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Pakistan Elections 2024: "अगर हम सब एक गड्ढे में मौजूद हैं तो समझदारी इसी बात में है कि ईश्वर से मदद मांगी जाए और कम से कम गड्ढे की खुदाई को बंद कर दिया जाए"
पाकिस्तान में 12वां आम चुनाव हो चुका है. ऐसे में पाकिस्तान के राष्ट्रपति डॉक्टर आरिफ अल्वी के कहे गए उपरोक्त लिखित शब्द पाकिस्तान में किसी भी तरह की लोकतांत्रिक व्यवस्था की नाजुक स्थित को बहुत अच्छे से बयान करते हैं.
1947 में भारत के बंटवारे के साथ पाकिस्तान का सफर शुरू हुआ था लेकिन इस देश के बीज 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना के साथ ही रोप दिए गए थे.
साल 1906 भारत में स्वदेशी आंदोलन का समय था. इस दौरान भारतीय ब्रिटिश सरकार का विरोध करने के लिए सड़क पर उतर गए थे क्योंकि ब्रिटिश सरकार बंगाल का विभाजन करना चाहती थी. लेकिन स्वदेशी आंदोलन का अंत होते-होते बंगाल में हिंदू और मुस्लिम पक्ष के बीच मतभेद भी शुरू हो गए.
ये वो समय था, जब भारत के इतिहास में पहली बार हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच सांप्रदायिक झड़पों की खबरें प्रकाश में आने लगी थी.
मुसलमानों को बहुसंख्यक हिंदुओं के बीच कमजोर पाकर मोहम्मद अली जिन्ना ने 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना की और मुस्लिम लीग के परचम तले बात आगे बढ़ते-बढ़ते यहां तक पहुंची कि ‘पाकिस्तान’ नाम से एक अलग राष्ट्र की मांग कर दी गई.
आगे जब 1956 में पहली बार औपचारिक रूप से पाकिस्तान का संविधान लागू हुआ तो वहां पर स्पष्ट रूप से इस बात की घोषणा की गई कि पाकिस्तान दुनिया के मानचित्र पर एक 'इस्लामिक गणतंत्र' होगा.
मार्च 1959 में पाकिस्तान में पहली बार चुनाव होने वाले थे लेकिन इसे पाकिस्तान का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि लोकतांत्रिक चुनाव के ठीक पहले 1958 में आर्मी जनरल अयूब खान ने पाकिस्तानी हुकूमत का तख्तापलट कर दिया और पाकिस्तान में सैन्य कानून लागू कर दिया गया.
अयूब खान के शासन के समय पाकिस्तान के हालात खासा अच्छे नहीं रहे. जनरल अयूब के समय पाकिस्तान में प्रेस की स्वतंत्रता पर लगातार खतरा मंडराता रहा और विपक्ष की आवाज को लगातार दबाने की कोशिश की गई.
1962 में दुनिया भर की आलोचना झेलने के बाद जनरल अयूब सैन्य शासन हटाने को तैयार हो गए और एक बार फिर से पाकिस्तान में औपचारिक रूप से संविधान को लागू करने की कोशिश की गई. लेकिन 1965 तक आते-आते पाकिस्तान पर एक बार फिर से तमाम नई समस्याओं की मानो बौछार ही हो गई.
इस बार कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान का भारत से युद्ध छिड़ गया. इस युद्ध में पाकिस्तान की हार के चलते अयूब खान को चारों तरफ से आलोचना का सामना करना पड़ा. अयूब खान के अपने ही विदेश मंत्री, जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में तमाम छात्र सड़कों पर उतर आए और अंत में तंग आकर जनरल अयूब ने सत्ता की कमान जनरल याह्या खान को सौंप दी.
याह्या खान का दौर भी पाकिस्तान के लिए कोई खुशियों की सौगात लेकर नहीं आया. याह्या खान की हुकूमत में 1970 आते-आते पाकिस्तान में पहली बार लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव हो पाए. मगर चुनावों का दौर भी पाकिस्तान के लिए आफत बनकर आया.
1970 के चुनाव में जहां पश्चिमी पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो को भारी मतों से जीत मिली, वहीं पूर्वी पाकिस्तान (जिसे आज बंग्लादेश कहा जाता है) में मुजीबुर्रहमान भारी मतों से विजयी रहे. हालांकि, भुट्टो और मुजीबुर्रहमान में बनी नहीं और जब याहया खान ने आर्मी की मदद से मुजीबुर्रहमान की आवाज को कुचलना चाहा तो भीषण युद्ध छिड़ गया.
भारत ने मुजीबुर्रहमान की मदद कर दी और युद्ध का अंत होते-होते पूर्वी पाकिस्तान एक अलग देश के रूप में ‘बांग्लादेश’ के नाम से स्थापित हो गया और युद्ध में पश्चिमी पाकिस्तान की शर्मनाक हार के चलते याह्या खान को इस्तीफा देना पड़ा.
बाद में जुल्फिकार की बेटी बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ के बीच सियासी उठापटक के चलते परवेज मुशर्रफ सरीखे सैन्य शासक को सिर उठाने का मौका मिला.
2007 में बेनजीर भुट्टो की भी सियासी कारणों के चलते हत्या कर दी गई. 2008 में मुंबई हमले में शामिल होने के कारण पाकिस्तान की दुनिया में खूब आलोचना की गई. पाकिस्तान की सरजमीं से 9/11 के मुख्य आरोपी ओसामा बिन लादेन की बरामदगी के चलते ये आलोचना और भी ज्यादा बढ़ गई थी.
पिछले कुछ समय में पाकिस्तान ने आतंकवाद की गहरी मार के साथ-साथ बाढ़ सरीखी भीषण प्राकृतिक आपदाओं को भी झेला है. वर्तमान में एक बार फिर से इन तमाम तरीकों के ऐतिहासिक बोझ को कंधे पर ढोते हुए पाकिस्तान बारहवें चुनाव से गुजरा. उम्मीद है कि भविष्य में पाकिस्तान की स्थिरता दक्षिण एशिया में शांति और सद्भाव लेकर आएगी.
(लेखक JNU के छात्र रहे हैं और स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सक्रिय हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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