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नरसिंहानंद की गिरफ्तारी तो हुई, लेकिन उन्हें कानून से ऊपर क्यों रखा गया?

अगर आरीपो मुसलमान हो तब तो पुलिस ने पुलिस कठोर कानून लागू किए हैं तो नरसिंहानंद को क्यों बख्शा गया?

अपूर्वानंद & सूरज गोगोई
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>मुसलमानों के नरसंहार के आह्वान के लिए  यति नरसिंहानंद अब सलाखों के पीछे है.</p></div>
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मुसलमानों के नरसंहार के आह्वान के लिए यति नरसिंहानंद अब सलाखों के पीछे है.

क्विंट 

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यति नरसिंहानंद को आखिरकार गिरफ्तार कर लिया गया और न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. नरसिंहानंद की गिरफ्तारी से पहले जितेंद्र नाथ त्यागी को गिरफ्तार किया गया. जितेंद्र को पहले वसीम रिजवी के नाम से भी जाना जाता था. त्यागी यती जैसे हिंदू स्वामियों के लिए एक विजेता ट्रॉफी की तरह है, क्योंकि यति और उनके जैसे साधु इस बात बताना चाहते हैं कि उन्होंने कम से कम एक मुस्लिम को 'शुद्ध' किया है और इसके जरिए उन्होंने हिंदुओं की आबादी को 'बढ़ाया' है. 17, 18 और 19 दिसंबर को हरिद्वार में आयोजित धर्म संसद में यति नरसिंहानंद, जितेंद्र नाथ त्यागी और इनके जैसे ही अन्य साधुओं ने मुसलमानों को खत्म करने के लिए नरसंहार का आह्वान किया था. इस पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जमकर आक्रोश देखने को मिला, इसके बाद ही ये गिरफ्तारियां हुई हैं.

ऐसा नहीं है कि इस तरह के भड़काऊ भाषण पहली बार दिए गए.

जैसा कि पत्रकार अलीशान जाफरी और अन्य लोगों ने हमें बताया यह भारत में लंबे समय से चल रहा है. हरियाणा, दिल्ली, रायपुर और अन्य जगहों पर समय-समय पर मुसलमानों को खत्म करने की बातें बार-बार सुनी जाती रही हैं.

हरिद्वार के बाद इस तरह की सभाएं और भड़काऊ घोषणाओं में इजाफा हुआ है. नरसिंहानंद और उनके साथी साधु-संत प्रेस और जनता से बात करते रहे हैं और धर्म संसद में उन्होंने जो बातें कही हैं वहीं बातें उन्हें दोहराते हुए सुना जाता रहा है.

यह सिर्फ 'अभद्र भाषा' नहीं है बल्कि उससे कहीं आगे है...

हमें यह समझना होना कि ये जो भाषण हैं वे हेट स्पीच यानी नफरत फैलाने वाले भाषणों से अलग श्रेणी में हैं. तथाकथित स्वामी अपने अनुयायियों को मुसलमानों और ईसाइयों को समान रूप से मारने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं. यह सिर्फ नफरत फैलाने के बारे में नहीं है. ये भारत के नागरिकों के खिलाफ हिंसा और रक्तपात का आह्वान है. यह सामाजिक समूहों के बीच नफरत फैलाने से कहीं अधिक गंभीर अपराध है. ऐसे में नरसिंहानंद पर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) या राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के तहत मुकदमा क्यों नहीं चलाया जा रहा है? इसके साथ ही पुलिस ने पहली बार में ही उसकी कस्टडी क्यों नहीं मांगी? उनकी ओर से केवल न्यायिक हिरासत का अनुरोध क्यों किया गया?

ये सवाल न केवल मुसलमानों द्वारा बल्कि उन लोगों द्वारा भी उठाए जा रहे हैं जो पुलिस के व्यवहार को देख रहे हैं. जब मुसलमानों को निशाना बनाया जाता है तो पुलिस UAPA और NSA को मनमाने ढंग से कैसे नियोजित करती है, यह दिखाने के लिए हमें विशिष्ट उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है.

हाथरस बलात्कार कांड को कवर करने गए केरल के पत्रकार सिद्दीकी कप्पन को उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा हिरासत में ले लिया गया था. यह एक उदाहरण है कि कैसे मुसलमानों को एक भी शब्द न कहने या लिखने के बावजूद निशाना बनाया जा सकता है. पुलिस का दावा है कि उन्होंने कप्पन को इसलिए गिरफ्तार किया क्योंकि उन्हें आशंका थी कि पत्रकार जो बोलेंगे उससे हिंसा भड़क सकती है. यानी पुलिस उस भड़काऊ बयान की बात कर रही थी जो अभी बोला ही नहीं गया था.

जब मुसलमान इसमें शामिल रहते हैं तब ये स्वाभाविक प्रक्रिया रहती है तो ऐसे में नरसिंहानंद को क्यों बख्शा गया? उनके भाषणों की वीडियो फुटेज जैसे ही सार्वजनिक हुई वैसे ही उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया?

