ADVERTISEMENTREMOVE AD

PM मोदी के कार्यकाल में भारत ने पाक को बहुत मौके दिए, लेकिन क्या वह इस लायक है?

फरवरी 2019 के पुलवामा आतंकी हमले के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने अपना रवैया बदला

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) ने लोकसभा में विपक्षी दलों के अविश्वास प्रस्ताव (No Confidence Motion) पर अपनी सरकार के रिकॉर्ड और प्रदर्शन पर जोरदार तरीके से सफाई दी थी. अपने संबोधन में उन्होंने कांग्रेस (Congress) पर हमला किया था कि उसे भारत की क्षमताओं पर नहीं, विदेशियों की बातों पर भरोसा है.

इस तरह मोदी ने कांग्रेस पर यह आरोप भी लगाया था कि वह पाकिस्तान के इन दावों पर विश्वास करती है कि वह आतंकवाद में शामिल नहीं है. उन्होंने कहा था कि भारत ने आतंकवाद के खिलाफ सर्जिकल और हवाई हमले किए लेकिन कांग्रेस को भारत के सशस्त्र बलों पर भरोसा नहीं. उसे दुश्मन के बयानों पर यकीन था.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

पाकिस्तान की ज्यादतियां और भारत का नजरिया

बेशक, संसद एक राजनीतिक मंच है. यह वह शीर्ष विधायी संस्था है जहां जिन भी मुद्दों पर चर्चा होती है, उनसे सरकार और विपक्षी दलों का राजनैतिक दृष्टिकोण झलकता है.

सरकार में अविश्वास होने पर जो बहस होती है, उसमें यह और साफ तौर से दिखाई देता है. इसलिए पाकिस्तान को लेकर भारतीय रवैये के बारे में मोदी ने जो टिप्पणियां कीं, वे कूटनीतिक और रणनीतिक से ज्यादा राजनैतिक थीं.

फिर भी उनकी टिप्पणियां यह सोचने को मजबूर करती हैं कि मोदी सहित एक के बाद एक सरकारों ने पाकिस्तान से कैसे निपटा है. इसमें भारत के खिलाफ आतंकवाद को प्रायोजित करना भी शामिल है.

पाकिस्तान ने 1947 से छद्म सशस्त्र हमलों का सहारा लिया है, जब उसने तत्कालीन जम्मू और कश्मीर रियासत में घुसपैठिए भेजे थे. इससे जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय हुआ जो अंतिम है, और बदलने वाला नहीं.

बाद में 1965 में उसने फिर से जम्मू-कश्मीर में घुसपैठिए भेजने की कोशिश की, लेकिन भारत ने न केवल उन्हें कुचल दिया, बल्कि राज्य के बाहर मोर्चा खोल दिया. इससे 1965 का युद्ध हुआ. इस तरह भारत से जम्मू कश्मीर को छीनने का पाकिस्तान का मकसद नाकाम रहा.

पाकिस्तान के नियंत्रण वाले इस्लामी समूहों के जरिए छद्म, आतंकवादी हमलों का यह दौर 1990 में शुरू हुआ और बदस्तूर है. और भारत में सभी सरकारों को पाकिस्तान और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से निपटने के तरीके और साधन तलाशने पड़े हैं.

0

अलग-अलग सरकारों ने पाकिस्तान से कैसे निपटा?

ये सरकारें, कांग्रेस के नेतृत्व वाली और तीसरे मोर्चे की सरकारें हैं. अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री के तौर पर बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए और मई 2014 के बाद से प्रभावी रूप से मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकारें हैं.

