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OPS: क्या पुरानी पेंशन प्रणाली को अपनाकर राज्य अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे?

राज्य OPS के बजाय NPS पर ही डटे रह सकते हैं लेकिन इसके लिए केंद्र सरकार इसके लिए आगे बढ़कर मदद करनी होगी.

सुभाष चंद्र गर्ग
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>OPS: क्या पुरानी पेंशन प्रणाली को अपनाकर राज्य अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे?</p></div>
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OPS: क्या पुरानी पेंशन प्रणाली को अपनाकर राज्य अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे?

फोटोः क्विंट हिंदी

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चार राज्यों- छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड और पंजाब ने नई पेंशन योजना (NPS) को छोड़ दिया है और पुरानी पेंशन योजना (OPS) को फिर से शुरू किया है. हिमाचल प्रदेश में भी जल्द ही ऐसा आदेश जारी होने की उम्मीद है. ऐसा लगता है कि गैर बीजेपी शासन वाले राज्य भी जल्द या बाद में यह बदलाव कर सकते हैं.

केंद्र और बीजेपी शासित राज्य फिलहाल टालमटोल कर रहे हैं. हालांकि इन राज्यों में कर्मचारियों की भावनाओं का उमाड़ है. हैरानी नहीं होगी, अगर किसान कर्ज माफी योजनाओं की तरह इनका विरोध कमजोर पड़ने लगे और बीजेपी शासन वाले राज्य उलटफेर करने लगें.

NPS वित्तीय रूप से जिम्मेदार और उचित पेंशन योजना है. तो राज्य उससे पल्ला क्यों छोड़ रहे हैं और OPS को क्यों अपना रहे हैं? इसे रोकने के लिए क्या किए जाने की जरूरत है?

पुरानी पेंशन योजना (OPS) कर्मचारियों की आंख का तारा

OPS सरकारी कर्मचारियों को पेंशन का तोहफा देती है. रिटायरमेंट के बाद जिंदगी भर उन्हें अपनी आखिरी तनख्वाह का 50% मिलता है (अगर कर्मचारी की मौत हो जाती है उसके जीवनसंगी को भी मिलता है). इसके अलावा सरकारें पेंशन पर महंगाई भत्ता (DA) देती हैं.

इस पेंशन और डीए को कमाने के लिए कर्मचारी को अपने सेवा जीवन में कोई अंशदान नहीं देना होता. कर्मचारी अपने कर-छूट सामान्य भविष्य निधि (GPF) खाते में अंशदान देते हैं जो उन्हें पेंशन के अतिरिक्त रिटारमेंट पर या उससे पहले ब्याज के साथ वापस मिल जाता है.

दूसरी तरफ NPS में पेंशन लाभ ज्यादा परिभाषित और संयमित हैं. एक कर्मचारी को सरकार के बराबर अंशदान देना होता है जो व्यक्तिगत पेंशन खाते में पेंशन कॉर्पस बनाता है. उसकी पेंशन इस बात पर निर्भर करती है कि अंशदान और इस कॉर्पस के निवेश पर कितना रिटर्न मिला है. कर्मचारी रिटायरमेंट पर अपनी पेंशन राशि को वार्षिक आधार पर बांट सकता है और उसके हिसाब से पेंशन प्राप्त कर सकता/सकती है.

कैलकुलेशंस से पता चलता है कि इस कॉर्पस से उतनी वार्षिक पेंशन नहीं मिलती, जो पहले की पेंशन योजना के तहत आखिरी तनख्वाह के 50% के बराबर ठहरती हो. भारत सरकार ने कुछ साल पहले इस संबंध में कुछ कोशिश की थी. उसने 10% अंशदान को बढ़ाकर 14% किया था. एक बात और है, नई पेंशन योजना के तहत डीए का भुगतान भी नहीं किया जाता.

जाहिर सी बात है, सभी सरकारी कर्मचारी पुरानी पेंशन योजना के कायल हैं.

सरकारों के लिए एक बड़ा वित्तीय संकट

कर्मचारियों के लिए पेंशन का तोहफा सरकार के लिए एक बड़ी वित्तीय लागत है.

NPS में सरकार एक सरकारी कर्मचारी की पेंशन के लिए हर महीने केवल एक अग्रिम अंशदान देती है, जब वह सेवा में होता है. सरकार पेंशन नहीं देती है. इसके तहत सरकार की वित्तीय बाध्यता काफी सीमित और मौजूदा होती है. कोई एकमुश्त, अनिश्चित और जिंदगी भर पेंशन का भुगतान करने की बाध्यता नहीं होती.

इसमें कोई शक नहीं कि NPS राजकोषीय जवाबदेह है और और OPS राज्यों के लिए वित्तीय रूप से विनाशकारी है.

