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1940 में लाहौर प्रस्ताव पारित हुआ था, जिसमें एक अलग मुस्लिम देश की मांग की गई थी. इस प्रस्ताव के पारित होने के कुछ हफ्ते बाद सऊदी क्राउन प्रिंस सऊद बिन अब्दुल अजीज ने अपने पांच भाइयों (जिनमें से तीन बाद में राजा बन गए) के साथ कराची का दौरा किया था. उनकी मेजबानी मुहम्मद अली जिन्ना ने की थी, और पाकिस्तान (Pakistan) के आजाद होने के पहले से ही, सऊदी ने जिन्ना की लगातार अपीलों को वित्त पोषित किया था, जैसे कि बंगाल के अकाल के दौरान की गई अपील.
यहां तक कि सऊदी ने 1946 में जिन्ना की टीम और संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधियों के बीच एक मीटिंग की व्यवस्था करने में मदद की थी और अपेक्षित रूप से स्वतंत्र पाकिस्तान को मान्यता देने वाला पहला देश बन गया, जो धर्म के नाम पर स्थापित होने वाला दुनिया का एकमात्र राष्ट्र था.
खादिम उल-हरमैन-शरीफैन या दो पवित्र मस्जिदों के संरक्षक के रूप में, सऊदी ने कथित या दिखावटी 'पाक जमीन' यानी पाकिस्तान को संरक्षण देने का दायित्व महसूस किया. जल्द ही सऊदी को "निकटतम मुस्लिम सहयोगी" के रूप में देखा जाने लगा और यह साझेदारी लेन-देन संबंधी (ट्रांजेक्शनली) बन गई.
2 बिलियन अमेरिकी डॉलर की सऊदी सहायता के लिए अपने सेना प्रमुख का आभार व्यक्त करने वाले पाकिस्तानी वित्त मंत्री का हालिया बयान का एक इतिहास और संदर्भ है जो सह-धार्मिकता और अन्य बारीकियों की आधिकारिकता से परे है. यह लेन-देन संबंधी वास्तविकता भविष्य के लिए संकेत है कि इस्लामाबाद राजनयिक, नैतिक या व्यापार-संबंधी जैसे दूसरे तरह के सपोर्ट के लिए रियाद पर भरोसा नहीं कर सकता है, क्योंकि दिल्ली ने उन मापदंडों पर खुद को कहीं अधिक महत्वपूर्ण और विश्वसनीय बना लिया है.
तेल-समृद्ध सऊदी उन सभी छोटी-मोटी और कठिन नौकरियों को आउटसोर्स कर सकता है/करता है, जिन्हें इसके अधिकार प्राप्त नागरिक अपने लिए अनुपयुक्त समझते हैं. इसलिए पाकिस्तान से एक विशाल प्रवासी कार्यबल (लगभग 2.5 मिलियन) को काम पर रखा गया है. धार्मिकता के तत्व के अलावा, वित्तीय सहायता के लगातार अनुदान और पाकिस्तानी प्रवासी कार्यबल द्वारा विदेशी मुद्रा प्रत्यावर्तन की बड़ी मात्रा ने सऊदी अरब को सभी उद्देश्यों के लिए शांगरी-ला (पृथ्वी में मौजूद काल्पनिक स्वर्ग) बना दिया है.
इस पृष्ठभूमि के साथ, जब पूरी दुनिया का ध्यान IMF (अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष) पर था जो संभावित रूप से पाकिस्तान को निश्चित आर्थिक मंदी से उबार रहा था, यह सऊदी अरब ही था जिसने अचानक पाकिस्तानी खजाने में 2 बिलियन अमेरिकी डॉलर डाल दिए.
हालांकि, एहसानमंद पाकिस्तानी वित्त मंत्री इशाक डार का जो संदेश था, वह इस तरह से सामने आया, "मैं प्रधानमंत्री और सेना प्रमुख की ओर से सऊदी अरब को धन्यवाद देता हूं."
