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भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने इस साल अपना ज्यादातर समय इस तिकड़म में बिताया कि कैसे विपक्ष को विभाजित रखा जाए. बीच-बीच में वह सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इनवेस्टिगेशन (CBI) और प्रवर्तन निदेशालय (ED) की छापेमारी के जरिए आतंक का सहारा लेती रही.
इसीलिए सत्ताधारी पार्टी इस बात से तड़प उठी कि कैसे तेलंगाना के मुख्यमंत्री और तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) के अध्यक्ष के चंद्रशेखर राव (KCR) और बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल-यूनाइटेड (JDU) के प्रमुख नीतीश कुमार (Nitish Kumar) मिले. और कैसे उन्होंने 2024 में बीजेपी मुक्त भारत का अभियान चलाने के लिए एकजुट विपक्षी मोर्चा बनाया.
सच तो यह है कि बिहार में नीतीश के एनडीए छोड़ने के बाद बीजेपी बौखला गई और उसका बदला उसने मणिपुर में जेडीयू में फूट डालकर ली. एक महीने में मणिपुर में जेडीयू टूट गई. नीतीश अचंभित रह गए और सीधा दिल्ली पहुंचे जहां उन्होंने राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं से मुलाकात की और विपक्षी एकता के बारे में चर्चा की.
2019 के आम चुनावों से पहले बेंगलुरू में विपक्ष ने एक मंच पर आकर अपनी ताकत दर्शाई थी लेकिन फिर भी वह मोदी विरोधी भावना भड़काए रखने में नाकाम रहा. यह देखते हुए इस बात की आशंका जताई जा सकती है कि इस बार भी ये उपाय बेकार जाएंगे.
लेकिन तब और अब के राजनीतिक माहौल में काफी अंतर है. विपक्ष ने मोदी को हराने, या कम से कम उनकी गिनती को कम करने के लिए कभी इतनी शिद्दत से कोशिश नहीं की कि उसे 2024 में एक महागठबंधन बनाना पड़े. हां, इस बार उसे इसकी एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है क्योंकि उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ा हुआ है.
2019 में अपनी दूसरी पारी के बाद से बीजेपी की गंभीर ध्रुवीकरण की रणनीति के चलते पूरे विपक्ष का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है.
हां, जब बीजेपी ने अपनी बंदूक दूसरों की तरफ तानी तो उनका मूड बदल गया. सबसे निर्णायक क्षण वह था जब महाराष्ट्र में शिवसेना प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार का तख्तापलट हुआ.
BJP ने साम दाम दंड भेद का सहारा लिया. उसने एक तरफ असंतुष्ट एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री पद का लालच दिया, तो दूसरी तरफ जांच एजेंसियों के छापेमारी की धमकी दी. नतीजा यह हुआ कि पार्टी टूट गई.
महाराष्ट्र सरकार के गिरने के बाद क्षेत्रीय दल सदमे में आ गए. कांग्रेस को रौंदने के बाद बीजेपी मानो उन्हें तबाह करने के अभियान पर निकल चुकी है. कांग्रेस तो अपनी छाया में ही दम तोड़ती दिख रही है.
नीतिश कुमार ने महाराष्ट्र के हालात को देखकर आखिरकार बीजेपी से अलग होने का फैसला किया. हालांकि वह करीब दो साल से 'अपमान' का घूंट पिए बैठे थे. इसके बाद उन्होंने 2024 में मोदी को चुनौती देने के लिए विपक्ष को एकजुट करने का फैसला किया.
लेकिन 2024 की राह पर कई असमंजस हैं. सबसे बड़ा सवाल जाहिर है. एकजुट विपक्षी मोर्चे का नेता कौन होगा. पटना में प्रेस कांफ्रेंस में नीतीश कुमार और केसीआर के बीच मजेदार जुगलबंदी ने इस बात की तरफ इशारा कर दिया कि यह मुद्दा अब भी अनसुलझा है और दोनों उस पद के दावेदार हैं.
दूसरी रुकावट यह है कि केसीआर की टीआरएस और केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप), कांग्रेस के साथ एक ही मोर्चे में शायद ही शामिल हो. एक तो इन पार्टियों की विचारधारा एक जैसी नहीं है. दूसरा, उनके लिए ऐसा कॉमन मिनिमम प्रोग्राम (सीएमपी) बनाना भी मुश्किल है जोकि मतदाताओं को यह समझा सके कि ये पार्टियां मिलजुलकर काम करने वाली सरकार बना सकती हैं. यानी उस सीएमपी में ऐसा क्या हो जो कल्याणकारी योजनाओं के परे भी मतदाताओं को भरोसा दिला सके. ये भी बड़ी चुनौतियां हैं.
यह बहुत बाद में सामने आया कि जनता पार्टी की नींव उस समय रखी गई थी जब ये नेता एक साथ जेल में थे. इसके लिए बस एक घोषणा की जरूरत थी कि चुनाव होंगे. और जनता पार्टी का गठन समाजवादी और दक्षिणपंथी जनसंघ जैसे ध्रुव विरोधियों ने किया था ताकि सब साथ मिलकर इंदिरा गांधी से लड़ सकें. बाद में जगजीवन राम और हेमवती नंदन बहुगुणा ने विपक्ष में जोश भरने के लिए कांग्रेस को अलविदा कहा था. कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह जनता पार्टी जीत गई थी.
हालांकि मोदी सरकार ने विपक्षी नेताओं को सलाखों के पीछे फेंकने जैसे हथकंडे नहीं अपनाए हैं लेकिन निश्चित रूप से उन्हें एक साथ लड़ने की वजह जरूर दी है.
आज ज्यादातर क्षेत्रीय दलों के नेता ईडी या सीबीआई या आईटी अधिकारियों की जांच के दायरे में हैं. कुछ तो जेल में भी हैं, जैसे केजरीवाल की दिल्ली सरकार के मंत्री सत्येंद्र जैन.
महाराष्ट्र सरकार के गिरने के बाद विपक्षी नेता हैरान हैं कि अगला निशाना कौन होगा. झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन अपने विधायकों को एक रिसॉर्ट में ले गए और यह साबित करने के लिए विश्वास प्रस्ताव पेश किया कि अभी भी कमान उनके हाथ में है. दिल्ली में बीजेपी के 'ऑपरेशन कमल' के फेल होने को लेकर केजरीवाल जमकर हंगामा कर रहे हैं. उन्होंने भी अपने बहुमत पर मुहर लगाने के लिए विश्वास प्रस्ताव जीता.
मोदी जैसे नेता को हराना आसान नहीं है. उन्हें चुनौती देने के लिए मजबूत विपक्षी मोर्चा बनाने के लिए फिलहाल बड़ी मेहनत लगेगी. हालांकि जिस तरह से विपक्षी नेताओं को परेशान किया जा रहा है, उससे पता चलता है कि बीजेपी निश्चित तौर से विपक्ष के कदमों से घबराई हुई है.
(आरती जेरथ दिल्ली में रहने वाली एक सीनियर जर्नलिस्ट है. उनका ट्विटर हैंडिल @AratiJ है. यह एक ओपनियिन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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