चूंकि उन्होंने मुसलमानों के खिलाफ सामूहिक हिंसा फैलाने के लिए हिंदुओं को भड़काने की कोशिश की ऐसे में पुलिस ने नरसिंहानंद और उसके साथी साधु-संतों की टिप्पणियों को देश के खिलाफ अपराध क्यों नहीं माना? उनकी तत्काल गिरफ्तारी के लिए यह गंभीर अपराध पर्याप्त था. उनकी गिरफ्तारी के लिए इतना लंबा इंतजार क्यों किया गया और फिर बाद में पुलिस ने उन्हें हिरासत में रखने की कोई उत्सुकता क्यों नहीं दिखाई?

स्वाभाविक रूप से ये सवाल हमारे दिमाग में तब आते हैं जब हम नरसिंहानंद और उसके गिरोह के साथ पुलिस को सम्मानजनक व्यवहार करते देखते हैं.

UAPA कानून का उपयोग 'अपवाद'

इन चिंताओं को सुनने के बाद मेरे एक वकील मित्र ने कहा कि "क्या आपको नहीं लगता कि पुलिस को इस मामले सहित सभी मामलों में ठीक इसी तरह आगे बढ़ना चाहिए?" तुरंत गिरफ्तार न करें और फिर जांच करने के लिए पुलिस हिरासत की मांग करें, बल्कि इसका उल्टा करें? जैसा कि उन्होंने इस मामले में किया है.

गहन जांच की जानी चाहिए और यदि आवश्यक हो तो आरोपी को गिरफ्तार किया जाना चाहिए. ऐसा नहीं जैसा कि कार्यकर्ताओं और पत्रकारों सहित सैकड़ों मुसलमानों के साथ हुआ है? किसी भी मामले में आपको किसी भी व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से एक दिन के लिए भी वंचित नहीं करनी चाहिए, जब तक कि आपके पास ऐसा करने के लिए पर्याप्त कारण और ठोस आधार न हो. गिरफ्तारी प्रारंभिक कार्रवाई नहीं होनी चाहिए."

उसने जारी रखते हुए कहा कि "न्यायिक हिरासत भी ऐसे मामलों में सबसे उचित कदम है. उनके वीडियो देखने के बाद पुलिस ने महसूस किया कि सार्वजनिक शांति और व्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि अभियुक्तों को गिरफ्तार किया जाए ताकि वे नफरत और हत्या के प्रचार को जारी न रख सकें. नतीजतन, यह निवारक और उपयुक्त दोनों है. लेकिन फिर, सभी मामलों में यही किया जाना चाहिए."

उनका तर्क यह है कि सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (AFSPA), राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA), और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) जैसे कानून अपवाद हैं.

वे कई मायनों में अपवाद हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण और हानिकारक पहलू उनका गलत इस्तेमाल है. वास्तव में, इन कानूनों को इस्तेमाल करने का कोई दूसरा तरीका नहीं हो सकता. पुलिस द्वारा जिन्हें भी इस कानून के दायरे में लाया जाता है वे इसके शिकार बन जाते हैं.

उदाहरण के लिए, जम्मू और कश्मीर व पूर्वोत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों में रहने वाले लोग हमेशा AFSPA के साये में रहते हैं. इस कानून के परिणाम स्वरूप भारत के इन हिस्सों में मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ है. नागालैंड में भारतीय सुरक्षा बलों की हालिया हत्याओं ने इस मुद्दे को फिर से राजनीतिक मुद्दे बना दिया है.

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UAPA को खत्म करना चाहिए

दोषियों या आरोपियों को भी अधिकार पाने का हक है. लेकिन यदि उन्हें दंडित करने के लिए सरकार अपने पास उपलब्ध ऐसे कठोर साधन (UAPA जैसे कानून) को अपवाद बनाने लग जाए, तो यह न केवल कानून के इस तरह के उपयोग को सही ठहराता है, बल्कि सजा देने की ये भावना बेगुनाहों के खिलाफ भी इस्तेमाल हो सकती है. यति और किसी और केस में इसके इस्तेमाल की मांग या इसपर विचार करने के बजाय UAPA के खिलाफ बात होनी चाहिए. कुछ मामलों में UAPA की मांग करके हम अपने ही नागरिकों के खिलाफ ऐसे कानून के इस्तेमाल की सरकारी मंशा का समर्थन ही करेंगे. AFSPA और UAPA जैसे कानूनों को पूरी तरह से निरस्त किया जाना चाहिए.

