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उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के उन्नाव में एक पुलिसवाले ने एक सार्वजनिक सभा (बिल्कुल आम लोगों के एक कार्यक्रम) में जो कहा, उसे अंग्रेजी में पोएटिक इनजस्टिस कहा जा सकता है. पोएटिक इनजस्टिस के मायने बाद में... फिलहाल, यह कि उसने कहा क्या! इस सभा का नाम था, पुलिस की पाठशाला (सही में, जिसमें पुलिस के बारे में बताया जा रहा था), और पुलिसवाले ने गर्व से भरकर कहा,
यूं यह टिप्पणी उस राज्य में की गई है, जहां की सत्तारूढ़ सरकार कानून व्यवस्था की दुहाई देते हुए फिर से कुर्सी पर काबिज होने के लिए बेताब है. हालांकि इसी सरकार के एक सांसद वरुण गांधी साफ साफ कह रहे हैं कि, “जब कोई तुलना करता है, तो... यूपी के 2016 से 2020 तक के एनसीआरबी आंकड़े- यहां हत्या, अपहरण के मामले, दहेज निषेध, एससी/एसटी, एनडीपीएस के मामले सबसे ज्यादा हुए हैं. धारा 354 के तहत सबसे ज्यादा यौन उत्पीड़न के मामले दर्ज हुए हैं.”
इसके अलावा हाल ही में यूपी पुलिस ने जिस तरह दिल्ली पुलिस को बताए बिना, दिल्ली के एक परिवार को गिरफ्तार किया, उस मनमानी की निंदा दिल्ली हाई कोर्ट ने कुछ इस तरह की कि “यूपी में चलता होगा, यहां नहीं.”
लेकिन चिंता सिर्फ हमारे सबसे पुराने और सबसे बड़े राज्य बल को लेकर नहीं है, जिसमें करीब 2.5 लाख कर्मचारी हैं (यह युनाइटेड किंगडम, जर्मनी या जापान के सैनिकों की मौजूदा सेनाओं से भी काफी संख्या है). यह उस बल या राज्य के दर्जे का सवाल है जिसे खुद गृह मंत्री ‘टॉप स्पॉट’ पर बता चुके हैं. यह बात अलग है कि जूनियर गृह मंत्री खुद अपने पारिवारिक मामलों के चलते राज्य की कानून व्यवस्था में उलझे पड़े हैं.
लेकिन जब माहौल का बुरी तरह से राजनीतिकरण हो गया हो, तो धारणाएं ही सच हैं, जो सचमुच की सच नहीं हैं. इसलिए यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किससे पूछते हैं. अलग-अलग लोगों से यूपी की कानून व्यवस्था पर जवाब एकदम अलग-अलग मिलते हैं. कड़वी सच्चाई यह है कि दूसरे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में भी कानून व्यवस्था को लेकर लोगों की धारणाओं और सच्चाई में कोई बहुत फर्क नहीं है.
इसलिए सड़ांध, जैसा कि वह मौजूद है, लोकतांत्रिक तरीके से सभी जगह फैली हुई है. पुलिस बलों के व्यवस्थागत दलदल से किसी का बचना संभव नहीं- यहां तक कि उसके मुखिया, डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस यानी डीजीपी के ओहदे पर बैठे व्यक्ति को भी समझौते करने पड़ते हैं.
पंजाब जैसे राज्य में पूरे 70,000 पुलिसकर्मी हैं, हालांकि एक वह दौर भी था, जब यहां डीजीपी रैंक के 11 अधिकारी (तीन सितारा अधिकारी) हुआ करते थे, और उसकी जबरदस्त ताकत की मिसाल थे.
दूसरी तरफ सीमा पर तैनात एक अकेला आर्मी कॉर्प कमांडर (तीन सितार लेफ्टिनेंट जनरल) करीब 70,000 सैनिकों की कमान संभालता है, इसके अलावा चीनी/पाकिस्तानी दुश्मनों का भी रोजाना और सीधे-सीधे सामना करता है. लेकिन डीजीपी पद के दावेदारों को रोजाना आग के दरिया से होकर गुजरना पड़ता है. राजनीतिक तकरार, तरजीह और तरफदारियों का सामना करना पड़ता है.
लेकिन जिस परिवेश में वे अपने मातहत पुलिसकर्मियों को नियंत्रित करते हैं, उसमें शीर्ष नेतृत्व का अपना दृष्टिकोण बहुत अहम होता है. पूरे पुलिस बल की संस्कृति, मापदंड और आदर्श इसी से तय होते हैं कि आला अधिकारी का पलड़ा किस तरफ भारी है. सभी की नजरें उन पर टिकी होती हैं. डीजीपी जैसा व्यवहार करता है, उसे पूरा पुलिस बल अपने भीतर उतारता है- उसे आदर्श रूप में ग्रहण करता है.
