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एक नेता के नेतृत्व को चुनौती मिले, इससे पहले ही उसकी विश्वसनीयता को चुनौती मिलनी शुरू हो जाती है. जब उस पर लोगों का भरोसा दरकने लगता है तो इस बात खतरा भी होता है कि अगर इन दरारों को भरा न जाए तो उसके नेतृत्व का भव्य महल भी चरमरा जाएगा.
लेकिन जो लोग तटस्थ है, उनकी बेचैनी शुरुआती चरणों में नुकसानदेह नहीं होती. जब तक कि वे किसी न किसी पक्ष की तरफ लुढ़क न जाएं. हां, जब वफादार निराश होने लगें और विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करने लगें, तब किसी नेता का सुरक्षा कवच टूटने लगता है. ऐसे में उस कवच में छोटी से छोटी टूट भी विपक्ष का एक वार बर्दाश्त नहीं कर सकती. इसके बाद वह नेता असुरक्षित हो जाता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस वक्त किसी भी हिसाब से असुरक्षित नहीं. फिर भी, पिछले सात सालों में (सात साल पहले वह देश के प्रधानमंत्री बने थे) यह पहली बार है कि उनकी साख पर आंच आई है. विपक्ष की आलोचनाएं गहरी हुई हैं. लेकिन वह इसकी परवाह नहीं करते.
मोदी को जिस बात के लिए परेशान होना चाहिए, वह यह है कि संघ परिवार में कई लोग और उसके समर्थक भी अब परेशान हो रहे हैं. वे लोग जानते हैं कि कोविड महामारी की दूसरी लहर के प्रकोप के बाद प्रधानमंत्री की लोकप्रियता पर जबरदस्त असर हुआ है. आजाद भारत पहली बार इतना बुरा मानवीय संकट झेल रहा है. सभी लोग जान गए हैं, और आंकड़े भी कहते हैं कि इस संकट के दौरान उनकी और उनकी सरकार की बदइंतजामी का क्या आलम है.
लेकिन भारत में सब कुछ प्रधानमंत्री तक पहुंचकर रुक नहीं जाता. वह अकेले सब फैसले लेने वाले शख्स नहीं होता. 1947 के बाद किसी प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार का इस तरह व्यक्तिकरण नहीं किया, न ही पीएमओ सत्ता का अकेला गढ़ बना. इस वक्त मोदी के दफ्तर को सभी अधिकार मिले हुए हैं.
इंदिरा गांधी की सरकार में आपात काल (1975-77) में कैबिनेट कुछ हद तक शक्तिहीन हो गई थी. इसके बाद आज के हालात हैं. जैसा कि न्यू इंडियन एक्सप्रेस ने 16 मई को लिखा था, ‘महामारी पर काबू पाने में कैबिनेट की कोई भूमिका नहीं है. पीएमओ ही सारे फैसले ले रहा है. कैबिनेट ने सिर्फ यह किया है कि 1 अप्रैल को कुछ अमहत्वपूर्ण फैसले किए हैं (जोकि कोविड से संबंधित नहीं हैं).’
इसलिए मोदी भारत में इस तबाही की जिम्मेदारी लेने से बच नहीं सकते, और न ही इसके लिए किसी दूसरे को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं.
मोदी की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हुए, क्योंकि न तो वह और न ही उनके गृह मंत्री अमित शाह कोविड नियंत्रण पर जो भाषण दिया करते हैं, उस पर खुद अमल करते हैं. हाल के राज्य विधानसभा चुनावों में प्रचार अभियानों के दौरान उन दोनों ने अपनी ही सरकार के दिशानिर्देशों का उल्लंघन किया और खुद महामारी के ‘सुपरस्प्रेडर्स’ बने.
तिस पर, मोदी और उनके स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने महामारी पर जीत का राग भी अलापा. 8 अप्रैल को प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्रियों से कहा, ‘हमने वैक्सीन के बिना कोविड को हरा दिया है.’
