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चरणजीत सिंह चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी पंजाब में कांग्रेस की खींचतान थमती नहीं दिख रही. पंजाब कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुनील कुमार जाखड़ ने ट्विट करके पार्टी के पंजाब प्रभारी हरीश रावत (Harish Rawat) की आलोचना की है. जाखड़ ने ट्वीट किया है,
असल में, इस सिलसिले में रावत का बयान थोड़ा अस्पष्ट था. रावत ने कहा था, “इस (आने वाले राज्य विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का चेहरा) पर कांग्रेस अध्यक्ष फैसला लेंगी लेकिन जैसे हालात हैं, चुनाव मुख्यमंत्री की कैबिनेट के साथ और पंजाब प्रदेश कांग्रेस समिति के तहत लड़ा जाएगा. समिति के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू हैं, जोकि बहुत लोकप्रिय हैं.”
इस वाद संवाद से कांग्रेस की कशमकश जरूर सामने आई: क्या उसे नवजोत सिद्धू को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश करना चाहिए, इसके बावजूद कि चरणजीत चन्नी अब मुख्यमंत्री बन गए हैं?
जब जाखड़ ने कहा कि “चन्नी के चयन की मुख्य वजह”, तो इससे उनका यह मतलब था कि अगर चुनाव किसी और के नाम पर लड़ा जाएगा तो दलित मुख्यमंत्री को नियुक्त करना फिजूल है. लेकिन सिद्धू को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश न करना भी जोखिम भरा है, खासकर जब वह अपने विरोधियों से निपटने वाले एक चतुर राजनेता के तौर पर उभर रहे हैं.
सिद्धू का राजनीतिक करियर 17 साल पुराना है. इस दौरान उन्होंने बड़े नेताओं को टक्कर दी है और कइयों को पटखनी भी दी है. जब बादल परिवार का असर चरम पर था, तब उन्होंने उनसे मुकाबला किया था. 2014 की मोदी लहर के दौरान उन्होंने अमृतसर से भारतीय जनता पार्टी के सीनियर नेता अरुण जेटली को हराने में कैप्टन अमरिंदर सिंह की मदद की थी.
लेकिन 2018 से वह कैप्टन अमरिंदर सिंह से ही जूझने लगे थे. अमरिंदर सिंह वही हैं, जिन्होंने 1997 में पंजाब में शिरोमणि अकाली दल की जीत के बाद राज्य में सबसे बड़ा बहुमत हासिल किया था. इस साल की शुरुआत में खुद सिद्धू और कैप्टन के दूसरे आलोचकों ने मिलजुलकर किसी तरह उन्हें सुनील जाखड़ की जगह पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष बनवा दिया.
लेकिन कैप्टन की कुर्सी खींचने भर से सिद्धू का काम खत्म नहीं हुआ. उन्होंने कैप्टन के वफादार से बेवफा हुए सभी नेताओं से दोस्ती गांठी-सुखजिंदर रंधावा, त्रिपत राजिंदर बाजवा, सुखबिंदर सरकारिया और चरणजीत सिंह चन्नी ताकि सुनील जाखड़ के मुख्यमंत्री बनने की राह में रोड़े अटकाए जा सकें. फिर अंबिका सोनी का यह बयान आया कि “किसी सिख को मुख्यमंत्री बनना चाहिए.” तब तो जाखड़ का पत्ता ही साफ हो गया.
फिर ऐसा लगने लगा कि काफी सारे विधायक रंधावा को पसंद कर रहे हैं तो सिद्धू ने नई योजना बनाई. सिद्धू की ही तरह रंधावा भी जाट सिख हैं और मांझा निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं. इस तरह वह उनके लिए सीधा खतरा हो सकते थे.
इसके बाद चन्नी तस्वीर में नजर आए. आला कमान ने भी चन्नी को वरीयता दी, क्योंकि दलित मुख्यमंत्री से एक राष्ट्रीय संदेश भी जाने वाला है. कैप्टन अमरिंदर सिंह के वफादारों ने भी चन्नी को कबूल किया क्योंकि वह सिद्धू या रंधावा के मुकाबले कम नुकसान पहुंचाएंगे.
हालांकि इन हरकतों की वजह से सिद्धू ने कई दुश्मन पाल लिए. कैप्टन के लिए कहा जाता है कि उन्होंने सिद्धू के मुख्यमंत्री बनने पर पार्टी छोड़ने की धमकी दी थी. इसके अलावा सिद्धू से जाखड़ के समीकरण भी बिगड़ गए हैं.