2015 के अंत तक सभी सरकारों का दृष्टिकोण दोहरा था. एक ओर घुसपैठ के खिलाफ भारतीय सुरक्षा को सख्त करके पाकिस्तानी आतंकवाद का मुकाबला करना, साथ ही बड़े पैमाने पर जम्मू-कश्मीर के साथ-साथ अन्य जगहों पर आतंकवादियों से दो-दो हाथ करना. दूसरा तरीका यह था कि पाकिस्तान को बातचीत में शामिल किया जाए ताकि उसे एहसास हो कि हिंसा और आतंक के जरिए जम्मू-कश्मीर को हासिल करना नामुमकिन है. इस तरह उसे यह भी दिखाया जाता रहा कि अगर वह भारत के साथ सहयोग करेगा तो उसे क्या-क्या फायदे हो सकते हैं.

1998 में भारत और पाकिस्तान आठ विषयों पर बातचीत के लिए राजी हुए जिसमें कई तरह के रिश्ते जुड़े हुए थे- मानवीय चिंताएं, लंबित मुद्दों का समाधान और विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग.

पाकिस्तानी सेना को वास्तव में संबंधों को सामान्य बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. इसलिए वह न सिर्फ बातचीत को लेकर उदासीन था, बल्कि उसका नजरिया दुश्मनी भरा भी था.

इसकी वजह यह थी कि वह भारत को अपना अटल दुश्मन समझता था, जिसे हर कदम पर धता बताना है. इसके अलावा छद्म आतंकवाद का सिद्धांत, सेना का एक अभिन्न हिस्सा रहा था.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

पाकिस्तान को बातचीत रास नहीं आई

1990 से 2015 तक जब भी पाकिस्तानी सेना को लगा कि बातचीत की प्रक्रिया गति पकड़ सकती है, उसने इसे कमजोर करने का काम किया. कारगिल ऑपरेशन, संसद पर हमला, मुंबई ट्रेन हमला और 2008 के मुंबई आतंकवादी हमले, यह साफ जाहिर करते हैं.

यह दुष्चक्र इस दशक की सच्चाई था: बातचीत, उसके बाद एक हिंसक आतंकवादी हमला (कारगिल ऑपरेशन एक अपवाद था क्योंकि वह पाकिस्तानी बलों ने किया था), बातचीत का टूटना, एक लंबी खामोशी का दौर, और एक बार फिर संवाद की शुरुआत.

सच्चाई यह है कि 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी भी इसी रास्ते पर चले. उन्होंने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अपने शपथ ग्रहण के लिए आमंत्रित किया और दोनों इस बात पर राजी हुए कि विदेश सचिव बातचीत प्रक्रिया के तौर-तरीकों पर काम करने के लिए मिलेंगे. क्योंकि 2008 के मुंबई हमले के बाद बातचीत ठप पड़ गई थी.

लेकिन यह नहीं हुआ क्योंकि पाकिस्तान ने यह जिद पकड़ी हुई थी कि उसके प्रतिनिधियों को हुर्रियत से मिलने दिया जाए. भारत इसके लिए तैयार नहीं था.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

पाकिस्तान भारत की धैर्य की परीक्षा लेता रहा

जुलाई 2015 में मोदी और नवाज शरीफ ने शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन के इतर रूस के उफा में मुलाकात की. वे इस बात पर सहमत हुए कि दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक के साथ सामान्यीकरण की प्रक्रिया शुरू होगी.

हालांकि पाकिस्तानी जनरल नाराज हो गए क्योंकि संयुक्त वक्तव्य में जम्मू-कश्मीर का उल्लेख नहीं था.

इसलिए उन्होंने इसे 'नकार' दिया. इसके बाद मोदी थोड़े झुक गए और भारत और पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों और विदेश सचिवों ने दिसंबर 2015 की शुरुआत में बैंकॉक में मुलाकात की. कुछ दिनों बाद तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने अफगानिस्तान से संबंधित बैठक के लिए इस्लामाबाद का दौरा किया. वह पाकिस्तान के साथ एक बार फिर व्यापक द्विपक्षीय वार्ता प्रक्रिया शुरू करने पर सहमत हुईं.

