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1975 के लोकतांत्रिक झटके के बाद भारतीय जनतंत्र को देखने का नजरिया बदल गया था. दुनिया भर में भारतीय पत्रकारिता को शान से देखा जा रहा था. यहां 400 से ज्यादा न्यूज चैनल और रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर्स फॉर इंडिया में एक लाख से ज्यादा पब्लिकेशंस दर्ज थे. मीडिया मुक्तलिफ, बेतकल्लुफ और सतरंगी देश का स्वरूप दर्शाता था. उसकी जीवंतता की मिसाल ढूंढे न मिलती थी.
लेकिन इस जोशीली कहानी में एक अहम मोड़ तब आया, जब सरकार ने केंद्रीय मीडिया प्रत्यायन दिशानिर्देश (सेंट्रल मीडिया एक्रेडिटेशन गाइडलाइन्स), 2022 जारी किए. इन दिशा-निर्देशों के दस उपनियम (clause) ऐसे हैं जो पत्रकारों की पीआईबी मान्यता को खतरे में डालते हैं. इन उपनियमों की पक्षपातपूर्ण व्याख्या की जा सकती है, और पत्रकारों को इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है.
एक्रेडिटेशन या प्रत्यायन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके जरिए पत्रकारों को सरकारी दफ्तरों और डॉक्यूमेंट्स तक पहुंचने की इजाजत मिलती है. लेकिन इसका मतलब हमेशा से ऐसे लोगों से रहा है, जो कटुभाषी और विविध विचारों वाले होते हैं, वे नहीं जो सरकार के स्वर से स्वर मिलाते हैं. जिन्होंने ऐसे जमावड़ों में शिकरत की है जहां ‘एक्रेडिटेशन’ वाले पत्रकार जमा होते हैं, वे इस बात की गवाही दे सकते हैं कि वे कितनी अलग-अलग सोच वाले लोग होते हैं.
लेकिन यह नई परिभाषा इस मूल अवधारणा को ही बदलकर रख देती है कि आखिर पत्रकार कौन है. इसके अलावा यह इस सवाल को भी पलटकर रख देती है कि सरकारी कामकाज की समीक्षा के लिए रोजाना क्या खंगाला जा सकता है. इसकी बजाय, यह सरकार की पसंद वाले पत्रकारों की एक फेहरिस्त तैयार कर देती है. कोई भी व्यक्ति जो सत्तासीन पार्टी जैसे नजरिए वाला नहीं होगा, पत्रकार नहीं रह पाएगा. अब सरकारी अधिकारी पत्रकारों के बर्ताव पर नजर रखेंगे और तय करेंगे कि उनके हिसाब से भारत की संप्रभुता या अखंडता के लिए क्या अपमानजनक या पूर्वाग्रहों से भरा हुआ है.
इसका यह मतलब भी हुआ कि पत्रकार जो लिखेंगे, उस पर जिन मानदंडों के हिसाब से फैसला लिया जाएगा, उन मानदंडों की बहुत आसानी से अपनी तरह से व्याख्या की जा सकती है.
भारत में प्रेस के दमन के खिलाफ लड़ाई बहुत पुरानी है. 1878 के वर्नाकुलर प्रेस एक्ट के समय से पत्रकार प्रेस की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं, और अपनी कलम के जरिए सरकार की खराब नीतियों की आलोचना कर रहे हैं. इसकी जड़ें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गहरी पैठी हुई हैं. ऐसे में ये दिशानिर्देश इस भरोसे को तहस-नहस करते हैं कि भारतीय राज्य प्रेस पर कभी पाबंदियां नहीं लगाएगा और इंदिरा गांधी की सरकारी सेंसरशिप के तजुर्बे के चलते वह पहले से ज्यादा समझदार हो गया है.
पत्रकार आम तौर पर आम लोगों के नुमाइंदे के तौर पर काम करते हैं. उनसे उम्मीद की जाती है कि वे ऐसे सवाल पूछेंगे जिससे तय होगा कि आम लोगों के प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले लोग, जिनके हाथों में ताकत होती है, इस बात के लिए हमेशा सतर्क और चिंतित रहेंगे कि उन्हें जवाब देना होगा. दुखद है कि पिछले कई सालों से राजनैतिक प्रतिनिधि पहुंच से दूर हुए हैं. वे चाहते भी नहीं कि उन तक किसी की पहुंच बने. मिसाल के तौर पर ज्यादातर नेता ब्लैक क्लैड कमांडो से घिरे रहते हैं और यह उनके लिए इज्जत की बात है. इससे यह भ्रम पैदा होता है कि सत्ता पर काबिज नेतागण का ओहदा बाकियों से ऊंचा है और उन तक सीधा पहुंचना बहुत मुश्किल- ऐसे में सवाल करने की तो बात ही मत पूछिए.