एक दिखावटी लोकतंत्र के विदेश मंत्री के लिए अपने सेना प्रमुख का हवाला देकर संप्रभु कृतज्ञता का नेतृत्व करना पूरी तरह से अनुचित था, क्योंकि सेना प्रमुख कार्यात्मक या संवैधानिक रूप से आर्थिक अनिवार्यताओं के लिए अधिकृत नहीं है और यह पद आधिकारिक वरीयता वारंट के अनुच्छेद 7 में आता है जोकि कुछ अन्य लोगों से काफी नीचे है जैसे कि राष्ट्रपति (अनुच्छेद 1), सीनेट के अध्यक्ष (अनुच्छेद 2), आर्थिक नीति पर सलाहकार समिति के अध्यक्ष (अनुच्छेद 5) और संयुक्त चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी के अध्यक्ष (अनुच्छेद 6).
जहां तक सौदेबाजी में पाकिस्तानी पक्ष का सवाल है, इस लेन-देन संबंधी सऊदी-पाकिस्तानी रिश्ते की नींव 'सुरक्षा' है.
'सुरक्षा' का एंगल तब स्पष्ट रूप से सामने आया, जब 60 के दशक की शुरुआत में किंग फैसल के सऊदी अरब को ब्रिटिश सेना से मिल रहा समर्थन कमजोर पड़ गया और रियाद ने सैनियों के प्रशिक्षण और यहां तक कि अपनी रॉयल सऊदी एयर फोर्स (आरएसएएफ) की उड़ान के लिए इस्लामाबाद का रुख किया. आर्थिक रूप से संघर्ष कर रहे पाकिस्तानियों ने तुरंत सहमति जताई और 1969 में यमन के अल-वादिया युद्ध में हिस्सा लिया.
हालांकि, मिस्र एक और ऐसा ही देश था जो सऊदी को प्रशिक्षित और किफायती कार्यबल मुहैया करा सकता था, लेकिन मिस्रवासी अरब साजिशों के अतिरिक्त बोझ के साथ आए थे, गमाल नासिर के राजशाही विरोधी और सोवियत समर्थक झुकाव ने पाकिस्तानियों को पसंदीदा दांव बना दिया.
जब संयुक्त अरब अमीरात और जॉर्डन जैसे अन्य शेखों द्वारा सैन्य ऑपरेशन्स में पाकिस्तानी सैनिकों को एडॉप्ट किया गया, तब उन्हें लगभग आधिकारिक तौर पर 'भाड़े पर भर्ती' किया गया था. पाकिस्तान सैनिकों ने छह दिवसीय युद्ध (जहां पाकिस्तानी ग्रुप कैप्टन सैफुल आजम ने दो इजरायली विमानों को मार गिराया), ऑपरेशन ब्लैक थंडर (इसमें तत्कालीन ब्रिगेडियर जिया-उल-हक शामिल थे जो बाद में राष्ट्रपति बने) और 1979 में मक्का में ग्रैंड मस्जिद पर कब्जा समेत कई घटनाओं में अपनी उपयोगिता साबित की.
विशेष रूप से सऊदी के लिए, जब भी सऊद के घर को आंतरिक या बाह्य रूप से (उदाहरण के लिए, 1979 की ईरानी क्रांति, 80 के दशक के ईरान-इराक युद्ध और यहां तक कि बाद के खाड़ी युद्धों के दौरान) खतरा महसूस हुआ, तब पाकिस्तानियों को कर्तव्यनिष्ठा से बुलाया गया.
इजरायली इंटेलिजेंस ने प्रसिद्ध परमाणु प्रसार विशेषज्ञ डॉ. एक्यू खान (Dr AQ Khan) की बार-बार सऊदी अरब की यात्राओं, साथ ही सऊदी रक्षा मंत्री प्रिंस सुल्तान की दो यात्राओं (मई 1999 और 2002) और क्राउन प्रिंस अब्दुल्ला की कहुटा न्यूक्लियर फैसिलिटी साइट की यात्रा पर प्रकाश डाला है.
IMCTC (इस्लामिक मिलिट्री काउंटर टेररिज्म कोएलिशन) एक आतंकवाद विरोधी गठबंधन है, इसमें 41 देश शामिल हैं, जिनका नेतृत्व सऊदी अरब कर रहा है और इसका मुख्यालय रियाद में है. आईएमसीटीसी का नेतृत्व पूर्व पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल राहील शरीफ कर रहे हैं.
