मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019लेह में दिखे ‘दो मोदी’-राजनीतिज्ञ और PM, दोनों ने क्या हासिल किया?

लेह में दिखे ‘दो मोदी’-राजनीतिज्ञ और PM, दोनों ने क्या हासिल किया?

मोदी को अपने घरेलू वोट को मजबूत करने के अलावा भी कुछ करना होगा

नीलांजन मुखोपाध्याय
नजरिया
Updated:
लेह में दिखे ‘दो मोदी’
i
लेह में दिखे ‘दो मोदी’
(Photo: Altered by Aroop Mishra / The Quint)

advertisement

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस पर विचार करना होगा कि क्या, चाहे-अनचाहे, उन्होंने चीन के मसले पर जवाहर लाल नेहरू का रास्ता अख्तियार कर लिया है. इसमें कोई शक नहीं कि पीएम मोदी की लद्दाख यात्रा और निमू में 14 कोर के मुख्यालय से उनका संबोधन सिर्फ प्रतीकवाद नहीं था. वास्तव में, इस संबोधन से उन्होंने सशस्त्र बलों, भारतीय नागरिकों, अंतरराष्ट्रीय समुदाय और अंत में चीन के राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व को कई संदेश दिए.

सोच समझ कर दिया गया ये भाषण, जो कि लाइव प्रसारित हो रहा था और एक तरह से राष्ट्र के नाम संबोधन जैसा था, मुख्य तौर पर, सशस्त्र बलों का मनोबल बढ़ाने के अलावा, अपने राजनीतिक क्षेत्र को मजबूत करने के मकसद से दिया गया था.

जहां तक चीनी नेतृत्व की बात है, जो कि निसंदेह मौजूदा गतिरोध को 'सुलझाने' या 'बढ़ाने' में निर्णायक भूमिका निभाएगा, मोदी ने ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया - जो घरेलू समर्थकों को संगीत की तरह लग रहे थे – जिससे कूटनीतिक दरवाजा खुला रहे और इसलिए अपने भाषण में कहीं भी उन्होंने चीन का नाम नहीं लिया.

मोदी की दो ‘असमान’ भूमिका

मोदी, एक तरह से, एक साथ दो अलग-अलग भूमिका निभा रहे थे. पहला, उनका राजनीतिक पक्ष था, जिसमें मुख्य तौर पर वो अपने चुनाव-क्षेत्र को संबोधित कर रहे थे जो कि इस मामले में सरकार की कथित 'निष्क्रियता' और सर्वदलीय बैठक के आखिर में पीएम के अस्पष्ट बयान – जिस पर बाद में पीएमओ को स्पष्टीकरण देने की जरूरत पड़ी - से थोड़े निराश हो चुके थे.

15/16 जून के हिंसक टकराव पर मोदी की प्रतिक्रिया को उरी और पुलवामा के बाद की उनकी कार्रवाइयों से ठीक विपरीत माना जा रहा था - पहले जिसे, पूर्व प्रधानमंत्रियों से अलग, भारत को सुरक्षित रखने का ‘मोदी मार्ग’ बताया गया था.

यह जनता का वो वर्ग था जिसे भरोसा दिलाना जरूरी था कि ‘56 इंच का मशहूर सीना’ अभी सिकुड़ा नहीं है, और अभी उनमें वही ‘आग और आवेश’ – 14 कोर का उपनाम, जिसकी टोपी पीएम ने पहन रखी थी - बाकी है.

अपने प्रशंसकों की सेना को सोशल मीडिया और टेलीविजन पर जंग जारी रखने के लिए ‘गोला बारूद’ मुहैया कराने के बाद, मोदी ने लेह में अपना समय सेवारत सैनिकों - और उनके परिवारों का - हौसला बढ़ाने में बिताया.

