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गुणवत्तापूर्ण पब्लिक हेल्थकेयर की बढ़ती मांग के बावजूद, पूरे भारत में इसका बुनियादी ढांचा और उपलब्धता अब भी बेहद अपर्याप्त है. मध्यम वर्ग और शहरी अमीर तबका स्वास्थ्य बीमा के जरिए प्राइवेट हेल्थकेयर सिस्टम का इस्तेमाल कर सकते हैं, मगर ज्यादातर भारतीय, गरीबी रेखा (BPL) से नीचे माने जाने वाले लोग और खासकर गांवों व दूरदराज के इलाकों में रहने वाले, सरकारी हेल्थकेयर सिस्टम पर निर्भर हैं. ये लोग तमाम सरकारी बीमा योजनाओं में सिर्फ आंशिक रूप से ही कवर होते हैं.
भारत में कुल सरकारी खर्च में हेल्थकेयर पर खर्च हिस्सा सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का बहुत मामूली सिर्फ 2.9 फीसद है, जो दुनिया भर के ज्यादातर आर्थिक रूप से विकसित देशों के मुकाबले में बेहद कम है.
कोरोना महामारी ने गांवों और शहरी इलाकों के साथ-साथ सरकारी और निजी हेल्थकेयर सिस्टम में हेल्थकेयर की क्वालिटी के बड़े फर्क को उजागर कर दिया. हम देश के सरकारी हेल्थकेयर सिस्टम के सामने आने वाली चुनौतियों की जटिल प्रकृति और उपलब्धता, समान वितरण और गुणवत्ता सुनिश्चित करते हुए सबको बेहतर सेवा सुनिश्चित कर पाने में नाकामी के मसलों को शामिल करते हुए तथ्यों पर गौर करेंगे.
भारत की बुजुर्ग आबादी पर UNFPA (संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष) ताजा रिपोर्ट में आकलन पेश किया गया है कि 2050 तक भारत की वृद्ध आबादी 0-14 आयु वर्ग की आबादी से ज्यादा होगी. देश के खस्ताहाल हेल्थकेयर सिस्टम को देखते हुए फौरन ऐसी नीतियां और रणनीतियां बनाने की जरूरत है, जो भारत की वृद्ध आबादी की समस्याओं का समाधान करने में मदद करने वाली हों.
इन नीतियों में सोशल सपोर्ट और बुजुर्गों की गंभीर बीमारियों में देखभाल पर जोर देते हुए सरकारी स्वास्थ्य खर्च में बढ़ोत्तरी होनी चाहिए.
जापान के सोशल हेल्थ इंश्योरेंस मॉडल और चीन के पब्लिक हेल्थ इंश्योरेंस मॉडल की कामयाबी की कहानियां इस संकट से उबरने का उपाय तलाश रहे भारत को रास्ता दिखा सकती हैं.
नीति निर्माता केरल की बुजुर्गों की देखभाल की नीति पर भी गौर कर सकते हैं, जो काफी समय से सामुदायिक भागीदारी, जवाबदेही और सेवाओं में सुधार के जरिये बीमार लोगों को देखभाल मुहैया करा रही है.
केरल की नीति (Kerala State Palliative Care Policy 2019) के तहत सफलतापूर्वक बुजुर्गों की देखभाल करने वाली अभी तक 1,550 इकाइयां स्थापित की जा चुकी हैं, जिनमें से 450 का प्रबंधन नागरिक संगठनों द्वारा किया जाता है. इस नीति ने 26 फीसद से ज्यादा आबादी को देखभाल की सेवा मुहैया कराई है, जो 14 फीसद के वैश्विक औसत से काफी ज्यादा है.
हालांकि, दूसरे भारतीय राज्यों के मामले में ऐसा नहीं है, जहां केवल 2 फीसद प्रभावित आबादी को वह मदद मिलती है जिसकी उन्हें जरूरत है. अब समय आ गया है कि बाकी देश समुदाय आधारित बुजुर्गों की स्वास्थ्य देखभाल के विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त मॉडल से सबक ले. केंद्र सरकार के हेल्थ बजट में बढ़ोत्तरी कर भारत के लिए एक बड़ी समस्या से बाहर निकलने का यही इकलौता रास्ता दिखाई देता है.
किसी भी देश में चाक-चौबंद नीति की पड़ताल और हेल्थकेयर मुहैया कराने की जांच करना तभी संभव है जब उसका भरपूर और सटीक डेटा संग्रह मॉडल तैयार हो. निम्न और निम्न-मध्यम आय वाले देश अक्सर अधूरे और बेकार स्वास्थ्य डेटा संग्रह से जूझते हैं, जिससे स्वास्थ्य नीति के लिए चुनौतियां पेश आती हैं. भारत ने इस समस्या को 2002 में अपनी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति से दूर करने की कोशिश की, हालांकि यहां अभी भी गैर-संचारी रोगों, चोटों और जिला-स्तरीय जानकारी पर अपर्याप्त डेटा जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.
भारत में हेल्थकेयर पर अपनी जेब से खर्च (Out-of-pocket expenditure या OOPE) एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है, जिससे खासतौर से सबसे कम आय वर्ग के परिवारों के गरीब हो जाने का बड़ा खतरा पैदा हो गया है. स्वास्थ्य पर अपनी जेब से भारी खर्च सालाना लगभग 5.5 करोड़ भारतीयों को गरीब बना रहा है, हर साल 17 फीसद से ज्यादा परिवारों को स्वास्थ्य खर्च से आने वाली तबाही का सामना करना पड़ रहा है.
अपनी जेब से किया जाने वाला खर्च भारतीय राज्यों में काफी अलग-अलग है, उत्तर प्रदेश, झारखंड, आंध्र प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पंजाब और पश्चिम बंगाल सहित कई राज्य राष्ट्रीय औसत से ऊपर हैं. हालांकि केरल अपनी स्वास्थ्य-संबंधी मजबूत व्यवस्थाओं और प्रति व्यक्ति पर्याप्त सरकारी स्वास्थ्य खर्च की वजह से अलग खड़ा है, जो एक अनोखी स्थिति का उदाहरण पेश करता है.
भारत के ज्यादातर हिस्सों की तरह राजस्थान में भी अपनी जेब से खर्च (OOPE) एक बड़ी चिंता का विषय रहा है, जिससे परिवारों पर हेल्थकेयर की लागत का बोझ बढ़ रहा है. इस मसले का समाधान करने के मकसद से राजस्थान में हाल में बनाया गया स्वास्थ्य का अधिकार कानून OOPE को कम करने और हेल्थकेयर सुविधाओं तक सबकी पहुंच सुनिश्चित करने की जरूरत को पूरा करता है.
यह कानून राजस्थान के निवासियों को जरूरत पड़ने पर फौरन भुगतान किए बिना इमरजेंसी ट्रीटमेंट और सरकारी स्वास्थ्य संस्थानों में मुफ्त स्वास्थ्य सेवा की गारंटी देता है. यह भविष्यगामी कदम व्यक्तियों और परिवारों पर वित्तीय दबाव को कम करने की क्षमता रखता है, और राजस्थान राज्य में बेहतर हेल्थकेयर की उपलब्धता और लोगों के सेहतमंद रहने में मददगार होगा.
भारत ने 2012 में अपनी बारहवीं पंचवर्षीय योजना से यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज की दिशा में कोशिश शुरू की, जिसमें हेल्थकेयर की उपलब्धता, गुणवत्ता और लोगों को इसके लिए समर्थ बनाने पर ध्यान केंद्रित किया गया.
2018 में लॉन्च की गई आयुष्मान भारत योजना ने वेलनेस इनिशिएटिव और बीमा कवरेज के माध्यम से प्राइमरी केयर उपलब्ध कराके इस प्रतिबद्धता को मजबूत किया. इस योजना में आर्थिक रूप से कमजोर 10.74 करोड़ आबादी शामिल है, जो सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (SECC) डेटा के अनुसार शहरी कामगारों की कामकाजी श्रेणियों में आती है.
इस योजना में नेशनल हेल्थ प्रोटेक्शन मिशन के तहत पहले से चल रही केंद्र प्रायोजित योजनाओं- राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (RSBY) और वरिष्ठ नागरिक स्वास्थ्य बीमा योजना (SCHIS) को मिला दिया जाएगा.
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन सरकारी हेल्थकेयर खर्च में बढ़ोत्तरी की वकालत करती है, जबकि इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) बायोमेडिकल रिसर्च, इनोवेशन और ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेंट पर ध्यान केंद्रित करती है, हालांकि यह संस्था कोविड-19 महामारी से निपटने के तरीके के साथ ही दवा की सिफारिशों पर सवालिया फैसले और वेरिएंट से संबंधित डेटा में पारदर्शिता की कमी को लेकर यह आलोचनाओं के घेरे में है.
आगे बढ़ते हुए देखें तो, भारत की हेल्थकेयर की चुनौतियों का समाधान करना देश की आबादी के सेहतमंद रहने और इसकी वैश्विक आकांक्षाओं के लिए जरूरी है. हेल्थकेयर की उपलब्धता, गुणवत्ता और समान वितरण में गंभीर खामियां हैं और इन्हें दुरुस्त करने के लिए फौरन कदम उठाने की जरूरत है.
यूनिवर्सल हेल्थकेयर और अवसर की बेहतर समानता और गुणवत्ता की दिशा में भारत के सफर के लिए निरंतर प्रतिबद्धता और कार्रवाई की जरूरत है. स्वच्छ भारत और आयुष्मान भारत जैसी हालिया योजनाओं ने नींव तैयार कर दी है, लेकिन सही तरीके से अमल भी जरूरी है.
प्रभावी योजना और अमल के लिए, एक वैधानिक कानूनी ढांचा बेहद जरूरी है, और पांचवें हिस्से में इसका पता लगाया गया है. भारत जबकि दुनिया में पहचान हासिल करना और विश्वगुरु का दर्जा पाना चाहता है, इसके हेल्थकेयर के मोर्चे पर प्रदर्शन और लोगों की अच्छी सेहत का देश की वित्तीय और आर्थिक विकास प्राथमिकताओं के साथ मजबूती से तालमेल बिठाने की जरूरत है. सभी नागरिकों के लिए सस्ती, गुणवत्तापूर्ण पब्लिक हेल्थकेयर सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना इस बजट और दीर्घकालिक वित्तीय विकास के रोडमैप में सरकार का मुख्य फोकस होना चाहिए.
[दीपांशु मोहन अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज (CNES) के डायरेक्टर हैं. वह फिलहाल लंदन यूनिवर्सिटी के बिर्कबेक कॉलेज में रिसर्च फेलो हैं. सम्राग्नि चक्रवर्ती और हिमा तृषा एम सीनियर रिसर्च असिस्टेंट्स हैं, और अदिति देसाई, अमिषा सिंह और नित्या अरोड़ा अनुसंधान सहायक (CNES) हैं. लेखक पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट्स ANT के सह-संस्थापक डॉ. सुनील कौल, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ. इंद्रनील मुखोपाध्याय और सीनियर डेवलपमेंट कंसल्टेंट मुरारी मोहन गोस्वामी को उनके लगातार समर्थन और मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद देना चाहता है. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखक के अपने विचार हैं. क्विंट हिंदी इनके लिए जिम्मेदार नहीं है.]
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