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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) सनातन के मुद्दे को चुनावी हथियार बनाने में जुट गये हैं. उन्हें लगता है कि उनकी सरकार की तमाम नाकामियों पर सनातन की बहस चादर डाल देगी और उत्तर भारत का धर्मभीरू समाज बीजेपी के पक्ष में गोलबंद हो जाएगा, लेकिन ऐसा करते हुए वे भूल जाते हैं कि सनातन के विरोध में उठी सभी आवाजें संविधान की कट्टर समर्थक हैं जो एक समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र है और समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित है.
लगभग साढ़े नौ साल पहले संसद की सीढ़ियों पर माथा टेककर और संविधान की शपथ लेकर भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने वाले प्रधानमंत्री मोदी को क्या ये नहीं सोचना चाहिए कि उसी संविधान के समर्थक, सनातन का विरोध क्यों कर रहे हैं?
कहीं ऐसा तो नहीं कि एक ही शब्द को अलग-अलग संदर्भों मे समझा जा रहा है. वैसे भी सनातन विशेषण है, न कि संज्ञा. सनातन का अर्थ है शाश्वत. प्रधानमंत्री को स्पष्ट करना चाहिए कि उनके लिए सनातन का क्या अर्थ है? और वे क्यों मानते हैं कि विपक्ष का गठबंधन सनातन के खिलाफ है.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस देश में जब-जब शूद्रों और स्त्रियों को अधिकार देने का प्रश्न आया, सनातन धर्म की परंपराओं की दुहाई देकर उसका विरोध किया गया. चाहे सतीप्रथा पर रोक का का मसला रह हो या फिर मंदिरों में शूद्रों के प्रवेश का.
सनातनियों ने इसका खुलकर विरोध किया. यहां तक कि सनातन के नाम पर ही ब्राह्मणों ने शिवाजी का राज्याभिषेक करने से इनकार कर दिया था और जनता के महान राजा शिवाजी को बनारस से गागा भट्ट को बुलाकर राज्याभिषेक कराना पड़ा था.
डॉ.आंबेडकर ने महाड़ में तालाब का पानी मिले, इसके लिए सत्याग्रह किया था और अश्पृश्यता की सनातन परंपरा के नाम पर इसका भीषण विरोध हुआ था. महात्मा गांधी ने जब शूद्रों के मंदिर प्रवेश का आंदोलन किया तो सनातन के नाम पर ही उनका कड़ा विरोध किया गया था.
यहां तक कि कुछ साल पहले जब सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश की अनुमति दी तो सनातन परंपरा की दुहाई देते हुए इसके विरोध में भीषण आंदोलन खड़ा किया गया. इस आंदोलन का समर्थन बीजेपी ने भी बढ़-चढ़कर किया.
सावरकर तो इसी मनुस्मृति को ‘हिंदू लॉ’ बताते थे, जबकि डॉ.आंबेडकर ने इसी मनुस्मृति को स्त्रियों और शूद्रों की गुलामी का दस्तावेज बताते हुए सार्वजनिक रूप से जलाया था. प्रधानमंत्री मोदी खुद को सावरकर और डॉ.आंबेडकर, दोनों का अनुयायी बताते हैं जो सिर्फ छल हो सकता है.
सनातन ‘पुनर्जन्म’ के सिद्धांत को मानता है. यानी लोगों को इस जन्म में सुख या दुख उसके पूर्व जन्मों का परिणाम है. गरीबी और हर तरह की बीमारी भी पूर्व जन्म का फल है. यह सनातन यानी अपरिवर्तनीय व्यवस्था है. शास्त्रों में कई जगह धर्म का अर्थ वर्णाश्रम धर्म भी बताया गया है.
इस चिंतन का प्रसार वंचित तबकों की चेतना को कुंद करने के लिए किया गया. कोई विद्रोह न हो इसलिए यह भी बताया गया कि जगत पूरी तरह मिथ्या है. सत्य तो केवल ब्रह्म है. यह माया या अविद्या का प्रभाव है कोई इस जगत को सत्य समझ लेता है जैसे कि स्वप्न देखते समय स्वप्न भी यथार्थ लगता है.