  • मोदी, एक तरह से, एक साथ दो अलग-अलग भूमिका निभा रहे थे.
  • पहले, उनके राजनीतिक पक्ष ने, अपने चुनाव-क्षेत्र को संबोधित किया जो कथित ‘निष्क्रियता’ (चीन के खिलाफ) से थोड़े निराश थे.
  • मोदी हमेशा से शब्द-शिल्पकारी और पौराणिक कथाओं-कविताओं की उचित खुराक के साथ भाषण देने में माहिर रहे हैं. उनके भाषण को बड़े सलीके से सजाया गया था
  • निमू में मोदी के व्यक्तित्व का जो दूसरा आयाम नजर आया वो था, प्रधानमंत्री के रूप में उनकी भूमिका.
  • इस हैसियत से, उन्होंने ना सिर्फ चीनी राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व को, बल्कि पूरे विश्व समुदाय को संदेश दिया

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

लेह में मोदी के भाषण को सलीके से सजाया गया था

सैनिकों को राजनेताओं से हौसला अफजाई की जरूरत नहीं होती है, खास तौर पर इसलिए क्योंकि वे सुरक्षा बल में जिस संकल्प के साथ आते हैं वो राजनीति के गलियारों में नहीं देखा जाता. लेकिन, तारीफ के शब्द बेकार नहीं जाते, खासकर ऐसे मौकों पर जब सैनिक तनावग्रस्त हों और अपने साथियों को खो चुके हों - शायद नीतिगत भूल की वजह से.

मोदी हमेशा से शब्द-शिल्पकारी और पौराणिक कथाओं-कविताओं की उचित खुराक के साथ भाषण देने में माहिर रहे हैं. उनके भाषण को बड़े सलीके से सजाया गया था, और बताया गया था कैसे सैनिकों के साहस और दृढ़ निश्चय ने ‘आत्मनिर्भरता’ के लक्ष्य को हासिल करने में नागरिकों का विश्वास बढ़ाया है.

  यह ‘मोदी-मानक’ है – जहां हर कोई उनकी बनाई गई विशाल ‘राष्ट्रीय’ परियोजना का हिस्सा है.

सैनिक न सिर्फ जंग के मैदान में लड़ते हैं, बल्कि आर्थिक, सामाजिक या दूसरे क्षेत्रों में लगे लोगों को भी ताकत देते हैं. ठीक उसी तरह, जो लोग सशस्त्र बलों में नहीं हैं वो अपने काम से देश को ‘वैश्विक आकर्षण’ बनाते हैं, जिससे सशस्त्र बलों का गौरव और आत्म-सम्मान बढ़ता है. पूरे विश्व में ऐसा ही होता है, लेकिन मोदी ने अपनी वाकपटुता से इस रिवायत पर विशेषाधिकार बना लिया है.

निमू में मोदी के व्यक्तित्व का दूसरा आयाम भी दिखा

निमू में मोदी के व्यक्तित्व का जो दूसरा आयाम नजर आया वो था प्रधानमंत्री के रूप में उनकी भूमिका. इस हैसियत से, उन्होंने ना सिर्फ चीनी राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व को, बल्कि पूरे विश्व समुदाय को संदेश दिया. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके दो सबसे अहम दावों में से पहला था पारंपरिक भारतीय द्विविधता की पुनरावृत्ति: एक तरफ बांसुरी बजाते खुशमिजाज लोग, तो दूसरी तरफ इससे उलट बदला लेने के तैयार लोग, जो कि युद्ध के दौरान नई तकनीक का इस्तेमाल करने से नहीं कतराते.

ये कोई धमकी नहीं थी, लेकिन बीजिंग अपने अगले कदम पर विचार करते समय इस बात को जरूर दिमाग में रखेगा.

दूसरा अहम दावा था वो तर्क कि विश्व विकासवाद और विस्तारवाद में यकीन रखने वाले देशों में बंट चुका है.

एक ऐसा देश जिसके चीन और पाकिस्तान, और अब नेपाल भी, के साथ जमीन के विवाद सुलझे नहीं हैं, इस कथन का दूसरा हिस्सा यह नहीं कहता कि बीजिंग का नेतृत्व ‘विस्तारवादी’ है क्योंकि ये दूसरों पर लागू हो सकता है.

मगर इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि लोकतंत्र में सार्वजनिक विमर्श के दौरान 'संदर्भ' की उतनी ही अहमियत है जितनी अतिशयोक्ति या टालमटोल की.

