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एक बार फिर से यह वैसा ही वक्त है. पाकिस्तान (Pakistan) को नया सेना प्रमुख मिलना है. कोई और लोकतांत्रिक देश होता तो यह शायद सामान्य नियुक्ति वाला मामला होता लेकिन पाकिस्तान में नए सेना प्रमुख का चुना जाना टीवी डिबेट बन जाता है.
जैसे-जैसे इमरान खान (Imran Khan) सड़कों पर आगे बढ़ रहे हैं. पाकिस्तान में हर गलत चीज और हर गलती के लिए सेना पर आरोप मढ़ा जा रहा है. आर्मी चीफ के लिए ना बताया जाने वाले विशेषणों का इस्तेमाल किया जा रहा है. यह सब अभूतपूर्व है.
इसके अलावा, यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कौन आर्मी चीफ बनता है. जिस तरीके से यह सब होता है उससे इसका भविष्य तय होगा. भारत के लिए यह सब काफी महत्वपूर्ण हो जाता है. आखिरकार, पड़ोस में उठापटक कोई सामान्य बात तो नहीं है.
सेना प्रमुख के खिलाफ इमरान खान का गुस्सा दरअसल इमरान की सत्ता वापसी में सेना प्रमुख की तरफ से मदद से इनकार किए जाने के कारण है. इसलिए इमरान सेना प्रमुख के खिलाफ हैं, पूरी सेना के नहीं. इसकी जड़ में अमेरिका में पाकिस्तानी दूतावास है. कथित तौर पर वहां के राजदूत को अमेरिकी अधिकारी ने धमकाया कि इमरान से छुटकारा पाओ.
हालांकि उस केबल को कभी भी सार्वजनिक रूप से नहीं दिखाया गया.. लेकिन अक्सर भीड़ में इसे लहराया जाता रहा है. ISI प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल नदीम अंजुम अपने साक्षात्कार में, अब कहते हैं कि इमरान खान ने वास्तव में उस केबल को खारिज कर दिया था, लेकिन वही समस्या की जड़ है.
समस्या की जड़ इमरान नहीं है. सच तो यह है कि राजनीति में सेना का दखल इस कदर जिंदगी की सच्चाई बन गई है कि लोग अब सही या गलत देश की हर बुराई को उसके कंधों पर थोपने के लिए तैयार रहते हैं.
जैसा कि ISI के एक पूर्व प्रमुख कहते हैं. हर कोई इस 'हाइब्रिड' मॉडल से थक गया है, जो दरअसल बिल्कुल ही काम नहीं करता है. यह भी हो सकता है कि लोग अंतहीन भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन से थक चुके हों, जिसमें इमरान खान ने भी बड़ी भूमिका निभाई.
इस सबकी वजह से एक नए/पुराने सेना प्रमुख का चयन बेहद जटिल मामला बन गया है. चीफ खुद सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि वो रिटायर होने वाले हैं. इस बात के सबूत भी हैं कि उनकी विदाई का दौर शुरू हो गया है, लेकिन अफवाहें गर्म हैं कि उन्हें बने रहने के लिए कहा जा सकता है.
2019 में जनरल बाजवा को जब सर्विस एक्सटेंशन मिला था तब भी मामला कोर्ट पहुंचा था. कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था और पूछा था कि इस तरह सर्विस एक्सटेंशन के लिए संसद से पारित कानून या अनुमति दिखाया जाए. हालांकि बाद में कानूनी इजाजत मिल गई और 64 साल तक सर्विस में रहने का प्रावधान दिया गया. बाजवा अभी 61 साल के हैं, जो उन्हें तकनीकी रूप से फिर से चीफ के रुप में रहने की इजाजत देता है.
एक, यह वरिष्ठ अधिकारियों की एक और किश्त को दरकिनार कर देगा जो ऐसे समय में सेवानिवृत्त होंगे जब सेना पहले से ही (कथित तौर पर) खान को हटाने के मुद्दे पर और देश को चलाने के तरीके पर बंटी हुई है.
नियमों के मुताबिक जब लेफ्टिनेंट-जनरल या समकक्ष से ऊपर के रैंक के अधिकारी की नियुक्ति में सरकार के पास वरिष्ठतम जनरल को नियुक्त करने और नियमों का सख्ती से पालन करने का विकल्प है. संविधान के अनुच्छेद 243 (3) के अनुसार, राष्ट्रपति 'परामर्श' के बाद प्रधानमंत्री की सिफारिश पर सेना प्रमुखों की नियुक्ति करता है.
प्रक्रिया यह है कि चार-पांच वरिष्ठ अधिकारियों की सूची और उनकी फाइलें मंत्रालय PMO को भेजता है. अधिकांश देशों में, ऐसी सूची को मंत्रालय सावधानी से देखता है. पाकिस्तान में, यह सिर्फ पोस्ट ऑफिस की तरह है. इसके बाद दिलचस्प हिस्सा आता है. पीएमओ को इस पर विचार-विमर्श करना होता है और मौजूदा चीफ के साथ एक 'अनौपचारिक' मीटिंग होनी चाहिए.
