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तीन साल पहले 2015 में दिल्ली की जहरीली हवा पर द न्यूयॉर्क टाइम्स में गार्डिनर हैरिस की रिपोर्ट छपी थी. उसमें उन्होंने आठ साल के बेटे ब्रैम के जरिये यह बताया था कि दिल्ली की हवा कितनी जहरीली है. कैसे दिल्ली आने के बाद ब्रैम के फेफड़ों की क्षमता आधी हो गई है और उसकी सेहत इतनी खराब हो गई है कि स्टेरॉयड देना पड़ रहा है. बेटे की ये स्थिति देख कर उन्होंने खुद से और सबसे यह सवाल पूछा था कि कहीं अमेरिका से दिल्ली आकर उन्होंने बच्चे की सेहत के साथ समझौता तो नहीं किया है?
गार्डिनर की रिपोर्ट पर हंगामा मचा. कुछ ने उन्हें अमेरिकी एजेंट कहा तो कुछ ने उनके समर्थन में आवाज बुलंद की. नतीजा क्या हुआ? एक गंभीर विषय व्यक्ति पर आकर सीमित हो गया. यह हमारा हुनर है. हम देश से जुड़े गंभीर से गंभीर मुद्दों को राजनीति का जरिया बना देते हैं. चर्चा मुद्दे पर होने की जगह नीयत पर होने लगती है. मुद्दा पीछे चला जाता है, साजिशों के तर्क हावी हो जाते हैं. स्थिति में सुधार की संभावनाएं खत्म हो जाती हैं.
इस बार भी कुछ वैसा ही हो रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने दो दिन पहले रिपोर्ट जारी की है. रिपोर्ट के मुताबिक हवा में पीएम 2.5 (fine particulate matter 2.5) के आधार पर सबसे अधिक प्रदूषित 20 शहरों में 14 भारत के हैं. इनमें सबसे अधिक प्रदूषित कानपुर है जहां पीएम 2.5 का स्तर 173 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर दर्ज किया गया. कानपुर के अलावा फरीदाबाद, वाराणसी, गया, पटना, दिल्ली, लखनऊ, आगरा, मुजफ्फरपुर, श्रीनगर, गुरुग्राम, जयपुर, पटियाला और जोधपुर प्रदूषित शहरों की सूची में शामिल हैं. आंकड़े चौंकाने वाले हैं.
मगर किसी ने खूब कहा है कि विकास बचाव की व्यूह रचना है. उसी व्यूह रचना की तर्ज पर सरकार ने WHO की रिपोर्ट पर गौर करने की जगह सवाल उठा दिये हैं. पर्यावरण मंत्रालय के मुताबिक स्थिति उतनी खतरनाक नहीं है जितनी बताई जा रही है. मंत्रालय का दावा है कि सरकार ने वायु प्रदूषण से निपटने के लिए कई गंभीर कदम उठाए हैं और उनकी वजह से 2017 में हवा के स्तर में सुधार हुआ है. लेकिन हाल के दिनों में जितने भी शोध हुए हैं वो सरकारी दावे से उलट WHO की रिपोर्ट को ही सही ठहराते हैं.
9 फरवरी, 2017 को येल यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर वैष्णवी चंद्रशेखर की रिपोर्ट छपी थी. उसमें इंडिया स्पेंड की स्टडी का जिक्र किया गया था. उस स्टडी के यह बात सामने आयी थी कि पूरे देश में वाराणसी की हवा सर्वाधिक जहरीली है. उसके बाद उत्तर भारत के तीन अन्य शहरों इलाहाबाद, पटना और कानपुर का नंबर आता है. बनारस में 227 दिन तक निगरानी की गई और एक भी दिन हवा राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता के मानकों पर खरी नहीं उतरी.
