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'पाकिस्तान का खुदा हाफिज': नई सरकार के सिर पर होगा अमेरिका और वहां की फौज का हाथ

पाकिस्तानी सेना के लिए सिर्फ इमरान की पार्टी, PTI ही नापसंद है और छत्रछाया से बाहर है. PTI के अलावा बाकी सभी पार्टी छत्रछाया में है.

रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल भूपिंदर सिंह
नजरिया
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'पाकिस्तान का खुदा हाफिज': नई सरकार के पीछे हैं अमेरिका और फौज

फोटो- चेतन भाकुनी/द क्विंट

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Pakistan Election: जमील देहलवी की 1992 में आई फिल्म 'इमैक्युलेट कॉन्सेप्शन' में शहजादा नाम का एक किन्नर है जो कहता है कि पाकिस्तान का अस्तित्व तीन चीजों पर कायम है– अल्लाह, अमेरिका और सेना. इतिहास ने भी साबित किया है कि इन तीन चीजों ने ही अब तक क्रम परिवर्तन और संयोजन की अलग-अलग मात्रा के साथ देश की किस्मत का फैसला किया है, खासकर इस बिंदु पर कि कौन सरकार चलाएगा, सामने से या पर्दे के पीछे से.

मौजूदा समय में, पाकिस्तान में असली नियंता जनरल सैयद आसिम  मुनीर (Asim Munir) हैं जो तीनों चीजों में दखल रखते हैं– पेशेवर सैनिक (सर्वोच्च पद तक पहुंचे स्वोर्ड ऑफ ऑनर पाने वाले इकलौते शख्स) हैं, अपने नाम के आगे ‘सैयद’ (पैगंबर के खानदान के वंशजों को दी जाने वाली सम्मानजनक उपाधि) लगाते हैं, और हाफिज (ऐसा शख्स जिसने कुरान को जुबानी याद किया है) की दुर्लभ पदवी उनके पास है.

कम बोलने वाले मजहब परस्त जनरल व्यावहारिक भी लगते हैं क्योंकि उन्होंने जीवन-निर्वाह मदद (सीधी मदद, व्यापार और यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक जैसे बहुपक्षीय संस्थानों में समर्थन के जरिये) में अमेरिका की दोस्ती के फायदे को समझते हुए, संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ संबंधों को फिर से मजबूत बनाने के लिए काम किया है.

चाहें या न चाहें, सिर्फ अमेरिकी सेना के साजो-सामान (हथियार और इंटेलिजेंस) ही पाकिस्तानी सेना को तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) जैसे अफगानिस्तान से संचालित गुटों के खिलाफ आतंकवाद के खूनी संघर्ष की साझा चिंताओं का सामना करने में मदद कर सकता है.

ऐसे में मनमाफिक नतीजा पक्का करने के लिए अल्लाह, अमेरिका और सेना की सर्वकालीन त्रिमूर्ति को एकाकार किया गया है.

‘सलेक्शन’ बनाम ‘इलेक्शन'

पाकिस्तान आखिरकार कथित तौर पर जनता की भागीदारी वाला लोकतंत्र है, लेकिन ‘सरकार के ऊपर सरकार’ या पाकिस्तानी सेना हमेशा अपनी पसंद की एक व्यवस्था का ‘सलेक्शन' करने का इंतजाम कर लेती है.  हकीकत में, अंतिम नतीजा कभी भी लोगों के अपने मन की पसंद का नहीं हो सकता है.

हेराफेरी से लेकर, सरासर जबरदस्ती, या खुली मनाही, कोई भी हथकंडा अपनाया जा सकता है. 2018 के आम चुनाव में इमरान खान पाकिस्तानी सेना के पसंदीदा थे (नवाज शरीफ ने तब खलाई मख्लूक या एलियंस, यानी सेना, के अदृश्य हाथ की ओर इशारा किया था!), लेकिन घमंडी पठान (इमरान खान) ने बदगुमानी में खुद को अजेय समझना ​​शुरू कर दिया और फिर जल्द ही उन्हें औकात दिखाकर एक अवांक्षित शख्सियत बना दिया गया.

फिलहाल, वह जेल में बंद हैं और उनके कई साथियों को बड़े पैमाने पर पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा, और उन्हें अपने उम्मीदवारों को ‘निर्दलीय’ के रूप में मैदान में उतारना पड़ा क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने उनसे उनकी पार्टी का सिंबल छीन लिया है.

