदाई हुई, तब भी मीडिया को इस कार्यक्रम को कवर करने से रोकने के लिए कोई निर्देश नहीं थे. टेलीविजन समाचार चैनलों और प्रिंट मीडिया, दोनों ने जो 24 घंटे की लगातार कवरेज की, वो इस बात का पर्याप्त सबूत है.
हालांकि आज मीडिया ने या तो अपनी इच्छा से या फिर दबाव में, सरकारी नीतियों की आलोचना करने या चल रहे राजनीतिक घटनाक्रम पर ईमानदारी से रिपोर्टिंग करने की अपनी भूमिका को त्यागने का विकल्प चुना है. उदाहरण के लिए, मुख्यधारा के मीडिया में (कुछ अपवादों को छोड़कर) चुनावी बॉन्ड डेटा पर विस्तृत कवरेज लगभग गायब है. इसके बजाय यह अहम काम छोटे मीडिया आउटलेट्स द्वारा किया गया.
इन सबमे सबसे खास बात यह है कि खुद मनमोहन सिंह ने मीडिया से कभी मुंह नहीं फेरा. उन्होंने तमाम ऐसे प्रेस कॉन्फ्रेंस किए जहां उन्हें कई मुश्किल सवालों का सामना करना पड़ा. जिसका जवाब मनमोहन सिंह ने बेहद ईमानदारी और स्पष्ट रूप से दिया. उनकी आखिरी प्रेस कॉन्फ्रेंस को उनकी अब तक की प्रख्यात घोषणा के लिए याद किया जाएगा. यहां उन्होंने कहा था, "अगर मोदी भारत के प्रधान मंत्री बने तो यह एक आपदा होगी"
(लेखिका दिल्ली स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनका X हैंडल @anitaakat है. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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