यह महत्वपूर्ण है कि लोकतंत्र एक रहे और किसी को भी पांच साल के जनादेश के साथ इतनी ताकत न मिल जाए कि पूरी व्यवस्था ही उलट जाए. कार्यपालिका को असहज महसूस कराना ही लोकतंत्र का सार है. यही कारण है कि मान्यता प्राप्त पत्रकारों के लिए यह जरूरी है कि वे किसी मनोनीत अधिकारी या पत्रकारों की चुनी हुई समिति की दया के भरोसे न हों, जो मनमाने तरीके से पत्रकारीय 'आचरण' की व्याख्या करती हो.
बेशक इन नियमों को दूसरे कदमों के लिहाज से भी देखा जाना चाहिए. इस सरकार ने पहले पीआईबी के पत्रकारों के सरकारी कार्यालयों में प्रवेश करने का हक छीना. महामारी का हवाला देते हुए पास-होल्डिंग पत्रकारों के संसद में दाखिल होने और खबरों को कवर करने पर पाबंदियां लगाईं. कई पत्रकार संगठनों ने इसका विरोध किया और पत्र लिखे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. कश्मीर इस बात की मिसाल है कि कैसे प्रेस को नियंत्रित किया जा रहा है. रिपोर्टिंग पर पुलिसिया निगरानी की जा रही है और कई पत्रकारों को सलाखों के पीछे डाल दिया गया है.
वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत की रैंकिंग 180 देशों में 142 पर पहुंच गई है और इसमें और गिरावट की उम्मीद लगाई जा रही है. 2020 में रिपोर्टर्स सैन्स फ्रंटियर ने कहा था, “2020 में चार पत्रकार अपना काम करते हुए मारे गए. इसी के साथ भारत उन पत्रकारों के लिए दुनिया के सबसे खतरनाक देशों में से एक है जो अपना काम सही तरीके से करने की कोशिश करते हैं.” यहां सिर्फ पत्रकारों की जिंदगी दांव पर नहीं लगी, बल्कि उनके सिर पर भी तलवार लटकी हुई है जिनके हाथों में लोकतंत्र की कमान है. डिजिटल मीडिया के नए विवादास्पद और पाबंदियां लगाने वाले नियमों को भले ही उच्च न्यायालयों ने स्टे दे दिया है, लेकिन यह इस बात की तरफ इशारा करता है कि कैसे चारों तरफ से शिकंजा कसा जा रहा है.
यह कहा जाना चाहिए कि सरकारें ज्यादातर कठपुतली शासन चाहती हैं, खासकर ऐसी सरकारें जो पूरा नियंत्रण अपने हाथों में रखने के लिए बदनाम हैं. लेकिन भारत में मुख्यधारा का मीडिया इसका बहुत विरोध भी नहीं करता. तकनीकी बदलावों और सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर रहने की वजह से बहुत से लोग सरकार की दरियादिली पर न्यौछावर हो जाते हैं. इससे मीडिया की लोकतांत्रिक छवि मटमैली हुई है.
नए दिशा-निर्देश सिर्फ पत्रकारों को मान्यता देने या न देने से जुड़ी हुई नहीं हैं. यह इस बात को भी दर्शाती हैं कि देश के निर्वाचित प्रतिनिधि लोकतंत्र का क्या हश्र कर रहे हैं. इससे पता चलता है कि सरकार के लिए प्रश्नों, उस तक पहुंच और पारदर्शिता के क्या मायने हैं. भारतीय मीडिया की खराब स्थिति और बदतर ही होगी, चूंकि इस अक्खड़ सरकार ने एक लक्ष्मण रेखा खींच दी है. लेकिन उस रेखा को लांघने से ही मुक्ति मिलेगी. क्या हम उस रेखा को पार कर पाएंगे, या दब्बू बनकर यह कबूल कर लेंगे कि हमारे प्रधानमंत्री ने पिछले आठ सालों में एक बार भी प्रेस का सामना नहीं किया.
(सीमा चिश्ती एक लेखिका और पत्रकार हैं. अपने दशकों लंबे करियर में, वह बीबीसी और द इंडियन एक्सप्रेस जैसे संगठनों से जुड़ी रही हैं. वह ट्विटर पर @seemay के नाम से ट्वीट करती हैं. ये एक ओपिनियन आर्टिकल है, ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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