फिर सुखजिंदर रंधावा जैसे नेता भी हैं, जिन्होंने कैप्टन को धराशाई करने में सिद्धू का साथ दिया. रंधावा और उनके साथी विधायक जैसे त्रिपत रजिंदर बाजवा और सुखबिंदर सरकारिया ने सिद्धू को पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष बनाने में मदद की और दूसरे विधायकों का समर्थन जुटाया. लेकिन जिस तरह सिद्धू ने रंधावा के मुख्यमंत्री बनने की उम्मीदों को तबाह किया और चन्नी को आगे बढ़ाया, उसे देखते हुए दोनों के बीच मतभेद बढ़ा है.
इसके अलावा, नए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी खुद. चुनावों तक उन्हें अगले तीन महीने का मुख्यमंत्री बनाया गया है, ऐसे में चन्नी इस बात से खुश तो नहीं होंगे कि सिद्धू का पार्टी का मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाया जाए.
इसमें कोई शक नहीं कि कैप्टन के किनारे लगने के बाद सिद्धू पंजाब कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. वह शायद उन चंद नेताओं में शुमार हैं जिनका जनाधार लगभग पूरे राज्य में है.
फिर भी ऐसे कई समुदाय हैं जो उन पर भरोसा नहीं करते. जैसे हिंदू वोटर्स के बीच सिद्धू के लिए यह धारणा है कि वह ‘पंथिक’ नेता हैं. यह हैरानी की बात है, क्योंकि असल में सिद्धू दूसरे हिंदू नेताओं की तुलना में ज्यादा हिंदू रस्मों-रिवाज करते हैं. लेकिन दो मामलों के चलते उनकी सिख समर्थक इमेज बन गई है. एक, करतारपुर साहिब गलियारे को खोलना और दूसरा, बरगारी बलिदान मामले में कड़ी कार्रवाई की तरफदारी.
दलितों के बीच भी सिद्धू की लोकप्रियता कमोबेश कम है और उन्हें मुख्यतया जाट सिख नेता के तौर देखा जाता है. अगर सिद्धू और चन्नी के बीच ताकत की लड़ाई होती है तो यह धारणा और मजबूत होगी.
यह पहली बार नहीं है, जब कांग्रेस ऐसा प्रयोग कर रही है. 2003 में वह महाराष्ट्र में विलासराव देशमुख, जोकि एक मराठा थे, की जगह सुशील कुमार शिंदे जोकि एक दलित हैं, को मुख्यमंत्री बना चुकी है. शिंदे के नेतृत्व में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन ने 2004 के चुनाव जीते लेकिन नतीजों के बाद देशमुख को ही मुख्यमंत्री बनाया गया.
हालांकि चन्नी मुख्यमंत्री हैं लेकिन टिकट चयन में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सिद्धू का ही हाथ ऊपर होगा. इसलिए अगर पंजाब में कांग्रेस जीतती है तो यह उम्मीद है कि उनके पीछे ज्यादा विधायक खड़े होंगे.
अगर कांग्रेस चन्नी और सिद्धू और उन सामाजिक समूहों के बीच संतुलन कायम करना चाहती है जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं, तो उसे दोहरे नेतृत्व को पेश करना होगा. जैसे असम में 2016 और 2021 के
विधानसभा चुनावों में बीजेपी के लिए सर्वानंद सोनोवाल-हिमंता बिस्वा शर्मा की जोड़ी ने अच्छा काम किया था. इसके लिए कांग्रेस को एक मजबूत नेरेटिव चाहिए. इस नेरेटिव को तैयार करने के लिए सबसे अहम है,
एक और तरीका है जिसके नजरिए कांग्रेस इस नेरेटिव को अपने पक्ष में कर सकती है. किसान कानूनों पर केंद्र सरकार से विरोध. किसान कानून पंजाब में बहुत बदनाम हैं और ग्रामीण मतदाता उसके खिलाफ हैं. सरकार को यह दिखाना होगा कि वह इस मामले में केंद्र सरकार के साथ बहुत कुछ कर रही है. उसका काम सिर्फ बयानबाजी से नही चलने वाला, जैसा कैप्टन प्रदर्शनकारियों से कहा करते थे कि उन्हें अपना आंदोलन राज्य के बाहर ले जाना चाहिए.
मुख्यमंत्री बदलने भर से कांग्रेस को फायदा नहीं होगा. अगर उसने कोई मजबूत नरेटिव नहीं गढ़ा तो हो सकता है कि विधानसभा चुनावों से पहले कांग्रेस में एक और गुटीय संघर्ष छिड़ जाए.
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