दूसरी ओर, मेरी वकील मित्र इस बात से सहमत थी कि जब पुलिस UAPA का उपयोग चुप कराने, मुकदमा चलाने और किसी भी प्रकार की आलोचना या असहमति को कुचलने के लिए करती है, लेकिन नरसंहार के आह्वान जैसे चरम मामलों में भी इसका उपयोग करने पर विचार नहीं करती है, तब हमें पता चलता है कि पुलिस ठीक नहीं कर रही है. पुलिस भयंकर भेदभाव कर रही है.

सरकार को इस बात का जवाब देना होगा कि अगर यह अन्य मामलों में UAPA का इस्तेमाल कर सकती है, तो यति या अन्य लोग जो नरसंहार और महिला विरोधी हिंसा के लिए लोगों को उकसाते हैं उनके खिलाफ UAPA के तहत मुकदमा क्यों नहीं चलाया जाता है? क्या भविष्य में इन पर इसके तहत मुकदमा चलाया जाएगा?

ऐसे लोगों पर इस कानून को लागू करने की सरकार की अनिच्छा दर्शाती है कि सरकार उनके अपराध को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा नहीं मानती है. सरकार की एक ही सोच है और उस सोच में मानवाधिकारों की कोई परवाह नहीं है.

भारत सरकार सोचती है कि नरसिंहानंद जैसे लोगों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाना चाहिए. क्या आपने कभी पुलिस को अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपराधी के सामने गिड़गिड़ाते हुए या गुहार लगाते हुए देखा है. जैसा कि उन्होंने नरसिंहानंद के साथ किया? क्या आपने कभी पुलिस को इस तरह के अपमान को सहते हुए देखा है जैसा कि नरसिंहानंद ने वसीम रिजवी की गिरफ्तारी के दौरान किया था?

पुलिस को अपनी कार्रवाई निष्पक्ष करनी चाहिए

दिलचस्प बात यह है कि जब नरसिंहानंद से पूछा गया कि उनके मामले में UAPA क्यों लागू नहीं किया जाना चाहिए, तब नरसिंहानंद खुद भी यही दलील दे रहे थे कि "क्या मेरे पास हथियार थे, और क्या मेरे शब्दों से कोई हिंसा हुई? क्या मुझे अपनी राय रखने का हक नहीं है?”

लेकिन दूसरी ओर हत्या का आह्वान कोई 'विचार' या नजरिया नहीं है. यह डर व आंतक पैदा कर रहा है. दूर का ही सही ऐसी आशंका है कि ऐसे स्वामियों के अनुयायी ने हथियार इकट्ठा करेंगे और मुसलमानों की सामूहिक हत्या की तैयारी करेंगे. ऐसे में यह कैसे सुनिश्चित हो सकता है कि इस तरह की टिप्पणियों और अपीलों ने हाल फिलहाल में मुसलमानों पर हमलों को प्रेरित नहीं किया?

अगर कोई तत्काल हिंसक प्रतिक्रिया नहीं हुई, तो भी यह एक आतंकवाद है, जैसा कि एनसी अस्थाना ने हाल के अपने एक लेख में इस पर प्रकाश डाला है : "आतंकवादियाें के पैटर्न की बात करें तो वे अपनी मंशा को ऐसे तैयार करते हैं जिससे कि वह टारगेट या लक्ष्य की मनोवैज्ञानिक धाराणाओं में हेर-फेर कर सकें ताकि उसे उस तरह से कार्य करने के लिए मजबूर किया जा सके जिस तरह से वह मूल प्रवृत्ति से कार्य करने के लिए पूर्वनिर्धारित हैं. हरिद्वार धर्म संसद में दिए गए भाषणों को भी इस तरह से डिजाइन किया गया था. उस मामले में एक उद्देश्य था, जैसा कि मैंने पहले के एक लेख में बताया था, कि कुछ मुसलमानों को गैर-जिम्मेदाराना बयान देने के लिए उकसाना, ताकि ये आरोप लगाया जा सके कि देखिए ये हिंदुओं को धमका रहे हैं."

जब पुलिस इस तरह के अपराध से उत्तराखंड सरकार की तरह निपटती है, तो ऐसे में सवाल उठना लाजमी है. भले ही हम इस बात पर जोर दें कि किसी भी परिस्थिति में UAPA का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि हम सिद्धांत रूप में इसपर विश्वास करते हैं, उसी तर्क का उपयोग पुलिस द्वारा नहीं किया जा सकता है, क्योंकि UAPA के इस्तेमाल के खिलाफ नहीं है. जिस तरह से नरसिंहानंद और उनके सह-स्वामियों ने बेशर्मीपूर्वक बयान दिए हैं उससे पुलिस के पास एक मौका कि वे खुद को निष्पक्ष साबित कर सके. न्यायपालिका के बारे में भी यही कहा जा सकता है.

(अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. वे @Apoorvanand से ट्वीट करते हैं. सूरज गोगोई सिंगापुर राष्ट्रीय विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में पीएचडी कैंडिडेट हैं. वे @char_chapori से ट्वीट करते हैं. इस लेख में व्यक्त गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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