1990 के दशक से भारत में बड़े पैमाने पर आर्थिक रूप से चुनौतीपूर्ण माहौल था. वर्ष 2003-04 तक जब NPS की शुरुआत हुई, तब तक राज्यों की वित्तीय स्थिति बहुत खराब हो चुकी थी. लगभग सभी राज्य डब्ल्यूएमए यानी वेज़ एंड मीन्स एडवांसेस (अर्थोपाय अग्रिम) और आरबीआई के ओवरड्राफ्ट पर जीवित थे. कर्मचारियों को डीए की किश्त कभी भी समय पर नहीं दी जाती थी. यहां तक कि उनके रिटायरमेंट की देय राशियों में भी अक्सर देरी होती थी.

राज्यों को बार-बार अपने बिलों के भुगतान को रोकना पड़ा था. उनके खजाने कई बार और लंबे समय के लिए बंद रहते थे. एक साल असम का खजाना करीब 240 दिन बंद रहा. सरकारों के पास उस विकट समय में आर्थिक रूप से जवाबदेह होने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.

नई पेंशन योजनाएं और सरकार की राजकोषीय जवाबदेही

बीजेपी की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने काफी अध्ययन और चर्चा के बाद 2004 में देश में NPS प्रणाली की शुरुआत की थी. यह उस चुनौतीपूर्ण दौर में लाए गए राजकोषीय जवाबदेही और बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) पैकेज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था.

कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के नेतृत्व में 2004-2008 के दौरान NPS प्रणाली लगभग सभी राज्यों में लागू हुई. इस योजना को लागू करने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने काफी व्यक्तिगत दिलचस्पी दिखाई थी.

नतीजा यह हुआ कि राज्यों की वित्तीय स्थिति अच्छी हुई.

NPS प्रणाली ने सरकार की पेंशन देनदारियों को निर्धारित किया और लंबी अवधि के लिए इसे काफी कम किया.

इसी अवधि में सभी राज्यों ने एफआरबीएम कानून बनाए जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि राज्य सरकारें बुद्धिमानी से राजकोषीय सीमाओं के भीतर रहेंगी. राज्य दिवालिएपन के कगार से वापस आ गए.

2008-2010 में वैश्विक वित्तीय संकट और 2020-22 में कोविड-19 महामारी के झटकों के बावजूद राज्य लगभग 15 वर्षों तक राजकोषीय घाटे की अपनी सीमा को जीएसडीपी के 3% के भीतर रखने में कामयाब रहे हैं.

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नए OPS मॉडल से सभी वित्तीय लाभ समाप्त होते हैं.

इस संबंध में छत्तीसगढ़ और राजस्थान सरकार ने आदेश जारी किए हैं और उनकी मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं:

आदेश में निर्दिष्ट तिथि से NPS को निरस्त माना जाता है. राज्य में NPS लागू होने की तारीख से OPS को पूर्वव्यापी प्रभाव से बहाल किया जाता है.

कर्मचारी अब कोई पेंशन अंशदान नहीं देंगे. कर्मचारियों का अंशदान उनके व्यक्तिगत जीपीएफ खातों में जाएगा. कर्मचारियों की पेंशन में कोई हिस्सेदारी नहीं.

सरकार या तो कोई पेंशन अंशदान नहीं करेगी या बहुत कम अंशदान करेगी.

NPS प्रणाली में पेंशन पूरी तरह से वित्त पोषित थी, लेकिन OPS प्रणाली में वह वित्त पोषित नहीं होगी.  

यह भी घोषणा की गई है कि राज्य सरकारें NPS अधिकारियों के साथ मिलकर, अपने NPS कर्मचारियों की कुल संचित राशि वापस लेने के लिए काम करेंगी. रिटायरमेंट के समय कॉर्पस में कर्मचारियों के अंशदान को वापस लौटा दिया जाएगा, और उसके साथ उस पर अर्जित ब्याज भी मिलेगा.

अतिरिक्त संसाधनों के कारण राज्य OPS अपनाने को आकर्षित हुए

भारत में सरकारें समय-समय पर अल्प अवधि के राजनैतिक फायदे हासिल करना चाहती हैं. जब उन पर वित्तीय संकट गहराता है तो यह प्रवृत्ति और बढ़ती है. OPS को अपनाने का लालच भी इसी का नतीजा है. सरकारों को लग रहा है कि कुछ समय के लिए उनकी वित्तीय स्थिति में सुधार हो जाएगा.

  • पहला, इन सरकारों को अंशदान के रूप में अपना हिस्सा नहीं देना होगा. मिसाल के तौर पर, अगर राजस्थान सरकार NPS के तहत अपने 3 लाख से अधिक कर्मचारियों के लिए अंशदान के रूप में वेतन और डीए का 14% भुगतान करती है, और हम 25,000 रुपए का औसत मासिक वेतन मानकर चलते हैं तो वेतन पर उसका खर्चा एक साल में लगभग 1250 करोड़ रुपए कम हो जाएगा.

  • दूसरा, राज्यों को अपने कर्मचारियों की संचित NPS राशि मिल सकती है. NPS के तहत राज्य कर्मचारियों की प्रबंधन के तहत संपत्ति (एयूएम) 4.5 लाख करोड़ रुपये से अधिक है. राजस्थान का ही उदाहरण लें. NPS कॉर्पस में उसकी हिस्सेदारी 25,000 करोड़ रुपये से अधिक होनी चाहिए. जब यह उपलब्ध हो जाएगा, तो यह एकमुश्त बड़ा लाभ होगा.

वित्तीय रूप से संकट ग्रस्त राजस्थान सरकार के लिए यह बेशकीमती पैसा है. वह इस धनराशि को विकास कार्यक्रमों और मुफ्त तोहफों पर खर्च कर सकती है. और राज्य भी ऐसा ही कर सकते हैं.

OPS राज्यों की देनदारियों को अस्थिर बना देगा

  • जो पेंशन प्रणाली वित्त पोषित नहीं है, वह सरकारों के लिए एक बड़ा राजकोषीय ऋण/देयता है.

  • OPS के तहत कर्मचारियों का पेंशन दायित्व NPS में उनकी पेंशन में सरकार के अंशदान का लगभग तीन गुना होगा.

  • NPS के अंतर्गत आने वाले कई कर्मचारी 2004 से पहले के नियमित कर्मचारी हैं जो अब 50 वर्ष से ज्यादा उम्र के हैं. कुछ वर्षों के बाद राज्य सरकारों को उन्हें पेंशन भुगतान करना होगा.

  • जब पेंशन देनदारियां सरकार के ऋणों और देनदारियों में शामिल होंगी, तो इनमें भारी वृद्धि होगी. चूंकि ये पेंशन देनदारियां वित्त पोषित नहीं होंगी.

  • OPS को अपनाने वाली सरकारें कुछ ही वर्षों में बढ़ती पेंशन देनदारियों से परेशान हो सकती हैं.

इस झमेले को रोकने के लिए सरकार को पहल करनी होगी

राज्य सरकारें अभी भी एफआरबीएम कानूनों से बंधी हुई हैं. केंद्र सरकार उनकी उधार की सीमा तय करती है क्योंकि सभी राज्य केंद्र सरकार की ऋणी हैं.

बदकिस्मती से केंद्र सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में बहुत ज्यादा केंद्रीकरण किया है, और राज्यों की उधार सीमा को जबरन काबू में किया है (हालांकि उसका अपना राजकोषीय घाटा एफआरबीएम की सीमा से दोगुने से ज्यादा है).

यही वजह है कि खासकर विपक्षी पार्टियों के शासन वाले राज्यों को केंद्र सरकार के नेतृत्व पर भरोसा नहीं रहा. ऐसे में कम से कम तीन राज्यों ने OPS को फिर से लागू करने का जोखिम भरा कदम उठाया है.

NPS एक उचित पेंशन प्रणाली है, जबकि OPS बहुत अधिक उदार है. NPS राज्यों के दायित्वों को सटीक और स्पष्ट शर्तों में परिभाषित करने वाली वित्तीय रूप से निर्धारित प्रणाली है; OPS अनिश्चित है, और राजकोषीय स्थिति को धुंधला बनाती है. पुरानी पेंशन योजना वित्तीय रूप से आत्मघाती कदम है, और राज्यों को इसे लागू करने से रोका जाना चाहिए- कम से कम राष्ट्रीय हित में.

ऐसा हो सकता है, अगर भारत सरकार उसी तरह का नेतृत्व का प्रदर्शन करे, जैसा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने NPS को लागू करने में दिखाया था, या अरुण जेटली ने राज्यों को इस बात के लिए राजी किया था कि उन्हें जीएसटी को अपनाना चाहिए.

भारत सरकार को एक उचित राजकोषीय समेकित पैकेज की पेशकश करनी चाहिए जिसमें उधार की उचित सीमाएं हों और NPS उसका एक जरूरी घटक हो. इसके लिए बहुत मेहनत और अनुनय-विनय करने की जरूरत होगी.

कुछ राज्य अभी भी OPS से पीछे हटने के लिए सहमत न हों. शायद, उनके लिए OPS का एक NPS-ओरिएंटेड मॉडल विकसित करना पड़े. इस मॉडल में राज्य पेंशन के रूप में अंतिम वेतन के 50% की गारंटी दे सकते हैं, लेकिन कॉर्पस के मौजूदा NPS खाते में कर्मचारियों और सरकार के फिलहाल के अंशदान को बरकरार रखा जाए और इस कॉर्पस का मैनेजमेंट भी पहले की तरह किया जाए. जो पैसा कम होगा, उसका टॉप-अप राज्यों को करना होगा.

हां, उचित और राजकोषीय रूप से जिम्मेदार हल निकलेंगे, अगर केंद्र सरकार और राज्य मिल-बैठकर बातचीत करें.

(लेखक SUBHANJALI के मुख्य नीति सलाहकार, द $10 ट्रिलियन ड्रीम के लेखक और भारत सरकार के वित्तीय और आर्थिक मामलों के पूर्व सचिव हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही है उसके लिए जिम्मेदार है.)

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