कोई भी पार्टी ‘सत्ता प्रतिष्ठान' की पसंदीदा नहीं है, अंतिम फैसला बाद में लिया जाएगा

पाकिस्तानी सेना के लिए सिर्फ इमरान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (PTI) ही नापसंद है और छत्रछाया से बाहर है. PTI के अलावा बाकी सभी पार्टी छत्रछाया में है. नवाज शरीफ (पाकिस्तान मुस्लिम लीग–नवाज या PML-N) का नाम मौजूदा समय में पसंदीदा पार्टी के तौर पर चर्चाओं में है, लेकिन ‘सत्ता प्रतिष्ठान’ की याददाश्त में जरूर कहीं गहरे दफन होगा कि चालाक मियां साहब को उन सभी छह सेना प्रमुखों से दिक्कत थी, जिन्हें उन्होंने खुद नियुक्त (ज्यादातर वफादारी हासिल करने की नाकाम कोशिश में सीनियारिटी को दरकिनार कर) किया था.

छह में से तीन ने उन्हें कुर्सी से उतार फेंका था (वहीद काकड़, परवेज मुशर्रफ और कमर बाजवा), उनमें से एक को उन्होंने समय से पहले रिटायर होने पर मजबूर किया (जहांगीर करामत), और उनमें से दो जो उनके अपने आदमी थे, उन्होंने नवाज़ शरीफ की रातों की नींद हराम कर रखी थी. परवेज कयानी ने खुद अपना सेवा-विस्तार कर अपना कार्यकाल तीन साल के लिए बढ़ा दिया था, जबकि राहील शरीफ ने भी ऐसा ही करने की धमकी देने के बाद, सऊदी अरब में 41 देशों के इस्लामिक सैन्य काउंटर टेररिज्म गठबंधन के कमांडर-इन-चीफ के रूप में ज्यादा आकर्षक नौकरी ज्वाइन कर ली.

लेकिन आसिम मुनीर और नवाज शरीफ दोनों ही इतने समझदार हैं कि साझा हित की खातिर नाखुशगवार अतीत को भुला सकते हैं.

सिंध की पाकिस्तान पीपल्स पार्टी (PPP) का ‘सत्ता प्रतिष्ठान’ के साथ उलझा हुआ इतिहास है. याद रखें, जनरल जिया-उल-हक ने जुल्फिकार भुट्टो को फांसी पर चढ़ाया था, और जनरल परवेज मुशर्रफ की बेनजीर भुट्टो के साथ निजी रंजिश थी. लेकिन इतिहास को छोड़ भी दें तो, शायद पंजाब, खैबर-पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान में नाकाफी जनाधार PPP के मामले को कमजोर करती है.

नाकाफी जनाधार PPP के मामले को कमजोर करती है. ऐसे में, संभावित PML-N सरकार से लेकर हाल ही में भंग हुए पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट के (अनिच्छुक) गठबंधन तक, या विकल्पहीनता की चरम स्थिति में, यहां तक कि एक ‘राष्ट्रीय/कार्यवाहक’ सरकार भी बन सकती है, जैसी कि शौकत अजीज (2004-2007 तक प्रधानमंत्री) की अगुवाई में काबिल टेक्नोक्रेट्स का फॉर्मूला लागू किया गया था. कुछ भी मुमकिन है.

आखिरकार अंतिम नतीजा हितों की अधिकतम सिद्धि से तय होगा; तब तक, कोई पसंदीदा नहीं.

औपचारिक सैन्य सरकार की संभावना बहुत कम

लगभग 33 सालों तक औपचारिक रूप से सैन्य शासन (1958-1971, 1977-1988, 1999-2008) के अधीन रहने के बाद, आखिरकार खुर्राट जनरलों ने ज्यादा समझदारी के साथ राजधानी इस्लामाबाद से 20 किलोमीटर दूर से कंट्रोल रखने का एक बेहतर विकल्प चुना- जो रावलपिंडी की जनरल हेड क्वार्टर (GHQ) की गैरीसन टाउनशिप थी.

लोकतंत्र का मुखौटा कायम है, जबकि ‘सत्ता प्रतिष्ठान’ अभी भी अपने लिए शर्तें और बजट खुद तय कर सकता है. आज के दौर में जब यह ‘पश्चिम’ के ‘स्वतंत्र देशों’ की हिमायत हासिल करना चाहता है, तो इस लोकतांत्रिक मुखौटे की जरूरत और बढ़ जाती है.

अंतिम बात, अगर ‘सत्ता प्रतिष्ठान’ सचमुच ऐसा (कलंकित राजनेताओं और इमरजेंसी जैसे सामाजिक-आर्थिक हालात के चलते) चाहता तो कुर्सी कब्जाने का इससे ज्यादा सही मौका नहीं हो सकता था– मगर हकीकत यह है कि उसने अभी भी ऐसा नहीं किया, और चुनाव होने दे रहा है. यह इशारा देता है कि वह ऐसा नहीं करेगा, और आगे भी नहीं करेगा.

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आखिरकार ‘नाकाम देश’ नाकाम नहीं होगा

कयामत की भविष्यवाणी करने वाले कई भविष्य वक्ताओं ने एक ‘नाकाम देश’ के पतन की दिशा में लुढ़कते जाने की आशंका जताई है, और ईमानदारी से कहें तो ऐसा होने की तार्किक वजहें भी हैं.

मगर इसे नाकाम नहीं होने दिया जा सकता- वो भी तब जब इसके पास अंदाजन 90 परमाणु हथियार हों.

दुनिया के देशों के लिए नतीजे और दांव बहुत ऊंचे हैं (भारत सहित, जिसे बिना जरूरत छाती ठोकने के बावजूद, अपनी नियंत्रण रेखा के उस पार कभी भी ‘नाकाम देश’ की ख्वाहिश नहीं करनी चाहिए), और बहुत कम दिखने वाला (लेकिन कल्पनाओं में हमेशा मौजूद) संयुक्त राष्ट्र, इसे नाकाम नहीं होने देंगे. यह नाकाम होने का जोखिम नहीं उठा सकता.

यथार्थवादी होकर अमेरिका एक ‘सलेक्टेड’ सरकार के बने रहने की बेतुकी पसंद को भी मान्यता देगा, चाहे उसका आकार, रूप या नाम जो भी हो.

खेल में मौलवी भी भूमिका निभाएंगे

अतीत की भूलों का खामियाजा तो उठाना ही पड़ेगा. लेकिन कैसे?

2023 में 789 आतंकवादी हमलों और हिंसा से जुड़ी 1,524 मौतों के साथ आतंकवाद में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है. ‘सत्ता प्रतिष्ठान’ को सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ा है और वे व्यवहार में वे ऐसी सरकार को इजाजत नहीं देंगे जो सक्रिय रूप से आतंकवाद या धार्मिकता की हिमायत करती है.

हालांकि, चूंकि देश का पूरा ढांचा और तर्क ‘पाक जमीन’ पर आधारित है और यह ‘ईमान, तकवा, जिहाद फी-सबीलिल्लाह' (अल्लाह के सिवा किसी की बंदगी नहीं, अल्लाह का खौफ, अल्लाह के लिए जिहाद) के आदर्श वाक्य के साथ चलना इसकी ‘सत्ता’ को वैधता देता है. इसलिए पाकीजगी का दिखावा जारी रखना होगा, भले ही यह सिर्फ लफ्जों में है, सोच या अमल में नहीं.

अगली सरकार को मजहब-परस्त (या सांप्रदायिकता) से जुड़ी असहिष्णुता से निपटना होगा और इसलिए, वह ऐसी नहीं हो सकती, जो इसे बढ़ावा दे.

पाकिस्तान लगातार अपने दोहरे चरित्र के साथ चलता रहेगा, लेकिन समय की मांग और इतिहास बताता है कि आने वाली ‘सलेक्टेड’  सरकार निश्चित रूप से ज्यादा उदारवादी और सुधारवादी होगी, इसलिए नहीं कि वह ऐसा चाहती है, बल्कि इसलिए क्योंकि उसके पास कोई विकल्प नहीं है, उसे ऐसा करना ही होगा.

जैसा कि पाकिस्तान में जन्मे लेखक तारिक अली ने कहा था, “जब तक पेंटागन अपने युद्ध लड़ने के लिए पाकिस्तानी सेना को धन मुहैया कराता है, और नाटो सेना अफगानिस्तान में रहेगी, तब तक झगड़े होंगे, बेवफाई के आरोप होंगे, घरेलू खर्चों में कटौती होगी, शायद अलगाव भी हो– लेकिन तलाक? कभी नहीं.” 

यह देखते हुए कि NATO सैनिक अफगानिस्तान से जा चुके हैं, यह तर्क कमजोर नहीं होता है, बल्कि और मजबूत हो जाता है.

फिलहाल तो पाकिस्तानी ‘सत्ता प्रतिष्ठान’ ने यह तय नहीं किया होगा कि किसे बुलाना है, या सरकार का आकार या संरचना क्या होनी चाहिए– लेकिन यह बिल्कुल साफ है कि वह किस तरह के लोगों को बुलाएगा या नहीं बुलाएगा.

(लेखक अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पुडुचेरी के उपराज्यपाल रह चुके हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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