2015 में क्रिसमस के दिन काबुल से दिल्ली लौटते समय मोदी नवाज शरीफ से मिलने पहुंचे और अपनी शासन कला का परिचय दिया. साथ ही इन घटनाक्रमों पर मंजूरी की मुहर लगा दी. हालांकि पहले की तरह अब भी पाकिस्तानी सेना नहीं चाहती थी कि बातचीत आगे बढ़े.

मोदी के दौरे के दस दिन के भीतर ही पठानकोट एयरबेस पर हमला हो गया. फिर भी मोदी शांति पहल पर कायम रहे और एक टीम को जांच के लिए भारत आने और पठानकोट जाने की भी इजाजत दी. इस टीम में एक आईएसआई अधिकारी भी शामिल था. इससे भी पाकिस्तानी रवैये में कोई बदलाव नहीं आया.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

पुलवामा के बाद भारत की जवाबी कार्रवाई

जुलाई 2016 में कश्मीरी आतंकवादी बुरहान वानी को सुरक्षा बलों ने मार गिराया और पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ प्रोपेगेंडा वॉर छेड़ दिया. सितंबर में उरी सैन्य अड्डे पर पाक आतंकवादियों ने हमला किया था. यही वह समय था जब मोदी का नजरिया बदला और उन्होंने पाकिस्तानी आतंकवादी लॉन्च पैड्स के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक का आदेश दिया.

यह पाक नीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव था और इसकी सराहना की जानी चाहिए. फिर भी ऐसा लगता है कि सर्जिकल स्ट्राइक के बावजूद मोदी यह सोच रहे थे कि पाकिस्तानी नेतृत्व के साथ संपर्क जारी रखा जाए.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान भारत और पाक के बीच बैक चैनल का हिस्सा रहे दिवंगत सतिंदर कुमार लांबा ने अपनी किताब 'इन परस्यूट ऑफ पीस' में लिखा है, ''20 अप्रैल 2017 को पीएमओ के एक वरिष्ठ अधिकारी मेरे घर आए. उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री चाहते थे कि मैं पाकिस्तान जाकर प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिलूं.” (पेज 314) प्रेस रिपोर्टों के अनुसार, लेकिन लांबा की बजाय एक "प्रमुख भारतीय व्यवसायी" वहां गए.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

यह फरवरी 2019 का पुलवामा आतंकवादी हमला था, जिसने अंततः मोदी की नजरिया बदला.

उन्होंने बालाकोट हवाई हमले का आदेश दिया. यह पाकिस्तान और दुनिया के लिए एक संकेत था कि भारत पाक के आतंकी हमलों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई करेगा. उन्हें बिल्कुल स्वीकार नहीं किया जा सकता.

हवाई हमले के साथ ही भारत ने आक्रामक रुख अपनाया जिसे समय-समय पर दोहराए जाने की जरूरत है. लेकिन ऐसा नहीं होता.

अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक बदलावों की वजह से पाकिस्तान के पास कोई दलील नहीं बची. इससे रिश्ते टूट गए और संबंधों में दरार जारी रही. लेकिन जैसा कि कुछ खाड़ी देशों के राजनयिकों का कहना है कि उनके अनुरोध पर भारत और पाकिस्तान ने फरवरी 2021 में केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में एलओसी और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर युद्धविराम किया है. यह काफी हद तक कायम है.

भले ही मोदी ने शुरुआत में पूर्व प्रधानमंत्रियों की तर्ज पर व्यवहार किया लेकिन रिकॉर्ड बताते हैं कि मोदी ने आतंकवाद के संदर्भ में भारत-पाक संबंधों की दिशा बदली है. इसका नतीजा तब देखने को मिलेगा, जब नए पाकिस्तानी सेना प्रमुख असीम मुनीर वही करते हैं, जो उनके पूर्ववर्तियों ने किया था.

(लेखक विदेश मंत्रालय के पूर्व सचिव (पश्चिम) हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @VivekKatju है. यह एक ओपिनियन पीस है, और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए ज़िम्मेदार है.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×