लेकिन हम जानते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन के संकल्पों और संविधान के जरिए यह अपरिवर्तनीय सनातन व्यवस्था को बदला गया. संविधान ने समता को महत्वपूर्ण माना और स्त्री पुरुष, ब्राह्मण-शूद्र का भेद खत्म किया. जिन शूद्रों को सनातन सिर्फ सेवा करने के योग्य मानता था, उन्होंने मुख्यमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक की कुर्सी संभाली और देश की सेवा की.
आरक्षण जैसी अहिंसक क्रांति के जरिये शूद्र और पिछड़ी जातियों के बीच करोड़ों की आबादी वाला मध्यवर्ग विकसित हुआ. यानी जो हजारों साल में नहीं हुआ वह आजादी के 75 सालों के अंदर हो गया. संविधान ने एक अपरिवर्तनीय व्यवस्था में परिवर्तन करके दिखा दिया.
कुर्बानियों की मिसाल पेश की है. दुनिया के भी हिस्से में इंसान के बच्चे के जन्म लेने की प्रक्रिया एक ही है. जाति, धर्म, नस्ल चाहे जितनी अलग हो, ‘आन रास्ते’ कोई नहीं आता. ऐसे में किसी विराट पुरुष के मुंह से ब्राह्मण और पैरों से शूद्रों के पैदा होने की कहानी एक अवैज्ञानिक कल्पना ही हो सकती है जिसका मकसद शूद्रों को मानसिक रूप से गुलाम बनाना था.
इस वैज्ञानिक युग में ऐसी अवैज्ञानिक बातों का कोई मतलब नहीं है. विज्ञान ने मनुष्य को चांद पर ही नहीं पहुंचाया, यह भी साबित किया है कि रक्त समूह, किसी जाति या धर्म के आधार पर विभाजित नहीं हैं. कोई भी ब्लडग्रुप कहीं भी पाया जा सकता है. हमारा संविधान भी वैज्ञानिक चेतना को बढ़ावा देने की बात कहता है.
इसलिए जब प्रधानमंत्री मोदी सनातन के पक्ष में झंडा बुलंद करते हैं तो ऐसा लगता है कि शूद्रों और स्त्रियों की आजादी उन्हें रास नहीं आ रही है. पूरे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सामाजिक-मुक्ति की एक समानांतर धारा लगातार चलती रही. इस धारा ने आजादी के बाद के भारत में शूद्रों की हालत को लेकर सवाल उठाया था.
इसके सबसे मुखर स्वर के रूप में हम डॉ. आंबेडकर को पाते हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इस स्वर को बेहद महत्वपूर्ण माना था और डॉ. आंबेडकर को आधुनिक भारत का संविधान लिखने के लिए सबसे उपयुक्त पाया था.
भारत के प्रधानमंत्री से इतनी संवेदनशीलता की उम्मीद की ही जानी चाहिए कि वह शब्दों को नहीं भाव को समझेंगे, लेकिन मध्यप्रदेश की रैली में सनातन पर खतरा बताते हुए उन्होंने सारा संदर्भ ही गायब कर दिया. यहां तक कि रैदास को भी सनातन परंपरा से जोड़ दिया जो हमेशा जातिप्रथा को चुनौती देते रहे. रैदास ने कहा था-
जात-जात में जात है, जस केलन के पात.
रैदास न मानुष जुड़ सके, जब तक जात न जात.
साफ है कि मोदी जी सनातन का झंडा बुलंद करते हुए संविधान के संकल्पों को भूल रहे हैं. उनके आर्थिक सलाहकार तो खुलकर संविधान बदलने की वकालत कर रहे हैं. सनातन के नाम पर मोदी जी का युद्धघोष इस खतरे की स्पष्ट मुनादी है.
(लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं, क्विंट हिंदी का इन विचारों से सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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