एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) 21-23 जून के बीच अमेरिका के ‘आधिकारिक दौरे’ पर थे, तो दूसरी तरफ उसी वक्त अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा (Barack Obama) ने सीएनएन को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि बदतर मानवाधिकार रिकॉर्ड्स वाले देशों के नेताओं से वार्ताओं के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपतियों को किन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. सीएनएन की क्रिस्टियाना अमानपोर को दिए इंटरव्यू में ओबामा ने कई दूसरी बातें भी साझा की थीं.
उन्होंने कहा: “आपको उनके साथ बिजनेस करना पड़ता है क्योंकि ऐसा करना सुरक्षा कारणों से महत्वपूर्ण है.” फिर उन्होंने कहा, “जैसा कि आपको मालूम है, कई आर्थिक हित भी मौजूद हैं.”
ओबामा की साफगोई: पहले भी और अब भी
इंटरव्यू में ओबामा से उस चिट्ठी पर टिप्पणी मांगी गई थी, जिसे डेमोक्रेटिक पार्टी के 75 सीनेटर्स और कांग्रेसियों ने राष्ट्रपति बाइडेन को भेजी थी. उस चिट्ठी में बाइडेन से कहा गया था कि वह मोदी से भारत में अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के साथ होने वाले भेदभावपूर्ण व्यवहार पर बातचीत करें. इसके जवाब में ओबामा ने उस दुविधा का जिक्र किया जो इस समय राष्ट्रपति जो बाइडेन के सामने है. ओबामा के प्रशासन में बाइडेन आठ सालों तक उपराष्ट्रपति रहे थे.
ओबामा ने सुझाव दिया कि बाइडेन को भारतीय लोकतंत्र की मौजूदा स्थिति के बारे में मोदी से बात करनी चाहिए. उन्होंने सलाह दी:
“मेरी एक दलील यह है कि अगर आप भारत में जातीय अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं करते हैं, तो इस बात की पूरी उम्मीद है कि भारत में किसी बिंदु पर तनातनी होने लगे. और हमने देखा है कि बड़े आंतरिक संघर्षों का क्या नतीजा होता है."अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति, बराक ओबामा
ये खास तौर से कड़े शब्द हैं. वैसे यह पहली बार नहीं है कि ओबामा ने भारत में समानता की लोकतांत्रिक परंपरा को बरकरार रखने और उसकी विविधता को संरक्षित रखने की जरूरत का उल्लेख किया है. राष्ट्रपति के तौर पर ओबामा ने जनवरी 2015 में भारत का दौरा किया और दिल्ली में इन मुद्दों पर सार्वजनिक रूप से बात की थी. उम्मीद नहीं है कि तब अमेरिकी राष्ट्रपति का गर्मजोशी से स्वागत करने के लिए अपने प्रोटोकॉल से इतर जाने वाले प्रधानमंत्री मोदी को हैदराबाद हाउस की चाय पे चर्चा सुहाई होगी, न ही ओबामा का यह इंटरव्यू उन्हें रास आया होगा.
मोदी के अमेरिकी आलोचक और बाइडेन प्रशासन
गौरतलब है, और कूटनीतिक नजरिए और समझदारी से, मोदी ने तब उन्हें कोई जवाब नहीं दिया. निश्चित रूप से, अब भी ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं थी, खासकर इसलिए क्योंकि बाइडेन ने इस महत्वपूर्ण यात्रा के दौरान मोदी को शर्मिंदा करने जैसा कुछ नहीं किया. ओबामा की टिप्पणी या सीनेटर्स- कांग्रेसियों की चिट्ठी के बावजूद अमेरिकी कांग्रेस ने मोदी को उच्च सम्मान दिया. उन्होंने मोदी को दो बार सीनेट और हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स के संयुक्त सत्र को संबोधित करने का मौका दिया. पहली बार मोदी ने ऐसा 2016 में किया था.
सच्चाई तो यह है कि मोदी के कुछ जाने-माने आलोचकों, जिनमें अमेरिकी कांग्रेस की महिला सदस्य भी शामिल हैं, ने मोदी के संबोधन का बहिष्कार करने का फैसला किया. लेकिन इससे न तो व्यक्तिगत रूप से मोदी के लिए और न ही भारत-अमेरिका संबंधों के लिए इस आयोजन का महत्व कम हुआ.
मई 2014 में प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद से मोदी ने अमेरिका में अपने आलोचकों को नजरअंदाज करने का फैसला किया. जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब अमेरिका में उनके आलोचकों ने बुश और ओबामा, दोनों प्रशासनों को मजबूर किया था कि मोदी को अमेरिकी वीजा न दिया जाए. यह साफ है कि 2014 के चुनावों में भारतीय जनता का विशाल और ऐतिहासिक जनादेश और 2019 के चुनावों में बड़ी अंतर से जीत, मोदी के लिए अपने आलोचकों को अच्छा जवाब था- न सिर्फ भारत में, बल्कि अमेरिका सहित दूसरे देशों में भी.
मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके अमेरिकी आलोचक तो शांत नहीं हुए, लेकिन ओबामा प्रशासन को उनके साथ कारोबार करना था. राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच हुए भारत अमेरिकी परमाणु समझौते ने दोनों देशों के संबंधों को तरक्की की राह दी थी.
उस सौदे के वक्त भारत एक आर्थिक और कूटनीतिक साझेदार था, लेकिन अब उसका महत्व और बढ़ गया है- खासकर 2013 से, जब शी जिनपिंग चीन के सर्वोच्च नेता बने हैं.
जैसे-जैसे यह साफ होता जा रहा है कि शी अमेरिका की वैश्विक श्रेष्ठता को चुनौती देने के लिए कमर कसे हुए हैं, जिसकी शुरुआत भारत-प्रशांत (तत्कालीन एशिया प्रशांत) से होगी, भारत-अमेरिका संबंध और मजबूत हो सकते हैं.
ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत इस क्षेत्र का एकमात्र देश है जिसके पास आक्रामक चीन के खिलाफ 'सुरक्षा कवच' बनने की प्रेरणा और क्षमता है, साथ ही साधन भी.
ऐसे में अमेरिका में मोदी आलोचकों की पकड़ देश के प्रशासन से ढीली पड़ गई है. हालांकि वह उनकी और संघ परिवार की आलोचना करते रहते हैं, खासकर अल्पसंख्यकों के साथ उनके बर्ताव की. ओबामा ने सीएनएन को अपने इंटरव्यू में जिन अमेरिकी आर्थिक और रणनीतिक हितों का उल्लेख किया था, उनका असर अमेरिका की भारत नीति में साफ नजर आ रहा है. और मोदी की हाल की यात्रा में यह और भी मुखर हो रहा था.
वाशिंगटन डीसी की सड़कों पर मोदी-विरोधी और संघ-परिवार-विरोधी नारे नजर आए लेकिन उसका असर भारत अमेरिकी संबंधों पर कतई नहीं पड़ा क्योंकि वहीं मोदी का भव्य स्वागत भी हुआ.
और इस दौरे से अमेरिका ने मानो अपने दरवाजे पूरी तरह खोल दिए, जोकि पहले या तो बंद थे, या हल्के से खुले हुए थे. अमेरिका अपनी संवेदनशील रक्षा तकनीक को भी भारत को हस्तांतरित करेगा. अब यह बात और है कि भारत कब इस स्थिति में होगा कि इन तकनीकों को आत्मसात कर पाए और सचमुच एक ‘साइंस पावर’ बन पाए, या अत्याधुनिक तकनीक का एक प्रामाणिक उत्पादक बने.
भारत का जवाब: विदेश मंत्री जयशंकर का असर
ध्यान देने वाली बात यह है कि मोदी खुद, या उनकी सरकार न तो अमेरिकी आलोचकों से निपटने के लिए बचाव की मुद्रा में हैं, और न ही चुपचाप है.
लगता है कि 2019 में एस. जयशंकर के विदेश मंत्री बनने के बाद यह बदलाव आया है. मोदी और संघ परिवार के अल्पसंख्यक विरोधी रवैये को लेकर अमेरिका और यूरोप की राय का सामना जयशंकर ने बखूबी किया. उन्होंने ईंट का जवाब पत्थर से दिया.
2019 में यह साफ नजर आया, जब उन्होंने कैपिटल हिल की एक मीटिंग को सिर्फ इसलिए रद्द कर दिया क्योंकि उन्हें पता चला था कि कांग्रेस के कुछ मोदी आलोचक वहां मौजूद रहने वाले हैं.
उन्होंने अमेरिका के एक डेली न्यूजपेपर के संबंध में यह टिप्पणी भी कि ‘मेरी प्रतिष्ठा न्यूयॉर्क के अखबार से नहीं बनी है’. यह अखबार मोदी और उनकी सरकार की अल्पसंख्यक नीति का बड़ा आलोचक रहा है.
पिछले चार वर्षों में जयशंकर ने भारतीय आलोचकों को जोरदार, अक्सर अभद्र तरीके से जवाब दिया है. इससे उन्हें खास तौर से वर्तमान सरकार के समर्थकों के बीच 'कल्ट' का दर्जा मिला है.
जाहिर तौर पर, यह भारत की उस हिंदूवादी विचारधारा पर रजामंदी की मुहर जैसी ही है, जोकि वर्तमान सरकार की नीतियों के घरेलू या विदेशी आलोचकों को लेकर लगातार असहिष्णु हो रही है. और जयशंकर के लिए, यह भारत के अल्पसंख्यकों के प्रति व्यवहार तक सीमित नहीं है.
मोदी भी बचाव की मुद्रा में नहीं थे, जब 22 जून को वाशिंगटन डीसी में संयुक्त मीडिया ब्रीफिंग के दौरान उनसे अल्पसंख्यकों के बारे में सवाल किए गए. बेशक, उन्होंने एक अनुभवी राजनेता की तरह, जो साफ तौर से मीडिया से बातचीत करना पसंद नहीं करते- सीधा जवाब नहीं दिया.
बाइडेन की टिप्पणी का फायदा उठाते हुए उन्होंने इस विचार का समर्थन किया कि लोकतंत्र भारत के डीएनए में है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हमारी सरकार की कल्याणकारी योजनाएं धार्मिक पहचान के आधार पर भेदभाव नहीं करतीं. वे सबके लिए हैं. हां, उस सवाल की सामान्य प्रकृति ने उनकी मदद की.
उदाहरण के लिए, उनके लिए अमेरिकी दर्शकों के सामने इस बात की सफाई देना मुश्किल होता है कि लोकसभा में बीजेपी के 300 सदस्यों में से एक भी मुसलमान क्यों नहीं है.
लेकिन महान शक्तियों के हिसाब-किताब में आर्थिक और सुरक्षा संबंधी चिंताएं, मानवाधिकारों पर हावी रहीं.
मानवाधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के मूल में पाखंड है. यह अमेरिकी मामले में एकदम नजर आता है. मानवाधिकार की स्थिति पर कांग्रेस की आधिकारिक रिपोर्ट में मोदी सरकार को संदिग्ध बताया गया है. लेकिन अमेरिका के आर्थिक और कूटनीतिक स्वार्थ के चलते राष्ट्रपति ने इसे अनदेखा कर दिया.
अब सिर्फ एक प्रश्न शेष है. राष्ट्रपति कितना खुलकर इस बात को स्वीकार करते हैं. उदाहरण के लिए मानवाधिकारों को लेकर डोनाल्ड ट्रंप की नफरत जग जाहिर थी, लेकिन उनके पूर्ववर्ती और उत्तराधिकारी उन पर जोर देते रहे हैं. हां, अमेरिका की कथनी और करनी में काफी अंतर है. मोदी की आधिकारिक राजकीय यात्रा में यह एक बार फिर दिखाई दिया है.
(लेखक विदेश मंत्रालय में पूर्व सचिव [पश्चिम] रहे हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @VivekKatju है. यह एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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