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कश्मीर के पुलवामा में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के 40 जवानों का आतंकवादी हमले में मारा जाना करीब 9 साल पहले हुए उस छापामार हमले की याद दिलाता है, जिसमें इसी अर्धसैनिक बल के 76 जवान मारे गए थे. देश ने कभी किसी दूसरे मुल्क के साथ जंग में भी इतने जवानों को एक दिन में नहीं खोया था. पुलवामा की घटना इसी कड़ी में दूसरा सबसे बड़ा हमला है.
इसे इत्तेफाक कहें या हमलावरों की रणनीति कि जवानों पर हुए इन दो बड़े हमलों में सीआरपीएफ ही निशाने पर रहा. लेकिन इन दोनों ही हमलों में कुछ भिन्नतायें और कुछ समानताएं हैं. हमले को लेकर आ रही प्रतिक्रियाओं को लेकर भी यही बात कही जा सकती है.
कश्मीर में सीआरपीएफ पर ये ताजा हमला पुलवामा में किया गया, जो सरहदी राज्य जम्मू और कश्मीर में है, जबकि सीआरपीएफ पर 6 अप्रैल 2010 का वो हमला सरहद पर नहीं, बल्कि देश के बीचोंबीच हुआ था. बस्तर के हेडक्वार्टर जगदलपुर से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर सुकमा के जंगलों में.
पुलवामा हमले की जिम्मेदारी आतंकवादी संगठन जैश ए मोहम्मद ने ली है, जबकि सुकमा के ताड़मेटला में हुए हमले को माओवादियों की पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) ने अंजाम दिया.
सीआरपीएफ पर हुआ वह नक्सली हमला इतना दुस्साहसी था कि जब 9 साल पहले 6 अप्रैल की सुबह वह खबर आई, तो कई चैनलों में शुरुआती जानकारी यह दी गई कि जंगल में करीब 1000 नक्सलियों ने हमला किया है. हालांकि उसी हमले में शामिल रहे स्थानीय नक्सली बदरू (जो अब समर्पण कर चुका है) ने मुझे बाद में बताया कि हमला केवल 200 नक्सलियों ने ही अंजाम दिया.
सीआरपीएफ सेना का हिस्सा नहीं है और वह एक अर्धसैनिक बल है, लेकिन इसी पुलिस बल ने पिछले कुछ सालों में बहुत अधिक जानें गवाईं हैं. सीआरपीएफ की बटालियनों पर छत्तीसगढ़ जैसे इलाके में नक्सलियों के छापामार हमलों का सामना करने की जिम्मेदारी है जो शायद कश्मीर से कहीं अधिक कठिन लड़ाई है, क्योंकि अन्धे जंगल में हमला कब कहां से हो, अक्सर पता नहीं चलता. इन जंगलों में माओवादियों के मुखबिरों का नेटवर्क कश्मीर जैसे रणक्षेत्र से कहीं अधिक घना होता है.
कश्मीर में पिछले कुछ सालों में आतंकवादी गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई है. माओवादी हिंसा का वो एक ऐसा दौर था जब पीएलजीए सीआरपीएफ पर एक के बाद एक तड़ातड़ हमले कर रही थी. उस साल (2010 में) नक्सलियों ने बस्तर में ही अप्रैल से लेकर जून के बीच 100 से अधिक जवानों को घेर कर मारा. ताड़मेटला के बाद बीजापुर और फिर नारायणपुर जिले के धौड़ाई कैंम्प के 26 जवानों को माओवादियों के हाथ जान गंवानी पड़ी. तब संसद में ये मांग तक उठ गई थी कि सेना को माओवाद से मुकाबले के लिये भेजा जाना चाहिए.
उस वक्त अप्रैल 2010 के हमले को कवर करते वक्त साफ दिखा था कि जंगलों में तैनात सीआरपीएफ के जवानों को न तो गुरिल्ला ट्रेनिंग मिली थी और न उनके पास इतने अत्याधुनिक हथियार थे. एक माओवादी कमांडर ने मुझे इंटरव्यू में कहा था कि सीआरपीएफ उनके लिए सबसे आसान शिकार है, जबकि वह स्थानीय कोया कमांडो (आदिवासी लड़कों से बनी फोर्स) से सबसे अधिक परेशान रहते हैं. इसकी वजह यह कि सीआरपीएफ को आदिवासियों की भाषा समझने के साथ साथ जंगल के रास्तों का अंदाजा अक्सर नहीं होता और उन्हें जाल में फंसाना आसान था जबकि कोया कमांडो चप्पे चप्पे से वाकिफ थे.
बस्तर में वह दौर ऑपरेशन ग्रीनहंट का था और तब मैंने इस संघर्ष को बहुत करीब से कवर करने के साथ साथ माओवादियों से कई बार उनके कैंपों में जाकर बात की और सीआरपीएफ के जवानों की दिक्कतों को करीब से जाना.
कश्मीर की कहानी अक्सर लोगों के सामने आ जाती है लेकिन बस्तर और झारखंड जैसे इलाकों में यह अर्धसैनिक बल सिर्फ एक अदृश्य हमलावर से ही नहीं लड़ते, बल्कि चिलचिलाती धूप में घंटों प्यासे चलने, अंधे जंगल में रास्ता खो जाने और मलेरिया या दिमागी बुखार जैसी खतरनाक बीमारियों की चुनौती से भी जूझते हैं जिसकी रिपोर्टिंग अक्सर होती ही नहीं.
सीआरपीएफ के ट्रेंड कोबरा कमांडो, जिन्हें इसी छापामार लड़ाके के खिलाफ ट्रेनिंग दी गई थी, इस संघर्ष में बहुत देर से और बहुत सीमित इलाकों में ही उतारे गए. ताड़मेटला के हमले के वक्त घटनास्थल से कुछ पहले चिंतागुफा कैंप में जवानों ने खुलकर बात की और अपने गुस्से का इजहार किया था. उनकी बातों का मूल सार यही था कि उन्हें अक्सर यह पता नहीं होता कि उन्हें वह लड़ाई कैसे लड़नी है. वह अंधेरे में एक बेहद उन्मादी और धूर्त शत्रु के आगे धकेल दिये गए थे.
उन जवानों से जब यह पूछा गया कि वह इस लड़ाई में किस कमी को महसूस करते हैं तो उनका जवाब यही था कि जनता से कटाव. अंदरूनी इलाकों में जवान किसी पर भरोसा नहीं कर सकते थे क्योंकि आम आदिवासी का रुख उन्हें वहां नक्सलियों की ओर झुका मिलता. बस्तर में पुलिस अफसरों की यही पीड़ा है. वहां मुखबिरों के नेटवर्क के मामले में पुलिस और सीआरपीएफ नक्सलियों से एक कदम पीछे छूट जाते हैं.
25 मई 2013 के झीरम घाटी हमले में भी, जहां माओवादियों के हाथों कांग्रेस पार्टी के करीब 35 नेता और कार्यकर्ता मारे गए – खुफिया सूचना के मामले में सुरक्षा बल पिछड़ गए. लेकिन इन बारीकियों को समझे बगैर सोशल मीडिया में युद्धोन्मादी बयानों से शायद कुछ हासिल नहीं होगा. आपरेशन ग्रीनहंट के दौर में भी (और अभी भी) हर हमले के बाद सामाजिक कार्यकर्ताओं को कोसना आम बात रही है.
बस्तर में जवानों और ग्रामीणों और यहां तक माओवादियों की बातों को परखने से साफ होता है कि राजनीतिक शून्यता ने नक्सलियों के लिये जमीन तैयार की और पनपाई है. अगर आप भारत के नक्शे को देखें, तो जहां जहां राजनीतिक नेतृत्व मजबूत है, वहां नक्सली कमजोर है, जहां नेता नदारद हैं वहीं माओवादी जम पाए हैं. कश्मीर में भी इस बारीकी को समझा जाना चाहिए. क्यों कश्मीरी जनता का बड़ा हिस्सा अलगाववादियों और चरमपंथियों की ओर जा खड़ा होता है? क्यों वह सेना और पुलिस बलों के खिलाफ इतनी नफरत समेटे है?
पुलवामा का हमला कश्मीर में हो रहे हमलों की कड़ी में पहला नहीं है और बदकिस्मती से यह जंग इतनी जल्दी खत्म भी नहीं होने वाली. लेकिन युद्धोन्मादी बयानों से पहले क्या एक बात नहीं सोची जानी चाहिये कि राजनीतिक और कूटनीतिक पहल इस जंग को जीतने में कितनी जरूरी है.
जाहिर तौर पर वह एक लंबा और धैर्यपूर्ण इलाज है, जो सोशल मीडिया के उन्मादी बयानों से कहीं अधिक मेहनत और समझ की मांग करता है. जवानों के ताबूतों के आगे सलाम करना और झुकना अलग बात है, लेकिन शहीद के परिजनों के दर्द और बर्बादी को समझना अलग बात है.
(हृदयेश जोशी स्वतन्त्र पत्रकार है और उन्होंने बस्तर में नक्सली हिंसा और आदिवासी समस्याओं को लम्बे वक्त तक कवर किया है.)
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Published: 14 Feb 2019,11:09 PM IST