बीजेपी भी खुशामदी चारण बनी हुई है. उसने 21 फरवरी को उत्साहित होकर एक प्रस्ताव भी पास किया था. इसमें कहा गया था:
चूंकि पार्टी की इस राष्ट्रीय बैठक में मोदी मौजूद थे, इसलिए उनके समर्थक यह दावा नहीं कर सकते कि वह भारत के बारे में यह भ्रम फैलाने के दोषी नहीं थे. फिर चापलूसी हवा में पैदा नहीं होती. तानाशाह इसके बीज बोते हैं क्योंकि वे अपनी तारीफ के लिए लालायित रहते हैं. यह गुणगान तब तक होता रहेगा, जब तक सब कुछ अच्छा है. जब हालात बुरे होंगे, और बुरे से बदतर, तब कोई नेता अपनी साख को बचाए नहीं रख सकता.
संघ परिवार में बहुतेरों और उसके समर्थकों को भी नजर आ रहा है कि यह नामवरी खोखली है. उन्होंने भी फोटो और वीडियो में देखा है कि कोविड के शिकार लोगों का सामूहिक दाह संस्कार किस तरह शमशानों और खुले में किया जा रहा है. उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा में बहते सैकड़ों शवों के प्रति देश भर में नफरत से वे भी अनजान नहीं. ऑक्सीजन की कमी से मरते लोगों की चीखें, उन्हें भी सुनाई दे रही हैं. वह यह भी जानते हैं कि लोगों को शुबहा है कि सरकार महामारी में मौतों के आंकड़ों में फेरबदल कर रही है.
द इकोनॉमिस्ट के हालिया अंक (15 मई) का कवर फीचर कोविड-19 के मौत के आंकड़ों पर केंद्रित है. उसमें दावा किया गया था कि भारत में ‘रोजाना करीब 20,000 लोग मर रहे हैं.’ सरकारी आंकड़े रोजाना चार हजार मौतों का है, और यह अनुमान इससे पांच गुना ज्यादा है. इस आर्टिकल में लिखा गया है कि “हमारे मॉडल के हिसाब से विश्व में कोविड-19 के कारण 7.1 करोड़ से 12.7 करोड़ लोग अपनी जान गंवा चुके हैं.” डब्ल्यूएचओ ने मौतों का आंकड़ा 34.2 लाख बताया है. और इकोनॉमिस्ट का आंकड़ा इससे बहुत अधिक है. अब जब भारत के गांवों से कोविड से होने वाली मौतों के बारे में पता चल रहा है तो सरकारी आंकड़ों पर शक होना लाजमी है.
इन तथ्यों और आंकड़ों के चलते मोदी पर संघ परिवार का भरोसा टूटना भी स्वाभाविक है.
बेशक, पूरा आरोप प्रधानमंत्री पर नहीं मढ़ा जा सकता. सच है, कि सरकार को उम्मीद नहीं थी कि महामारी की दूसरी लहर इस कदर फैलेगी. राज्य सरकारें भी इस संकट के लिए तैयार नहीं थीं. यह कहना भी सही है कि भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य संरचना की कमियां व्यवस्थागत हैं और मोदी सरकार के सात सालों को अकेले इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.
इन सबके बावजूद मोदी तक आकर सब कुछ रुक ही जाता है. चूंकि वह भारत के सर्व शक्तिशाली प्रधानमंत्री हैं. वह दूसरों को अधिकार सौंपते नहीं.
मोदी ने अब तक कोविड आपदा पर गिनी चुनी सर्वदलीय बैठकें की हैं. जैसा कि कई मुख्यमंत्रियों ने शिकायत की है, उनके साथ उनकी बैठकें मोगोलॉग यानी एकालाप होती हैं, संलाप यानी डायलॉग नहीं. वह सिर्फ खुद बोलते हैं, बातचीत नहीं करते. सहभागिता और सहयोगपरक संघवाद के लिए बातचीत और विचारों का आदन-प्रदान जरूरी है. इसलिए बीजेपी और भगवा ब्रिगेड, कोई यह नहीं कह सकता कि मोदी नहीं, कोई और इन सबके लिए जिम्मेदार हैं.
