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(जैसा उन्होंने इंदिरा बसु ,असिस्टेंट एडिटर,Op-Ed ,द क्विंट को बताया )
प्रधानमंत्री ने, पिछले कुछ दिनों तक गायब रहने के बाद, 14 मई के अपने भाषण में इस तथ्य पर विशेष जोर दिया कि उनकी सरकार द्वारा पीएम-किसान योजना के तहत किसानों को उनका बकाया खातों में भेज दिया गया है. उनका यह भाषण गलत प्राथमिकताओं का आदर्श नमूना है.
शायद यह जताने का प्रयास था कि किसान संकट सुलझा लिया गया है, जबकि उसका असली समाधान किसानों के आंदोलन से सच्चे संवाद में है जो महीनों चला था.
जिस यातना और पीड़ा से आज देश गुजर रहा है ,वह साफ दिख रहा है और उसे महसूस किया जा सकता है. ऐसी स्थिति में शुक्रवार को प्रधानमंत्री का भाषण मेरी नजर में ,जिसकी जरूरत थी उससे बहुत कम था. प्रधानमंत्री ने कहा क्या? उन्होंने देश को कोविड-19 महामारी को लेकर चेतावनी दी. मैं पूछता हूं प्रधानमंत्री जी, क्या देश को यह पता नहीं था? मुश्किल से देश में कोई परिवार बचा होगा जिसे इस महामारी में गंभीर नुकसान ना हुआ हो.
और अब जब कोरोना कि दूसरी लहर को फैलते कई हफ्ते गुजर गए तब प्रधानमंत्री के लिए देश को कोविड की चेतावनी देने के लिए सही समय लगा.
प्रधानमंत्री ने दावा किया कि हमारा आज का 'दुश्मन अदृश्य' है. मैं कहता हूं प्रधानमंत्री जी, वह अदृश्य हो गया है क्योंकि आपने उसे आते देखने से इंकार कर दिया .दूसरी लहर के पूर्वानुमान और प्लानिंग करने की अपनी जिम्मेदारी को आपका त्यागना हम सब ने देखा और वह बेहिसाब तरीकों से साबित भी हो चुका है. सरकार ने स्व प्रेरित आत्मसंतोष के आधार पर यह कह दिया कि हमने वायरस पर जीत दर्ज कर ली है और कोविड-19 पीछे छूट चुका है.
इसकी जगह हमें प्रधानमंत्री से साधारण बातें सुनने को मिली .उन्होंने नागरिकों को फिर बताया कि कोविड-19 से उनका सबसे अच्छा बचाव मास्क पहनना है. लेकिन यह बात तो हम प्रधानमंत्री और एक्सपर्ट से पिछले साल से सुनते आ रहे हैं. जो प्रधानमंत्री बोल रहे हैं वह प्रासंगिक है और हमें अवश्य कोविड-19 प्रोटोकॉल का ख्याल रखना चाहिए लेकिन इस बार उन्हें उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात नहीं करनी चाहिए थी?
और इसलिए मैंने कहा कि प्रधानमंत्री का भाषण सरकार की तरफ से संवाद की कमी का संकेत है. प्रधानमंत्री ने एक भी लाइव प्रेस कॉन्फ्रेंस क्यों नहीं किया?
हालांकि मुझे लगता है प्रधानमंत्री द्वारा 'युद्ध जैसी स्थिति' के रूपक का इस्तेमाल उचित नहीं है, उससे भी ज्यादा अनुचित है इस युद्ध जैसी कोशिशों की टाइमिंग. बहुत कम किया जा रहा है और बहुत देर. जब वक्त था दूसरी लहर की शुरुआत से युद्ध जैसी कोशिशों को शुरू करने का तब सरकार वायरस को जीत लेने के घमंड में थी.
कोई भी इस प्रकृति का रूपक इस्तेमाल कर सकता है, लेकिन उसे समझना चाहिए कि जो लोग इस युद्ध जैसी स्थिति में है, जो कई हफ्तों से इस महामारी से लड़ रहे हैं, उनके ऊपर इन रूपकों का प्रभाव कम या नहीं के बराबर है.
जहां तक असल जिम्मेदारी की बात है तो नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट इसको लेकर पूरी तरह से स्पष्ट है. महामारी से मुकाबले के लिए कार्यवाही करना और उसके प्रभाव को कम करना (इसकी घोषणा तो 14 मार्च 2020 को ही हो गई थी )-आपदा को टालने और इस आपदा जैसी स्थिति के प्रभाव को कम करने, तैयारी करने और उससे सामना करने के लिए क्षमता विकास करने की जिम्मेदारी केंद्र की है.
पर हम जमीन पर क्या देखते हैं .अब वैक्सीनेशन पॉलिसी का ही उदाहरण ले लीजिए. यह केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है कि वह देश की जरूरत के लिए वैक्सीन खरीदती और आगे भी खरीदते रहे.
यही तो बेचने वालों का सपना है.भारत इस हद तक आ गया है जहां जिम्मेदारी राज्यों की ओर सरका दी गई.
इसलिए पीएम के भाषण से लोगों को थोड़ी और मानवता, दोषी होने की स्वीकृति, थोड़ी और इमानदारी की उम्मीद थी ,जहां वे कहते कि हम दूसरी लहर की क्रूरता का पूर्वानुमान नहीं कर पाए, इसके बावजूद हम इस को नियंत्रित करने के लिए अपनी पुरजोर कोशिश करेंगे.
हम चाहते थे कि केंद्र सरकार क्या कर रही है, उसके बारे में थोड़ी और विस्तार से जानकारी मिलती. सच्चा संवाद होता. लेकिन प्रधानमंत्री के भाषण में इसको कोई जगह नहीं मिला.
और अब हमें क्या देखने को मिल रहा? बीजेपी के पैरंट ऑर्गेनाइजेशन RSS ने चार दिनों का 'पॉजिटिविटी अनलिमिटेड' कार्यक्रम रखा ,जहां उन्होंने आध्यात्मिक गुरुओं और अन्य लीडर्स को आमंत्रित किया. यह 15 मई शनिवार को खत्म हुआ, जहां RSS चीफ मोहन भागवत ने श्रोताओं को संबोधित किया.
पॉजिटिविटी अपने आप में बुरा लक्ष्य नहीं है, लेकिन पॉजिटिविटी को प्रोपेगेंडा नहीं बनाया जा सकता -जहां आप तथ्यों को अपने पक्ष में करके, उसे तोड़-मरोड़ के तड़पते लोगों को यकीन दिला देंगे कि चीजें कितनी अच्छी है या आगे हो जाएंगी.
अगर पॉजिटिविटी का यह मैसेज एकजुटता और धैर्य से जुड़ा होता तो समझ में भी आता. लेकिन RSS का यह आयोजन उन लोगों को देशद्रोही के रूप में कलंकित करने का एक नया प्रयास लगता है जो अपने पीड़ा को जता रहे हैं या जमीनी हकीकत को उजागर कर रहे हैं.
अगर सरकार के लिए कष्ट सह रहे लोग और उनकी अभिव्यक्ति 'नकारात्मकता' है और जो झूठी तस्वीर वो खुद पेश कर रही है वह 'सकारात्मकता', तो मुझे लगता है कि यह असाधारण रूप से निंदनीय है.
( पवन के. वर्मा एक लेखक ,पूर्व राजदूत और राज्यसभा सांसद है. उनका ट्विटर हैंडल है @PavanK_Varma. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं .द क्विंट का उससे सहमत होना जरूरी नहीं है)
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Published: 16 May 2021,12:00 PM IST