अगर संविधान को लागू करने वाला या उसी रक्षा करने वाला अधिकारी ही राजनीतिक आकाओं के आगे घुटने टेक दे, या पक्षपात करने लगे तो पूरा दस्ता उसी तरह झुक जाता है. कोई संस्था आज की राजनीति से कितनी आजाद है, विभाजनकारी सियासत से कितनी बेपरवाह है, यही बात सशस्त्र सेनाओं और राज्य पुलिस बलों के बीच फर्क करती है. एक ही कुटुंब और परिवार के सैनिक, अलग-अलग वर्दियों में अलग-अलग बर्ताव करते हैं जोकि इस बात से तय होता है कि उनकी वर्दी राजनैतिक दखल से कितनी अछूती है.
किसी असंवैधानिक और असभ्य सामाजिक-राजनीतिक अभिव्यक्ति से खुद को अलग करने, ऐतराज जताने की हिम्मत काबिले तारीफ थी. अक्सर राज्य पुलिस बल के आला अधिकारी राजनैतिक नेतृत्व की ‘वफादारी’ करते नजर आते हैं (और जरूरी नहीं कि ऐसा वरिष्ठता, अनुभव या दूसरे पेशेवर योग्यता की वजह से किया जाए). इसका नतीजा यह होता है कि निचले ओहदे के अधिकारी डीजीपी और दूसरे उच्च अधिकारियों के नक्शे कदम पर चलने लगते हैं.
5 राज्यों में चुनाव होने वाले हैं. वहां के डीजीपी ओहदेदारों से जुड़ी कुछ अप्रिय खबरें सुन लीजिए. एक राज्य में पुलिस भर्ती में कथित अनियमितताओं के लिए पूर्व सरकार ने डीजीपी को निलंबित कर दिया था, दूसरे राज्य में डीजीपी ने अचानक अपनी मर्जी से रिटायरमेंट ले लिया (उनके आगामी चुनाव लड़ने की उम्मीद है), और एक अन्य राज्य में स्पष्ट राजनीतिक नाटकीयता देखी गई. आखिर में एक को नियुक्त किया गया. हर मामले में राजनीतिक कोण साफ है- कैसे अपनी सुविधा के लिए फैसले किए जाते हैं.
पूर्व डीजीपी (उत्तर प्रदेश, असम और बीएसएफ) और बेशक, सबसे पेशेवर और ईमानदार अधिकारियों में से एक, प्रकाश सिंह लगातार पुलिस सुधारों और संरचनागत बदलावों की वकालत करते रहे हैं, और वह सैद्धांतिक रूप से इस बात की मांग भी करते रहे हैं कि पुलिस बलों को राजनीतिक दबावों से बचाया जाना चाहिए.
पुलिस बलों को आजाद करने का ख्याल ही राजनैतिक वर्गों को कमजोर करता है, भले ही बार-बार यह बयानबाजी की जाती हो कि पुलिस के काम में दखल देना बहुत गलत है. फिर भी वफादारी का ईनाम बांटने की व्यवस्था केंद्र और राज्य स्तर पर मौजूद है, और कायम भी.
लगभग सभी राज्य डीजीपी की नियुक्ति यूपीएससी के पैनल के जरिए करने से बचते हैं. और इस तरह प्रकाश सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को नजरंदाज किया जाता है. इस सिलसिले में केंद्र अक्सर कोई कार्रवाई नहीं करता, क्योंकि उसी की राजनैतिक पार्टी की सरकार राज्य में होती है. दूसरी पार्टियां भी चुप्पी साधे रहती हैं क्योंकि सबकी अपनी अपनी कमजोरियां हैं.
यहां तक कि पुलिस सुधारों पर कोई ठोस प्रगति नहीं होने के बावजूद जनता इस बात पर मोहित रहती है कि कानून व्यवस्था सुधर गई, या वह बिगड़ती व्यवस्था पर आग बबूला हो जाती है. उसकी आंखों पर तरफदारियों का चश्मा चढ़ा रहता है और इसी से संस्थागत अवधारणा तैयार होती है.
ऐसा शायद ही कोई मामला हो, जब राज्य के राजनीतिक आकाओं ने किसी डीजीपी की गलतियों पर उंगली उठाई हो. हां, ऐसे मामले जरूर सामने आए हैं, जब उन्होंने व्यवस्था के अनुकूल माहौल तैयार किया हो, और सरकारों को सुरक्षा कवच मुहैय्या कराया हो. जब पुलिस बल खुद को राजनैतिक बंधनों से आजाद कर देंगे, तब हिरासत में मौत के सबसे बदतर रिकॉर्ड वाले राज्य भी कानून व्यवस्था के ‘टॉप स्पॉट्स’ बन जाएंगे. चूंकि फिलहाल सच्चाई तथ्यों पर आधारित नहीं है, पक्षपातपूर्ण नजरिया उसकी कसौटी है.
रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल भूपिंदर सिंह अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह और पुडुचेरी के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर रह चुके हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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