आरएसएस और उसके परिवार के दूसरे संगठनों के किसी सीनियर नेता ने अब तक मोदी की सीधे-सीधे आलोचना नहीं की. फिर भी आरएसएस प्रमुख डॉ. मोहन भागवत के अपने हाल के भाषण में असहमति का संकेत दिया था. कोविड संकट के मद्देनजर समाज में ‘पॉजिटिविटी’ बढ़े, इसके लिए आरएसएस से जुड़े एक प्लेटफॉर्म पर कुछ लेक्चर दिए गए थे. इसमें अपने लेक्चर में भागवत ने कहा था कि सरकार और आम लोगों में महामारी की पहले लहर के बाद कुछ ‘आलस’ आ गया था. उन्होंने कहा था कि “जो हुआ, उसमें सही और गलत निकालने का यह वक्त नहीं.” लेकिन मोदी के बुरे वक्त का पूर्वानुमान लगाते हुए उन्होंने कहा था, “वह समय आएगा.”
ग्लोबल मीडिया में आलोचनाओं के अलावा भारतीय मीडिया में भी मोदी समर्थकों के विरोधी स्वर सुनाई दे रहे हैं. ओपन मैगजीन (24 मई) में लेखक, संपादक और प्रकाशक मिनहाज मर्चेंट ने मीडिया में मोदी पर हमला करने वाले ‘लेफ्ट इकोसिस्टम’ की आलोचना की लेकिन प्रधानमंत्री को भी नहीं बख्शा. उन्होंने लिखा,
मोदी अजेय लगते थे. जिसे कोई नहीं हरा सकता. लेकिन अब उस कवच में दरारें साफ दिख रही हैं. जिन लोगों ने उनके इर्द गिर्द इस कवच को मढ़ा था, वे ही इसे धीरी धीरी चोट कर रहे हैं. आने वाले तीन सालों में जब मोदी राज्य विधानसभा चुनावों में पराजित होंगे. जब भरभराती अर्थव्यवस्था के चलते आम लोगों की जिंदगी दूभर होगी, तब ये वार तेज हो जाएंगे.
संसदीय चुनाव अभी भी तीन साल दूर हैं, और राजनीति में तीन साल का वक्त बहुत बड़ा होता है. हम अभी से इस बात का आकलन नहीं कर सकते कि भारत की राजनीति 2024 में कैसी होगी. लेकिन हम दो संभावनाएं तो जता ही सकते हैं.
पहली, मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता के घटने और और बीजेपी के प्रति लोगों का मोह और भी तेजी से कम होने की स्थिति में धार्मिक ध्रुवीकरण और हिंदुत्व राष्ट्रवाद की पुरानी चाल और दमदार तरीके से चली जाएगी.
दूसरा अगर किसी विश्वसनीय नेता के मातहत और विकास एवं सुशासन के भरोसेमंद कार्यक्रम के साथ विपक्ष एकजुट नही होता, यानी राष्ट्रीय ‘महागठबंधन’ नहीं बनता, तो वे लोग मोदी को जीत का ताज थाली में परोस कर दे देंगे. जिसे हम टीना (TINA) फैक्टर कहते हैं (देयर इज़ नो ऑल्टरनेटिव), यानी इनका कोई विकल्प ही नहीं. बोलचाल में इसके लिए दूसरा शब्द है, ‘आएगा तो मोदी ही’.
ये दोनों संभावनाएं पूरी नहीं होनी चाहिए.
(लेखक ने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक के तौर पर कार्य किया है. वह ‘फोरम फॉर अ न्यू साउथ एशिया- पावर्ड बाय इंडिया-पाकिस्तान-चीन कोऑपरेशन’ के संस्थापक हैं. @SudheenKulkarni लेखक का ट्विटर हैंडल है और उनका ईमेल एड्रेस sudheenkulkarni@gmail.com है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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