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'अतीत में लिए गए खराब निर्णय हमें उनके माध्यम से जकड़ते हैं जो लोग बदलाव को स्वीकार करने से डरते हैं.'
यह कथन किम स्टेनली रॉबिन्सन की किताब 'द मिनिस्ट्री फॉर द फ्यूचर' से लिया गया है. जिस तरह से समय से पहले असाधारण रूप से हीटवेव भारत और इसके पड़ोसियों पर मंडरा रही है उसे देखते हुए यह काल्पनिक बात आज के दौर में वक्त से पहले ही लगभग हकीकत बन रही है.
इस जलवायु परिवर्तन का तात्कालिक परिणाम वर्तमान बिजली संकट है जिसके कारण भारत के कई राज्यों में घंटों बिजली गुल रहती है. हालांकि, यही एकमात्र कारण नहीं है : कोयले की कमी, बकाया राशि का भुगतान न होना और मांग में वृद्धि जैसे कारण भी बिजली संकट को बढ़ाते हैं.
तो ऐसे में हम यहां वापस क्यों आते रहते हैं? क्या इस समस्या का कोई समाधान है? आने वाले महीनों में बिजली कटौती का संकट कितना विकराल होने वाला है? हम इन सभी के बारे में विस्तार से बता रहे हैं.
अक्टूबर 2021 में देश ने बिजली संकट का सामना किया था. इस बात को बीते हुए बमुश्किल पांच-छह महीने हुए हैं और हम फिर से उसी संकट का सामना कर रहे हैं. एक बार फिर विभिन्न राज्यों में बिजली की कमी देखने को मिलने लगी है. वहीं कहर बरपाती गर्मी की वजह से बिजली की मांग में वृद्धि हो रही है. ऐसे में आने वाले दिनों में गर्मियों को देखते हुए चिंताएं बढ़ रही हैं.
बिजली उत्पादन संयंत्र यानी पावर जनरेशन प्लांट क्यों बढ़ी हुई मांग को पूरा नहीं कर पा रहे हैं? इस पर बात करते हुए एक्टिविस्ट और वकील सुदीप श्रीवास्तव ने क्विंट से कहा कि
'सुधारात्मक उपाय' की बात करें तो इसी सप्ताह केंद्रीय ऊर्जा मंत्री आरके सिंह की अध्यक्षता में एक बैठक हुई, जिसमें मंत्री ने घरेलू कोयले की बढ़ती मांग के दवाब को कम करने के लिए सभी कंपनियों से अपने आयात-आधारित पावर प्लांटों को पूरी क्षमता से संचालित करने के लिए कहा.
इस बारे में श्रीवास्तव कहते हैं कि 'उन्होंने पावर प्लांटों में पूरी क्षमता से आयातित कोयले का इस्तेमाल करने के बारे में कहा है लेकिन बढ़े हुए शुल्क का क्या? आयातित कोयले के इस्तेमाल से चार्ज हाई हो जाएंगे और यह बढ़े हुए शुल्क उपभोक्ताओं की ओर ट्रांसफर कर दिए जाएंगे. रेग्युलेटरी कमीशन यानी नियामक आयोग इन हाई चार्ज को समायोजित करने जा रहा है. इसका मतलब यह हुआ कि टाटा मुंद्रा, अदानी मुंद्रा और आयातित कोयले पर आधारित अन्य पावर प्रोजेक्ट्स को कोई नुकसान नहीं होने वाला है.'
सरकार ने यह निर्णय लिया है कि यदि आयातित कोयले की कीमतें (वर्तमान में लगभग 326 डॉलर प्रति टन के आसपास) पूर्व-कोविड स्तर से ऊपर रहती हैं, तो आयातित कोयले की पूरी लागत को दिसंबर 2022 तक 90 डॉलर की सीमा के बिना पास-थ्रू के रूप में अनुमति दी जाएगी.
श्रीवास्तव के अनुसार कमी का एक अन्य अहम कारण लॉजिस्टिक भी है : पिटहेड्स से बिजली संयंत्रों तक कोयला ले जाने के लिए रेलवे पर पर्याप्त वैगन नहीं हैं.
बारिश के मौसम के बाद कोयले की कमी आम है, लेकिन ऐसा क्या है जो पिछले साल की तुलना में इस साल बदल गया है? इसका जवाब है बढ़ती गर्मी. इस साल की गर्मी पिछले साल की तुलना में अधिक है.
उदाहरण के लिए बीते 11 अप्रैल को दिल्ली में जब तापमान 42.6 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया तब राष्ट्रीय राजधानी में 72 साल का रिकॉर्ड टूट गया.
क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क साउथ एशिया के निदेशक संजय वशिष्ठ ने क्विंट को बताया
वशिष्ठ कहते हैं कि 'यह स्पष्ट है कि उच्च तापमान के परिणाम स्वरूप बिजली की मांग में वृद्धि हुई है. वहीं अधिक खपत के कारण आवश्यक कोयले की मांग भी बढ़ गई है. '
कोल पावर प्लांट्स की सबसे बड़ी समस्या का जिक्र करते हुए वशिष्ठ बताते हैं कि 2015 में जब सूखा पड़ा था तब कोयला आधारित पावर प्लांट्स को सबसे ज्यादा मुश्किलों का समाना करना पड़ा था. आगे भी यह समस्या आना तय है क्योंकि ऊर्जा उत्पादन के लिए गर्मियों के दौरान पानी की कमी है.
ऐसे में भले ही बिजली उत्पादन के लिए हमारे पास पर्याप्त मात्रा में कोयला हो, लेकिन पानी की कमी से बिजली के उत्पादन में कमी होगी.
श्रीवास्तव कहते हैं कि 'यदि बड़े शहर में दो घंटे बिजली गुल रहती है तो हंगामा हो जाता है, लेकिन अभी भी असल व अहम मुद्दे की अनदेखी की जा रही है.'
श्रीवास्तव कहते हैं कि "सरकार को यह करना चाहिए कि पहले वे कोयले से बचें. अगर यह संभव न हो तो इसका कम से कम उपयोग करें. अगर यह भी संभव न हो, तो कोयले को जलाएं, लेकिन जंगलों को काटकर कोयला न लें."
उन्होंने जोर देकर कहा कि "85 प्रतिशत भारतीय कोयला ऐसे क्षेत्रों के नीचे है जहां घना जंगल नहीं है, केवल 15 प्रतिशत कोयला घने जंगलों के नीचे है. फिर भी आप वहां खनन कर रहे हैं."
'सरकार ने इस कदर रायता फैलाया है कि अगर आज वे दो घंटे की कटौती को पूरा कर भी देती है तो कल 4 घंटे की कटौती होगी. हमें तात्कालिक के बजाय दीर्घकालिक समाधानों की योजना बनाने की जरूरत है.'
इस बीच, श्रीवास्तव ने नवीकरणीय ऊर्जा, विशेष रूप से सौर ऊर्जा के लिए भारत की प्रतिबद्धता के बारे में बताते हुए कहा :
श्रीवास्तव एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि 'कोयले के लिए कुल स्थापित (उत्पादन) क्षमता 56 प्रतिशत है - लेकिन उत्पन्न बिजली (कोयला बिजली से खपत) 76 प्रतिशत है. स्थापित क्षमता कम है, लेकिन उत्पादन से खपत ज्यादा है, जिसका मतलब यह है कि नवीकरणीय ऊर्जा से उत्पादन की क्षमता होने के बावजूद, इसका उपयोग कम किया जाता है.'
वे आगे कहते हैं कि "अगर सौर और पवन के लिए मौजूदा स्थापित क्षमता को अभी कोयले के स्तर तक लाया जाता है तो कोई संकट नहीं होगा. ऊर्जा एक ऐसी चीज है जिसे संग्रहीत नहीं किया जा सकता है और इसकी कमी कभी भी हो सकती है."
कोल माइनिंग कंपनियों से लेकर पावर जनरेशन प्लांट और पावर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों तक हर कोई बकाया भुगतान न होने की वजह से जूझ रहा है.
मनीकंट्रोल की रिपोर्ट के अनुसारपावर जनरेटिंग कंपनियों पर पावर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों (डिस्कॉम) का 1.1 लाख करोड़ रुपये से अधिक का बकाया है, लेकिन इसके बावजूद भी वे उन्हें बिजली बेचना जारी रखे हुए हैं.
इसी तरह पावर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों (डिस्कॉम) को 5 लाख करोड़ रुपये से अधिक का घाटा हुआ है और 1.25 लाख करोड़ रुपये की नियामक संपत्तियां, जो भविष्य के टैरिफ संशोधनों के माध्यम से वसूली के लिए आस्थगित लागतों को दर्शाती हैं. इसके बावजूद, कभी-कभार बिजली कटौती करते हुए वे ग्राहकों को बिजली प्रदान करना जारी हुए हैं.
ICRA में सीनियर वाइस प्रेसिडेंट और सह-समूह प्रमुख कॉर्पोरेट रेटिंग, गिरीशकुमार कदम के बयान के अनुसार :
आमतौर पर जब सिस्टम की क्षमता से परे मांग होती है तब पूरे सिस्टम की ट्रिपिंग को रोकने के लिए लोड शेडिंग की जाती है. किसी भी बिजली-वितरण प्रणाली के कुछ क्षेत्रों में जानबूझकर बिजली बंद करना ही लोड शेडिंग कहलाता है.
इस बीच सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी (CEA) ने कहा कि कोयले से चलने वाले 150 घरेलू बिजली संयंत्रों में से 86 के पास औसत जरूरत का 25 फीसदी से भी कम औसत स्टॉक है.
कोल इंडिया और उसकी सहायक कंपनियों से कम आपूर्ति को बिजली की कमी का मुख्य कारण बताया गया है.
इस समय उत्तर प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, हरियाणा, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश देश में सबसे लंबे समय तक होने वाली बिजली कटौती की समस्या का सामना कर रहे हैं.
बिजली की कमी का सामना कर रहे 12 राज्यों में आंध्र प्रदेश की स्थिति सबसे विकट है. सीएनबीसी के अनुसार, राज्य ने अपनी औद्योगिक आपूर्ति में 50 प्रतिशत की कमी की है और घरेलू उपयोगकर्ताओं के लिए बड़े पैमाने पर बिजली कटौती की है.
इस बीच गुजरात ने अपनी 500 मेगावाट की कमी को पूरा करने के लिए उद्योगों को सप्ताह में एक बार बंद रहने को कहा है. पिछले 2-3 हफ्तों से महाराष्ट्र 3 हजार मेगावाट से अधिक की बिजली की कमी का सामना कर रहा है और आउटपुट में कटौती के लिए कुछ उत्पादकों को दोष दे रहा है.
क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क साउथ एशिया के डायरेक्टर संजय वशिष्ठ ने क्विंट को बताया कि
संभावित दीर्घकालिक समाधानों पर बात करते हुए वशिष्ठ ने कहा कि 'अबतक केंद्रीकृत ऊर्जा भारत में प्रमुख मॉडल है जिसमें मूल रूप से कोयला आधारित पावर प्लांट ग्रिड को बिजली प्रदान करते हैं और फिर वितरण कंपनियां इसे लेती हैं और वितरित करती हैं.'
इस संकट से निपटने के लिए वे कहते हैं कि 'भारत को एक विकेन्द्रीकृत प्रणाली की आवश्यकता है. जैसे कि एक रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन के तहत एक सौर ऊर्जा संयंत्र की स्थापना. या हम समुद्र के किनारे एक विंड टरबाइन स्थापित कर सकते हैं जो बैटरी चार्ज करेगी और जिससे बिजली की कमी की भरपाई हो सकेगी.'
वशिष्ठ आगे कहते हैं कि 'मेरी राय के अनुसार हर घर में कुछ सोलर पावर प्लांट होने चाहिए. यह इनवर्टर की तरह होते हैं, अंतर यह होगा कि इन्हें ग्रिड से आने वाली बिजली से चार्ज किये जाने के बजाय, सौर ऊर्जा से चार्ज किया जाएगा. यह अंतर को पाटने में अहम योगदान दे सकते हें.'
गर्मियां अभी चरम पर हैं. घरेलू कोयला उत्पादन और ऊर्जा उत्पादन को तब तक नुकसान होता रहेगा जब तक कि भुगतान संबंधी समस्याओं का समाधान नहीं किया जाएगा.
इसके अलावा तथाकथित 'कोयले की कमी' और बिजली कटौती अस्थायी हैं. किंतु हीटवेव नहीं हैं. भारत को नवीकरणीय ऊर्जा की दिशा में ले जाते समय कोयले को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की जरूरत है जो कोयले की समान मांग से मेल खाते हुए अवश्यकाताओं को पूरा कर सके.
और अंत में अगर भारत स्थायित्व की अनदेखी करते हुए विकास का पीछे भागता रहेगा तो, तो हीटवेव केवल बदतर होती जाएगी.
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