वैष्णवी की रिपोर्ट में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीटरोलॉजी (आईआईटीएम) और कोलोराडो के नेशनल सेंटर फॉर एट्मॉस्फिरिक रिसर्च के शोध का भी जिक्र किया गया था. उस शोध के मुताबिक प्रदूषण की वजह से दिल्ली में रहने वालों की औसत उम्र 6.3 वर्ष कम होने का अनुमान है, जबकि पूरे देश के लोगों की आयु में औसतन 3.4 वर्ष की कमी दर्ज की जा सकती है. कुछ ऐसे ही नतीजे मेडिकल जर्नल द लांसेट के शोध में सामने आए थे. द लांसेट के मुताबिक 2015 में भारत में प्रदूषण से 25 लाख लोगों की मौत हुई थी.
2015 में इंडियन एक्सप्रेस में एक खबर प्रकाशित हुई थी. उसके मुताबिक कुछ साल पहले कोलकाता के चितरंजन नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट (सीएनसीआई) ने दिल्ली के 36 स्कूलों में रिसर्च किया था. इसमें तीन साल तक 4-17 साल की उम्र के बच्चों पर नजर रखी गई. रिसर्च के आंकड़े चौंकाने वाले थे.
आंकड़ों के मुताबिक:
प्रदूषण की वजह से फेफड़ों पर पड़ने वाला असर स्थायी होता है. मतलब इसकी गुंजाइश बहुत कम थी कि फेफड़ों की क्षमता घटने के बाद भविष्य में उसमें पूरी तरह सुधार लाया जा सके.
इसका सीधा मतलब है कि उस समय राजधानी में पढ़ने वाले 44 लाख बच्चों में आधे से थोड़े कम बच्चों से फेफड़ों को कभी न ठीक होने वाला नुकसान पहुंच रहा है.
सीएनसीआई के इस शोध को प्रदूषण बोर्ड ने कमीशन किया था और उसने तमाम सुझावों के साथ अपनी 2010 में सीपीसीबी को सौंप दी. लेकिन उन सुझावों पर अमल करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई.
वैष्णवी चंद्रशेखर की रिपोर्ट के मुताबिक इसकी कई वजहें हैं.
1. उत्तर भारत के मैदानी इलाके एक तरफ से हिमालय से घिरे हुए हैं. ये लैंड लॉक्ड हिस्सा है. यहां हवा की गति कम हो जाती है. इससे जहरीली हवा बाहर नहीं निकलती. दक्षिण भारत में हवा का प्रवाह तेज रहता है. दोनों तरफ समुद्र होने के कारण हवा में गति रहती है और प्रदूषण का उतना असर देखने को नहीं मिलता.
2. उत्तर भारत के गंगा बेसिन में देश की करीब 40 प्रतिशत आबादी रहती है. यहां ज्यादातर लोग आज भी लकड़ी और गोबर से बने उपलों के जरिए खाना बनाते हैं. इससे काफी प्रदूषण फैलता है.
3. नासा के आंकड़ों के मुताबिक 2005 से 2014 के बीच दक्षिण एशिया में वाहनों, बिजली संयंत्रों और अन्य उद्योगों से नाइट्रोजन डाइऑक्साइड भारी मात्रा में निकली. इसमें सबसे अधिक बढ़ोत्तरी गंगा के मैदानी इलाकों में दर्ज की गई. उसी अंतराल में कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों में काफी इजाफा हुआ. इससे हवा में सल्फर डाइऑक्साइड की मात्रा दोगुनी हो गई.
4. प्रदूषण पर मौसम का असर भी प्रत्यक्ष तौर पर देखा जा सकता है. मार्च से जून के बीच थार रेगिस्तान की धूल तेज हवाओं में घुल जाती है. सर्दियों में धूल, धुआं, नमी सबकुछ घुल-मिल कर प्रदूषण को चरम पर पहुंचा देते हैं.
5. सर्दियों से ठीक पहले धान की फसल कटती है. खेतों को साफ करने के लिए किसान पराली (धान कटने के बाद बचा हुआ हिस्सा) जला देते हैं. आंकड़ों के मुताबिक देशभर में करीब 50 करोड़ टन पराली निकलती है. इसमें से करीब 9 टन पराली खेतों में जला दी जाती है. यह चलन पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक देखने को मिलता है.
6. रिसर्च के मुताबिक पराली जलाने से सतह पर ओजोन का स्तर बढ़ जाता है. ये हमारी सेहत के साथ-साथ खेती के लिए भी खतरनाक है.
7. शोध के मुताबिक उत्तरी भारत में फैलने वाले हेज (धुएं और धुंध का मिश्रण) से मानसून पर भी असर पड़ रहा है. हेज में दो तरह के एयरोसोल पाए जाते हैं. पहली किस्म सल्फेट और नाइट्रेट की है. ये सूरज की किरणों को पूरी तरह लौटा देते हैं. इसकी वजह से वातावरण का तापमान कम होता है. जबकि ब्लैक कार्बन सूरज की सारी किरणों को सोख लेता है. इससे तापमान बढ़ता है. पराली जलाने से हेज में ब्लैक कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है.
इससे तापमान बढ़ जाता है. तापमान बढ़ने का एक असर यह है कि उत्तर भारत में मानसून से पहले की बारिश ज्यादा होती है और मध्य भारत में सूखा देखने को मिलता है. भारत में किसान खेती के लिए बरसात पर निर्भर रहते हैं. ऐसे में यह भारत के लिए खतरनाक है. नासा ने भी हाल ही में भारत और चीन में एयरोसोल की एक परत की मौजूदगी की पुष्टि की है.
प्रदूषित शहरों की सूची में श्रीनगर का शामिल होना थोड़ा अधिक हैरान करता है, लेकिन इसकी अपनी वजह है. 2015 में आईआईटीएम और कश्मीर यूनिवर्सिटी में मिल कर एक स्टडी की थी. उसमें पाया गया कि सर्दियों में श्रीनगर की हवा में जहर घुल जाता है. खुद को गरम रखने के लिए लोग बड़ी मात्रा में कोयला, चारकोल और लकड़ियां जलाते हैं. हिमालय की गोद में होने के कारण सारा धुआं श्रीनगर में ठहरा रहता है.
प्रदूषण की वजह से दुनिया के प्रत्येक 10 में 9 व्यक्ति जहरीली हवा में सांस ले रहा है. 2016 में जहरीली हवा से 80 लाख लोगों की मौत हुई. इनमें से बाहरी वायु प्रदूषण से 42 लाख लोगों ने असमय दम तोड़ा. जबकि घरों में मौजूद जहरीली हवा ने 38 लाख लोगों की जान ली. दरअसल दुनिया में गरीबी इतनी अधिक है कि अब भी तीन अरब लोग ऐसे घरों में रहते हैं जहां खाना लड़की के चूल्हे पर या फिर किरासन तेल के चूल्हे पर बनाया जाता है. बिजली नहीं पहुंचने की वजह से करोड़ों घरों में अब भी लोग लालटेन और डिबरी से रोशनी करते हैं. ऐसे घरों की हवा जहरीली हो जाती है और लंबे समय में जानलेवा साबित होती है.
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इन सभी तथ्यों पर गौर किया जाए तो विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट और उससे पहले हुए तमाम शोध यही जाहिर करते हैं कि उत्तर भारत की हवा में इतना जहर घुल चुका है कि यहां रहना मौत को दावत देना है. लेकिन लोग इतने मजबूर हैं कि यहां से बाहर जा नहीं सकते. इसलिए सरकार को चाहिए कि WHO की रिपोर्ट को खारिज करने की जगह प्रदूषण से निपटने की व्यापक रणनीति बनाए. यह करोड़ों लोगों की जिंदगी का सवाल है. कम से कम इस पर राजनीति नहीं होनी चाहिए.
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