लेकिन, शब्दों पर आधारित कूटनीतिक दुनिया में, मोदी का उपमाओं और व्याकरण के तृतीय पुरुष में बात करने का फैसला, पीछे हटने का विकल्प देता है, और बातचीत के दौरान आखिरी नतीजों तक पहुंचने में उपयोगी साबित हो सकता है.

मोदी समर्थकों में नई जान आई, लेकिन आगे की राह आसान नहीं

लद्दाख को देश का ‘मस्तक’ बताकर प्रधानमंत्री ने ना सिर्फ बाकी भारत में इस क्षेत्र की अहमियत का संदेश अतंरराष्ट्रीय समुदाय को दिया, बल्कि वो उनकी तरफ से भी बोलते नजर आए. काफी सोच-विचार और पर्याप्त बातचीत के बाद उन्होंने जोर देकर कहा होगा कि ‘पूरे विश्व ने विस्तारवाद के खिलाफ मन बना लिया है.’

इस यात्रा और संबोधन के बाद प्रधानमंत्री के समर्थकों में नई जान आ गई होगी, लेकिन आगे की राह अब भी अनिश्चित और मुश्किल नजर आती है.

मोदी की विरासत का आकलन 2020 में हुए विकास के आधार पर किया जाएगा, खास तौर पर कोविड-19 महामारी और चीन के साथ संबंधों को लेकर. जहां महामारी एक कुशल प्रशासक होने की उनकी काबिलियत की लगातार परीक्षा ले रही है, लद्दाख में बने हालात बलशाली नेतृत्व की उनकी छवि, जिसे बनाने में उन्होंने काफी मेहनत की है, बिगाड़ सकते हैं.

वैश्विक स्वीकृति और प्रशंसा की तलाश में, पूर्व प्रधानमंत्रियों की तरह, मोदी ने भी व्यक्तिगत कूटनीति का रास्ता अपनाया, जिसका निश्चित रूप से शी जिनपिंग के दिल पर असर नहीं हुआ.

सितंबर 2014 में, जापान की अपनी पहली यात्रा के दौरान, मोदी ने विस्तारवाद के फिर से सिर उठाने का मुद्दा उठाया था.

यह बयान शी जिनपिंग के भारत आने से एक पखवाड़े पहले दिया गया था, जब मोदी ने अहमदाबाद में उनकी अगवानी की और साबरमती के तट पर उनके साथ एक शाम (वो मोदी का जन्मदिन भी था) बिताई.

दावे और कार्रवाई के बीच का ये अंतर मोदी की चीन नीति का हिस्सा रही है.

मोदी को अपने घरेलू वोट को मजबूत करने के अलावा भी कुछ करना होगा

भारत की जमीन को लेकर बीजिंग की महत्वाकांक्षाओं के बारे में जानते हुए भी, उन्होंने अपने फैसले पर सभ्यता और व्यक्तिगत जुड़ाव के विचारों को हावी होने दिया. मई 2015 में चीन यात्रा के दौरान चीनी प्रीमियर के साथ अपने ‘असाधारण व्यक्तिगत संबंध’ के दिखावे से असंतुष्ट मोदी ने, 2017 में गुजरात में भी जयकारे लगाती भीड़ के सामने यही दोहराया.

पीएम मोदी को इस पर विचार करना होगा कि क्या, चाहे-अनचाहे, चीन के मसले पर जवाहर लाल नेहरू का रास्ता अख्तियार कर लिया है.

भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने अक्टूबर 1959 में मुख्यमंत्रियों को लिखा था कि ‘भारत और चीन के रिश्ते खराब हो गए हैं’. वो जानते थे कि ‘चीन की सरकार देश के विस्तार के लिए हर दिशा में जोर लगा रही है’. इसके बावजूद वो अपनी नीतियों पर चलते रहे और 1962 में अपने दुश्मन से मिले. मोदी के सामने ज्यादा विकल्प मौजूद नहीं हैं, और सिर्फ घरेलू वोट को मजबूत करने से कुछ नहीं होगा. हालांकि, उनके सामने क्या विकल्प मौजूद हैं, वो एक अलग बात है.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 05 Jul 2020,03:30 PM IST

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT