advertisement
(स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री मोदी के भाषण पर एक नजरिया ये भी)
यह कहना कि देश के स्वतंत्रता दिवस (Independence Day) पर एक भारतीय प्रधानमंत्री का भाषण महत्वपूर्ण अवसर होता है, सिर्फ पुरानी बातों को दोहराने जैसा है. प्रधानमंत्री, चाहे वह किसी भी पार्टी से हों, इसका इस्तेमाल आत्मप्रशंसा के लिए नहीं कर सकते और न ही इसका इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों को बदनाम करने के लिए किया जा सकता है. इसे चुनावी भाषण के रूप में तो बिल्कुल भी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
कारण एकदम साफ है.
जैसे ओडिशा के जगन्नाथ पुरी में प्रसिद्ध मंदिर का रथ हजारों हाथ खींचते हैं, एकदम उसी तरह किसी राष्ट्र की प्रगति- विशेष रूप से भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में- सामूहिक कोशिशों से मुमकिन हुआ है.
प्रधानमंत्री, चाहे वह किसी भी पार्टी से हों, इसका इस्तेमाल आत्मप्रशंसा के लिए नहीं कर सकते और न ही इसका इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों को बदनाम करने के लिए किया जा सकता है.
जब मोदी ने भारत के 77वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से दसवीं बार राष्ट्र को संबोधित किया, तो उन्होंने इसे एक और चुनावी भाषण में बदल दिया.
मोदी अपने ही दावे को कमजोर करते हैं क्योंकि अपनी पार्टी में "परिवार-वाद" को अनदेखा कर देते हैं. हाल ही में उन्होंने शरद पवार की नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी को तोड़कर, अजित पवार (जो ईमानदारी की मिसाल नहीं) को बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में शामिल किया है.
मोदी ने राज्य सरकारों को उनके अच्छे कामों का श्रेय नहीं दिया (जिनमें से ज्यादातर राज्यों में बीजेपी की बजाय दूसरे दलों की सरकारें हैं). उन्होंने केंद्र में पिछली सरकारों के अच्छे कामों का भी जिक्र नहीं किया.
हालांकि, आत्म-संयम के ऐसे सिद्धांत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लागू नहीं होते हैं, या वह ऐसा मानते हैं. जब उन्होंने भारत के 77वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से दसवीं बार राष्ट्र को संबोधित किया, तो उन्होंने इसे एक और चुनावी भाषण में बदल दिया.
मोदी ने कहा, ''अगली 15 अगस्त को इसी लाल किले से मैं आपके सामने देश की उपलब्धियां गिनाऊंगा, विकास के बारे में बात करूंगा.'' क्या पीएम को अगले साल के संसदीय चुनाव के नतीजे की भविष्यवाणी करनी चाहिए? कोई कह सकता है कि यह उनके आत्मविश्वास को दर्शता है. दूसरे लोग कह सकते हैं कि यह उनका अति आत्मविश्वास है.
लेकिन मुद्दा यह नहीं है.
मोदी ने अपने भाषण में सात बार अपना नाम लिया. भारत जल्द ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा. क्यों? क्योंकि "यह मोदी की गारंटी है". भारत में 2014 और 2019 के बाद सुधारों में तेजी आई है. क्यों? "क्योंकि मोदी ने साहस दिखाया". दस करोड़ भारतीय भ्रष्ट तरीकों से लाभ पाने के लिए सरकारी योजनाओं का दुरुपयोग कर रहे थे. "मोदी ने इसे रोक दिया." इसी तरह: "ये मोदी है समय के पहले, नई संसद बनाकर रख दिया."
मोदी ने "भ्रष्टाचार, परिवार-आधारित पार्टियों और तुष्टीकरण" को भारत की राजनीतिक व्यवस्था, शासन और विकास को प्रभावित करने वाली तीन बुराइयां बताईं. उन्होंने भ्रष्टाचार जैसा मजबूत और वैध मुद्दा उठाया. यह असल में ऐसा कैंसर है जिसने हमारे राजनीतिक प्रतिष्ठान को खोखला किया है और शासन व्यवस्था को कमजोर किया है. हमारी तरक्की को भी प्रभावित किया है. यह भी सच है कि केंद्र सरकार में शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार कम हुआ है. इसका श्रेय मोदी को जाता है.
लेकिन क्या मोदी सच में दावा कर सकते हैं कि उन्होंने अपनी पार्टी में भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म कर दिया है? बेशक उनकी सरकार ने ईडी, आयकर और ऐसी दूसरी संस्थाओं के जरिए दूसरी राजनीतिक पार्टियों के कथित घोटालेबाजों के साथ बेरहमी दिखाई है, लेकिन क्या उन्होंने अब तक अपनी ही पार्टी के उन नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई की है जिनके भ्रष्ट सौदों में शामिल होने का शक है?
जब मोदी वंशवाद की राजनीति की आलोचना करते हैं तो वह मुनासिब बात करते हैं.
लेकिन मोदी अपने ही दावे को कमजोर करते हैं क्योंकि अपनी पार्टी में "परिवार-वाद" को अनदेखा कर देते हैं. हाल ही में उन्होंने शरद पवार की नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी को तोड़कर, अजित पवार (जो ईमानदारी की मिसाल तो कतई नहीं) को बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) में शामिल किया है.
आइए (मुस्लिम) तुष्टिकरण पर आएं. मोदी ने 'मुस्लिम' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया, लेकिन संदर्भ स्पष्ट था. यह सच है कि कांग्रेस और अन्य "धर्मनिरपेक्ष" दलों ने मुसलमानों को "वोट बैंक" के रूप में इस्तेमाल किया. इससे न तो मुसलमानों को और न ही बड़े पैमाने पर देश को कोई फायदा हुआ, बल्कि बीजेपी को "मुस्लिम तुष्टीकरण" की राजनीति करने के लिए इन पार्टियों की आलोचना करने का मौका मिल गया. लेकिन 2014 के बाद से हमने भारत में क्या देखा है? क्या मोदी के नेतृत्व में बीजेपी आक्रामक रूप से "हिंदू तुष्टिकरण" की नीति का पालन नहीं कर रही जिसका मकसद अपने "हिंदू वोट बैंक" को मजबूत करना है?
इससे उलट, वह ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के औपनिवेशिक शासन पर पूरी तरह चुप्पी साधे रहे, जिन्होंने भारत को लूटा और गरीब बनाया. लोगों पर अनगिनत अत्याचार किए, उन्हें बेइज्जत किया. हैरानी की बात नहीं कि मोदी ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले एक भी मुस्लिम शहीद या देशभक्त को श्रद्धांजलि नहीं दी.
यह इस बात का और सबूत है कि प्रधानमंत्री खुद पर कितने फिदा हैं, और किस तरह बढ़-चढ़कर अपनी तारीफ करते रहते हैं. उन्होंने कहा, "इस युग में हम जो करते हैं, जो कदम उठाते हैं और एक के बाद एक जो फैसले लेते हैं, उससे आने वाले 1000 वर्षों में देश का स्वर्णिम इतिहास लिखा जाएगा."
अगले "1000 वर्ष"? दुनिया के सभी भविष्यवक्ताओं को यह जानकर हैरानी होगी कि भारत इतना दूरदर्शी हो गया है कि जो नींव वह तैयार कर रहा है, वह अगली सहस्राब्दी में उसका भविष्य तय करेगी.
बेशक, प्रधानमंत्री ने पिछले दस सालों में भारत की कई उपलब्धियां गिनाईं. सभी देशभक्त भारतीयों को इन उपलब्धियों पर गर्व महसूस करना चाहिए - चंद्रयान, भारत में डिजिटल क्रांति, भारत की एनर्जी बास्केट में अक्षय ऊर्जा का तेजी से विस्तार, भारत के बुनियादी ढांचे का आधुनिकीकरण, बैंकिंग क्षेत्र को समावेशी बनाना, जमीनी स्तर पर महिलाओं के नेतृत्व में विकास, महामारी के दौरान टीकाकरण अभियान, वगैरह. इसमें कोई शक नहीं है कि इसका श्रेय मोदी सरकार को दिया जा सकता है.
लेकिन, यहां फिर से, एक परेशान करने वाली बात कहने को मजबूर किया जा रहा है
क्या इन सभी उपलब्धियों के लिए अकेले केंद्र सरकार को श्रेय दिया जाना चाहिए? राज्य सरकारों के योगदान के बारे में क्या? आख़िरकार, हमारे देश के संविधान का पहला अनुच्छेद यह कहता है कि "इंडिया, जो कि भारत है, राज्यों का एक संघ होगा". नरेंद्र मोदी सिर्फ केंद्र सरकार के मुखिया नहीं हैं.
अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि मोदी ने राज्य सरकारों को उनके अच्छे कामों का श्रेय नहीं दिया (जिनमें से ज्यादातर राज्यों में बीजेपी की बजाय दूसरे दलों की सरकारें हैं). उन्होंने केंद्र में पिछली सरकारों के अच्छे कामों का भी जिक्र नहीं किया. मानो भारत ने 2014 में ही सुधारों और विकास की राह पर कदम धरे हों!
दरसअल मोदी ने 2014 से पहले के तीन दशकों को "अस्थिरता, अनिश्चितता और राजनीतिक मजबूरी का काल" कहा था (यहां यह कहना जरूरी है कि इसमें वे छह साल भी शामिल हैं जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे).
आखिर में, मोदी ने अपने भाषण में कहा कि भारत को तीन तरह से ताकत मिलती है- उसकी जनसंख्या, उसके लोकतंत्र और विविधता से. वैसे उनके प्रधानमंत्री बनने से पहले से भारत इन शक्तियों से मजबूत था. इसीलिए प्रधानमंत्री इस बात के लिए तारीफ नहीं बटोर सकते कि भारत अपनी लोकतांत्रिक शक्ति से आगे बढ़ते हुए, अब चीन को पछाड़कर दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया है.
लेकिन भारतीयों को खुद से एक सवाल जरूर पूछना चाहिए: "भारत के लोकतंत्र और विविधता के संबंध में जो चिंताएं बढ़ रही हैं, उसका श्रेय किसे दिया जाना चाहिए?"
(लेखक ने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक के तौर पर कार्य किया है. वह ‘फोरम फॉर अ न्यू साउथ एशिया- पावर्ड बाय इंडिया-पाकिस्तान-चीन कोऑपरेशन’ के संस्थापक हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @SudheenKulkarni और उनका ईमेल एड्रेस sudheenkulkarni@gmail.com है. यह एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined