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20 साल पहले अपने लेख "कुतुब एंड मॉडर्न मेमोरी" में प्रोफेसर सुनील कुमार ने एक राष्ट्रीय अखबार के एड कैंपेन की ओर ध्यान खींचा जिसमें पाठकों से एक सवाल पूछा गया था: क्या आप कुतुब के बिना दिल्ली की कल्पना कर सकते हैं?" इस लेख में, जो कि उनकी किताब 'द प्रेजेंट इन देल्हीज पास्ट' का हिस्सा है वो आगे लिखते हैं-
कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में मध्यकालीन इतिहास के प्रोफेसर थे, और इस विशाल स्मारक की हाल की स्मृति पर उनका निबंध आज कुतुब मीनार के आसपास के अधिकांश सवालों के जवाब देता है.
21 मई को इस बात की अटकलें तेज थीं कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) को कुतुब मीनार की खुदाई करने का निर्देश दिया गया था, जिससे ये पता चल सके कि दरअसल इस UNESCO विश्व धरोहर स्थल का निर्माण किसने कराया था.
क्या इसका निर्माण 12वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के पहले शासक कुतुब-अल-दीन ऐ-बेग ने कराया था या इसका निर्माण इससे काफी पहले 5वीं शताब्दी में गुप्त साम्राज्य के चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने कराया था.
24 मई, मंगलवार को ASI ने दिल्ली की एक अदालत में कुतुब मीनार परिसर के अंदर “27 हिंदू और जैन मंदिरों को फिर से स्थापित करने की मांग वाली याचिका का विरोध किया.”
एक सिविल कोर्ट के जज ने उस याचिका को खारिज कर दिया था जिसमें ये कहा गया था कि कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद (कुतुब मीनार के पास स्थित) का निर्माण मंदिर परिसर की जगह किया गया था और इसे फिर से स्थापित करने की मांग की गई थी.
लाइव लॉ के मुताबिक ASI ने जवाब दिया कि-
ASI ने आगे कहा कि “बचाव/संरक्षण का मूल सिद्धांत कानून के तहत घोषित और दर्ज स्मारक में किसी तरह की नई प्रथा की अनुमति नहीं देना है. स्मारक के संरक्षण के समय जहां भी पूजा नहीं की जाती थी वहां पूजा फिर से शुरू करने की अनुमति नहीं है.”
ये इस्लामी शासकों द्वारा बनाए गए स्मारकों की उत्पत्ति पर सवाल उठाने के लिए हिंदू दक्षिण पंथियों के ताजा ‘आंदोलन’ का ही एक हिस्सा है. वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा के शाही ईदगाह को लेकर मुकदमेबाजी पहले से ही अलग-अलग चरणों में है, वहीं इलाहाबाद हाई कोर्ट ने हाल ही में ताज महल के “22 सीलबंद कमरों को खोलने” की मांग करने वाली याचिका को खारिज कर दिया था.
ये तीनों शहर उत्तर प्रदेश में हैं जो सांप्रदायिक और राजनीतिक तौर पर एक संवेदनशील राज्य है. पूर्व ASI क्षेत्रीय निदेशक धर्मवीर शर्मा ने दावा किया कि कुतुब मीनार 5वीं शताब्दी में गुप्त वंश के शासन के दौरान का सन टावर है. इस दावे के साथ ही दिल्ली का ये स्मारक भी सबकी नजरों में आ गया है.
जैसे ही खुदाई की अटकलें सुर्खियां बनीं, केंद्रीय संस्कृति मंत्री जीके रेड्डी ने बयान दिया कि ऐसा कोई भी फैसला नहीं लिया गया है.
ASI के एक अधिकारी ने क्विंट को बताया कि “कुतुब मीनार में मूर्तियों के छवि चित्रण (आइकोनोग्राफी) या खुदाई के काम को लेकर अभी कोई भी कागजी कार्रवाई नहीं हुई है. अभी तक मामला वैसा ही है जैसा वो हमेशा से रहा है.”
द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक ASI ने सिफारिश की है कि “पर्यटकों को परिसर में मौजूद अलग-अलग हिंदू और जैन मूर्तियों के बारे में उचित साइनबोर्ड के जरिए विस्तृत जानकारी दी जानी चाहिए.” मौजूदा स्थिति के बारे में और बात करने से पहले इतिहास में झांकना उचित होगा.
कुतुब मीनार और उससे लगी कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण दिल्ली सल्तनत के पहले शासक कुत्ब अल-दीन ऐ-बेग (या कुतुब एल-दीन ऐबक) ने 1191-92 (12वीं शताब्दी) में शुरू कराया था.
प्रोफेसर कुमार ने लिखा “ मस्जिद का निर्माण मंदिरों से लूटी गई सामाग्री पर काफी ज्यादा निर्भर था. मस्जिद में मंदिरों से लूटे गए सामान का इस्तेमाल काफी ज्यादा किया गया था लेकिन चालाकी से. हिंदू और जैन मूर्तिकला वाले कॉलम शाफ्ट, आधार को एक-दूसरे पर रखा गया था जिससे कि छत की एक निश्चित ऊंचाई प्राप्त की जा सके. ”
असल में, 1926 में छपी जेए पेज की लिखी मेमॉयर्स ऑफ द ASI के अध्याय ‘ए हिस्टोरिकल मेमॉयर ऑन द कुतुब: दिल्ली’ में लिखा गया है कि “ये कहा जाता है कि मस्जिद का निर्माण ढहाए गए हिंदू मंदिर वाली जगह पर 27 अन्य मंदिरों के टुकड़ों से धीरे-धीरे किया गया था.”