खान ने इस प्रक्रिया को बनाए रखने की कोशिश की जब उन्होंने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि वह आईएसआई प्रमुख के लिए संभावित उम्मीदवारों का 'साक्षात्कार' करना चाहते हैं. संविधान में यहां कोई स्पष्ट नियम नहीं हैं, लेकिन आम तौर पर चीफ की 'सलाह' पर भरोसा करते हुए पीएम का ऐसा करना काफी अभूतपूर्व था. यदि इस नई 'परंपरा' का पालन किया जाता है, तो शरीफ को सेना प्रमुख की 'अनौपचारिक सिफारिश' को स्वीकार करना होगा और बस उसी के साथ जाना होगा, या समान रूप से संवैधानिक रूप से, (और अधिक पारदर्शिता के साथ) वह सिर्फ वरिष्ठतम को चुन सकते थे. यह सबसे सुरक्षित दांव है.
नवाज शरीफ भले ही कितने चतुर हों, .. लेकिन दस में से पांच सेना प्रमुखों को नियुक्त करने के बावजूद, अपने सभी विभिन्न कार्यकालों में, वे मुश्किलों से अछूते नहीं रहे हैं. वर्तमान स्थिति को देखते हुए जहां बाजवा (और उनके समर्थक) 'सलाह' दे सकते हैं कि किसे चुनना है, वह शायद उसी के साथ जाना पसंद करेंगे - खासकर जब से उन्हें अब उनकी वापसी के लिए एक राजनयिक पासपोर्ट जारी किया गया है.
यह पार्टी का गिफ्ट है. बाजवा करीबी विश्वासपात्र माने जाने वाले लेफ्टिनेंट जनरल आमिर की सिफारिश कर सकते हैं. वह आर्टिलरी रेजिमेंट से संबंधित हैं. वर्तमान में गुजरांवाला में XXX कोर की कमान संभाल रहे हैं, जो उन्हें जरूरी क्रेडिट देता है. फिर, सिंध रेजीमेंट से लेफ्टिनेंट जनरल शमशाद मिर्जा हैं, जो हालांकि, ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी के अध्यक्ष बनने के लिए तैयार हैं.
ज्यादातर मामलों में, मेरिट एक प्रमुख फैक्टर होगा- कम से कम सार्वजनिक रूप से. इसके अलावा, इमरान खान का भी मुख्य मुद्दा यही रहा है कि एक सेना प्रमुख को सिर्फ मेरिट के आधार पर चुना जाना चाहिए . समस्या यह है कि, जिन पर विचार किया जाना है , वे सभी न केवल समान वरिष्ठता के हैं, बल्कि काफी हद तक समान योग्यता वाले भी हैं. ऐसी स्थितियों में, 'मेरिट' बहुत सब्जेक्टिव मामला हो जाता है.
बेशक, लेफ्टिनेंट जनरल नौमन महमूद हैं, जो सभी खांचों में फिट बैठते हैं. इसमें ISI में डीजी (एनालिसिस) के रूप में एक कार्यकाल शामिल है, जिसे हमेशा एक शीर्ष पद के रूप में देखा जाता है. एक संवेदनशील समय में पेशावर कोर की कमान संभाली, और अमेरिका और ब्रिटेन की विदेशी खुफिया एजेंसियों के साथ संपर्क बनाने के लिए भी उनका नाम है.
फिर, लेफ्टिनेंट जनरल अजहर अब्बास हैं जो "भारत विशेषज्ञ", चीफ ऑफ जनरल स्टाफ (सीजीएस) है. एक शक्तिशाली 'हैंड्स-ऑन' पोस्ट हैं. इससे पहले, उन्होंने रावलपिंडी स्थित एक्स कॉर्प्स की न केवल विशाल राजनीतिक महत्व के साथ बल्कि कश्मीर में प्रत्यक्ष भूमिका के साथ कमान संभाली.
यदि आप एक 'हाइब्रिड' मॉडल को जारी रखना चाहते हैं, तो फैज हामिद सही है.. लेकिन शहबाज शरीफ उस व्यक्ति को नामित करना शायद ही पसंद करेंगे जिसने भ्रष्टाचार को घर घर चर्चा का विषय बना दिया.
तो योग्यता, सबसे अच्छा मार्गदर्शक नहीं हो सकता है - कम से कम मुश्किलों में फंसे शरीफों के लिए.
दरअसल इमरान अपने कैंपेन को बहुत तेजी से आगे बढ़ा रहे हैं. अपनी पसंद के एक आर्मी चीफ की नियुक्ति पर उनका पूरा कैंपेन केंद्रित है. यह दिखाता है कि संस्था देश को किस हद तक चला रही है. इमरान भले ही कुछ और कहें, लेकिन वह अलग नहीं हैं.
लेकिन यह सच है कि प्रत्येक पाकिस्तानी नेता ने खुलकर हाथ आजमाया है - विशेष रूप से भारत नीति पर - विशेष रूप से नवाज शरीफ, जो इस चक्कर में जेल भी गए. इमरान भी उनसे अलग नहीं .
इसलिए भारत के लिए यह चुनाव नहीं बल्कि चुनावी प्रक्रिया मायने रखती है. कोई भी सेना प्रमुख भारतीयों के प्रति अपनी धारणा के मामले में दूसरे से अलग नहीं है.
हालांकि, एक प्रक्रिया जो उचित संवैधानिक प्रावधानों पर निर्भर करती है और लोकतंत्र को मजबूत करती है, वही पाकिस्तानियों और बाकी सभी के लिए सबसे अच्छा है. सिवाय शायद उस चीनी गुड़िया के जो शांत कोने में अपना सिर हिला रही है.. लेकिन वहां बेचैनी होना अच्छी बात है.
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