दिलचस्प बात यह है कि सऊदी अरब का सर्वोच्च सम्मान, ऑर्डर ऑफ किंग अब्दुल अजीज, जो सऊदी साम्राज्य के लिए असाधारण सेवाओं के लिए सऊदी या विदेशियों को दिया जाता है, कभी भी किसी सिविलियन पाकिस्तानी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री को नहीं दिया गया है, हालांकि ओबामा, ट्रम्प, शी जिनपिंग आदि के अलावा 2016 में यह सम्मान नरेंद्र मोदी को दिया गया था. पाकिस्तानी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के बजाय यह सम्मान अभूतपूर्व दस पाकिस्तानी जनरलों (या समकक्ष) को दिया गया है, जिसमें फारूक फिरोज खान, ज़ुबैर महमूद हयात, सोहेल अमान, तनवीर महमूद, मुहम्मद जकाउल्लाह, तारिक माजिद, मुहम्मद अफजल, परवेज मुशर्रफ, राहील शरीफ और पिछले पाकिस्तानी सेना प्रमुख कमर बाजवा का नाम शामिल है! स्पष्ट रूप से, सऊदी को पता है कि इस्लामाबाद और रावलपिंडी के जुड़वां शहरों का कौन सा पक्ष सबसे मायने रखता है!
जबकि सिविलियन राजनेताओं को दंडाभाव (सजा से मुक्ति) और सामयिक आवश्यकता के अनुसार हैंडल किया जाता है. जहां एक ओर सऊदी ने जनरल मुशर्रफ द्वारा सैन्य तख्तापलट के बाद अपदस्थ नवाज शरीफ और उनके परिवार को सऊदी में शरण देने की सुविधा दी, वहीं दूसरी ओर इसकी वजह से शिया जुल्फिकार अली भुट्टो के तख्तापलट (जनरल जिया-उल-हक द्वारा किए गए तख्तापलट) के बाद उनको फांसी हुई. सीआईए के साथ-साथ सऊदी ने अफगान मुजाहिदीन को फंडिंग करने और हथियार देने में जिया के पाकिस्तान का जोरदार समर्थन किया और पाकिस्तानी नैरेटिव के शरीयतीकरण में योगदान दिया.
उदारवादी और मूल बरेलवी, देवबंदी या सूफीवादी के विपरीत विदेशी वहाबी तनाव के घातक घुसपैठ का दोष पूरी तरह से सऊदी अरब और पाकिस्तानी 'एस्टेब्लिशमेंट' यानी पाकिस्तानी सेना के साथ उसकी बैक डोर गतिविधियों को दिया जाता है.
यहां तक कि जब पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान उम्माह (मुस्लिम दुनिया) के भीतर ईरान-कतर-मलेशिया के साथ प्रतिद्वंद्वी गठबंधन का प्रयास करके अपने खुद के भले के लिए बहुत अहंकारी और महत्वाकांक्षी हो गए थे, तब सऊदी ने नाराज होकर वित्तीय सहायता रोक दी थी. सऊदी उत्तराधिकारी और प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (एमबीएस) को इमरान खान खुद ड्राइव करके एयरपोर्ट से लेकर गए थे, लेकिन यह केवल दिखावे के लिए था.
जब पाकिस्तानी जनरलों और इमरान खान बीच विवाद हुआ था, उस दौरान सऊदी ने चुप्पी साध ली और महत्वाकांक्षी पठान को गिरने दिया. हमेशा की तरह, सऊदी ने पाकिस्तानी जनरलों का समर्थन किया क्योंकि वे जानते थे कि पाकिस्तानी जनरलों द्वारा प्रदान की गई 'सुरक्षा' की पेशकश ही मायने रखती थी, इससे ज्यादा कुछ मायने नहीं रखता.
आज, 'किसकी सबसे ज्यादा निकटतम सहयोगी होने की संभावना है' इस बात की निरर्थक चर्चा के बावजूद, भारत, बांग्लादेश और श्रीलंका के मिशनों के विपरीत (जो नियमित रूप से अपने प्रवासियों के साथ अनुचित कार्याें और व्यवहार को उजागर करने के लिए आगे आते हैं) सऊदी में पाकिस्तानी प्रवासियों के हितों को भूला दिया गया है. पाकिस्तानी संप्रभुता का सम्मान किया जाता है और उसे उदार सऊदी के हाथों बेच दिया जाता है, जिसमें केवल 'सुरक्षा' ही वैध काउंटऑफर है, बाकी सभी चीजों से समझौता किया जा सकता है.
(लेखक अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पुद्दूचेरी के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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