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विलियम शेक्सपियर (William Shakespeare) के पास ऐसे नाटक लिखने की अनोखी कला थी, जो कभी-कभी बड़ी त्रासदी का वर्णन करते थे और कभी-कभी कॉमेडी ऑफ एरर्स और नाटकीयता का. अगर वो दिसंबर 2023 में भारतीय संसद (Indian Parliament) को कवर कर रहे होते, तो शायद वो भी त्रासदी, नाटकीयता या तमाशे में से एक शैली या तीनों के बेमेल मिश्रण को उजागर करने में अचंभित हो जाते?
विचारक, विद्वान और लेखक प्रताप भानु मेहता दशकों से भारतीय लोकतंत्र की बदसूरत स्थिति पर टिप्पणी करते रहे हैं. वह The Indian Express के हालिया op-ed में खोए हुए और शिकायती लग रहे हैं, “लेकिन, एक तरह से, विधेयकों पर सार्वजनिक आक्रोश की कमी या वास्तव में पूरे विपक्ष को निलंबित कर दिया जाना, यह केवल इस तथ्य का परिणाम हो सकता है कि संवैधानिक स्वरूपों के प्रति कोई भूख नहीं बची है.''
अजीब बात है कि संसद के शीतकालीन सत्र में जो कुछ हुआ, उसने लेखक को स्टीव वॉ (Steve Waugh) के नेतृत्व वाली ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम की याद दिला दी. इस महान क्रिकेटर ने माना कि उनके और उनके साथियों के लिए सिर्फ टेस्ट सीरीज जीतना ही काफी नहीं था. उनका एकमात्र लक्ष्य प्रतिद्वंद्वी टीमों को डराना और मानसिक रूप से खत्म करना था. शायद नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने उस किताब से कुछ सीख ली है.
जब से नरेंद्र मोदी ने 2019 के लोकसभा चुनावों में ऐतिहासिक और बड़ा जनादेश हासिल किया है, संसद एक सर्कस की तरह बन गई है. बहुत सारे संभावित "सत्र" कोरोना वायरस की वजह से नहीं हो सके. इसके अलावा जो भी संसद की कार्यवाही हुई, कड़वी और शत्रुतापूर्ण रही है. विपक्षी सदस्यों को "अनियंत्रित" व्यवहार के लिए निलंबित कर दिया गया है लेकिन इस बार जो हुआ वह अभूतपूर्व है. कैसे दो युवा लड़के संसद के अंदर गैस के कनस्तरों के साथ आ सकते हैं और गैलरी से सदन में कूद सकते हैं. इस घटना की वजह से व्यापक सुरक्षा व्यवस्था का मजाक बना है.
विपक्षी नेता सरकार से जवाब मांगने के अपने अधिकार में थे. आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह दोनों ने माना कि यह एक गंभीर मामला है. लेखक संसदीय प्रक्रियाओं, नियमों और प्रक्रियाओं का कोई विशेषज्ञ नहीं है, फिर भी सामान्य ज्ञान कहता है कि अगर गृहमंत्री ने लोकसभा और राज्यसभा दोनों में औपचारिक रूप से बात की होती तो आसमान नहीं टूट पड़ता. बहुत ज्यादा कुछ बुरा होता तो विपक्षी सांसद उन्हें नारे लगाकर घेरते और जवाब मांगते.
कोई औपचारिक बयान न होने की सिर्फ एक वजह यह हो सकती है कि शासन विपक्ष के साथ घोर अवमानना और तिरस्कार का व्यवहार करता है. शायद बीजेपी के आला कमान के मन में यह बात घर कर गई है कि विपक्ष की मांगों को मानना "राजनीतिक हार" की तरह होगा, जिसे केवल बल के क्रूर प्रयोग के रूप में वर्णित किया जा सकता है. कुल 146 विपक्षी सांसदों को संसद से निलंबित कर दिया गया, वहीं दूसरी तरफ संसद कई अहम विधेयक पारित किए गए.
अगर आप पक्षपातपूर्ण विचारक नहीं हैं, तो आप सरकार के इस तर्क से बिल्कुल सहमत नहीं होंगे कि विपक्ष के सांसदों को दंडित करने के लिए कुछ किया जाना चाहिए, जिनका एकमात्र इरादा उत्पात मचाना और संसद को चलने नहीं देना है. इसके साथ ही, अपने निलंबन के बाद विपक्षी नेताओं ने जिस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त की और व्यवहार किया, उसकी प्रशंसा करना तो दूर, सराहना करना भी असंभव होगा.
ज्यादा से ज्यादा यह स्कूल का बचकानापन था. विपक्षी सांसदों ने जगदीप धनखड़ की नकल करके और उनका मजाक उड़ाकर किस तरह उपराष्ट्रपति के पद, किसानों और जाटों का अपमान किया, इस पर राजनीतिक दिखावा करने में मीडिया का बहुत ज्यादा वक्त बर्बाद हुआ है.
परेशानी यह नहीं है कि वे नकल में लिप्त थे. असली परेशानी यह है कि उनकी खिलखिलाहट और हंसी ने भारतीय जनता को साफ संदेश दिया कि वे मामले को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. अगर विपक्षी सांसद इतने गंभीर मुद्दे को छोटा बताते और मजाक करते नजर आते हैं, तो भारतीय जनता उन्हें गंभीरता से क्यों लेगी? इसलिए मेहता सही हैं, जब वो कहते हैं कि कोई सार्वजनिक आक्रोश नहीं है लेकिन इसलिए नहीं कि भारतीय गुलाम बन गए हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि भले ही उन्हें सत्ता का दबंग रवैया पसंद न हो, लेकिन विपक्ष उन्हें विश्वास और सम्मान के लायक नहीं लगता.
विडंबना यह है कि जिस विधेयक पर सबसे ज्यादा "ध्यान" गया, वह वह था जो प्रधानमंत्री, एक कैबिनेट मंत्री और विपक्ष के नेता को चुनाव आयोग के सदस्यों को नियुक्त करने में सक्षम बनाता है. इस बारे में रोना-पीटना शुरू हो गया है कि इसका मतलब यह है कि अब "स्वतंत्र और निष्पक्ष" चुनाव नहीं होंगे. यह बकवास है क्योंकि सरकार ने 1950 से हमेशा ECI के सदस्यों को नियुक्त किया है और छोटी-मोटी बाधाओं को छोड़कर चुनावों को स्वतंत्र और निष्पक्ष होने के लिए सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया गया है.
वास्तव में अहम विधेयक 'दूरसंचार विधेयक' और तीन आपराधिक कानून विधेयक थे, जिन्होंने आपराधिक न्याय प्रणाली को पूरी तरह से बदल दिया है. इन नए कानूनों का सीधा असर 1.4 अरब भारतीय नागरिकों पर पड़ेगा और फिर भी, उन्हें बिना किसी उचित बहस और चर्चा के पारित कर दिया गया. सत्तारूढ़ गठबंधन और विपक्ष दोनों को संसद का मजाक बनाने के लिए दोष देने करने की जरूरत है.
(सुतनु गुरु, CVoter Foundation के कार्यकारी निदेशक हैं. यह आर्टिकल एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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