इस किताब में मस्जिद के पूर्वी दरवाजे की अंदरुनी चौखट के शिलालेख का भी जिक्र है जिसमें लिखा गया है कि “27 मंदिरों की सामग्री, जिनमें से प्रत्येक पर 2,000,000 डेलीवाला खर्च किए गए थे, मस्जिदों के निर्माण में इनका इस्तेमाल हुआ था.”
वहां गुप्त काल का एक “लौह स्तंभ” भी है जो परिसर का हिस्सा है और इस बारे में अपनी अतिरिक्त टिप्पणी में, प्रोफेसर कुमार ने अपने लेख में लिखा है कि “हालांकि इस तरह का अनुमान लगाने के लिए कोई सबूत नहीं है लेकिन सभी इतिहासकार और पुरातत्वविदों ने ये निष्कर्ष निकाला है कि कुतुब मस्जिद के परिसर के अंदर लौह स्तंभ लगाने वाले मुसलमान ही थे.”
निर्माण का दूसरा चरण शम्स अल-दीन इल्तुतमिश (बेग के दामाद) के शासन काल के दौरान हुआ और 1229-30 (13वीं शताब्दी) के करीब ये पूरा हुआ.
निर्माण का तीसरा चरण 14वीं शताब्दी की शुरुआत में तुर्क-अफगान शासक ‘अला’ अल-दीन खिलजी के शासनकाल में हुआ और 14वीं शताब्दी के अंत में तुगलक वंश के शासक फिरोज शाह के शासन काल में फिर से इसकी मरम्मत का काम हुआ.
“फिरोज शाह के शासनकाल में भूकंप के कारण ऊपर की दो मंजिलों को नुकसान पहुंचा था. फिरोज शाह ने मीनार की मरम्मत करवाई और ऊपर एक पवेलियन का भी निर्माण कराया.1505 में सिकंदर लोधी ने फिर से इसकी मरम्मत करवाई थी. बाद में 1794 में मीनार को फिर से नुकसान पहुंचा था.” दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में इतिहास पढ़ाने वाले अंग्रेज इतिहासकार पेरविकल स्पीयर ने 1943 में लिखी अपनी किताब देल्ही: इट्स मॉन्यूमेंट्स ऐंड हिस्ट्री में ये लिखा है.
कई सालों से और कई संस्करणों में नामी इतिहासकार नारायणी गुप्ता और लेखिका लौरा साइक्स ने किताब को अपडेट किया और इस पर टिप्पणी भी लिखी है.
सैन हरियाणा के एक जान-माने सिविल इंजीनियर थे, वो सेंट्रल वाटर ऐंड पावर कमीशन के अध्यक्ष भी थे और उन्हें 1956 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था.
अपनी टिप्पणी में, जिसे पढ़ा जाना चाहिए, गुप्ता और साइक्स लिखते हैं-
इस सवाल के जवाब के लिए उस समय की उस क्षेत्र की राजनीति को समझना होगा. लेखक और इतिहासकार स्वप्ना लिडल, जिन्होंने कुतुब मीनार परिसर पर काफी कुछ लिखा है, ने क्विंट को बताया-
कुतुब मीनार का निर्माण अपना प्रभुत्व साबित करने के लिए राजनीतिक कदम था. लिडल ने कहा, “इन सेना प्रमुखों को खुद को साबित करना था, भारतीयों के सामने नहीं बल्कि सेना के दूसरे प्रमुखों के सामने. गोरी के कई सेनापति क्षेत्र में प्रभुत्व के लिए आपस में ही लड़ रहे थे. ये राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के लिए अपनी बात साबित करने का एक तरीका था. ”
प्रोफेसर कुमार ने भी इस बारे में अपने लेख में जिक्र किया है, वो लिखते हैं कि: “दिल्ली सल्तनत के संगठित प्रभुत्व के बजाए ‘उत्तर भारतीय सल्तनतों’ के विभाजित राजनीतिक माहौल के संदर्भ में, हमें कुतुब अल-दीन ऐ-बेग की खुद को मुस्लिम समुदाय के तकदीर के रक्षक के रूप में जल्द से पेश करने की इच्छा को रख कर देखने की जरूरत है.”
उन्होंने लिखा कि
उन्होंने लिखा कि बेग के “जीत के बाद के बयान ” में “सत्ता के उपयोग की कोई भावना नहीं थी” और ये इसके बजाए “दिल्ली में शासन की वैकल्पिक परंपराओं के आगमन को” दर्शाता है.
शहर की इतिहासकार और लेखिका राणा साफवी ने बताया कि जब कुतुब मीनार को यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल का दर्जा दिया गया था, तब भी ये दर्ज किया गया था कि मस्जिद का निर्माण मंदिरों को तोड़ कर किया गया था. साफवी ने कहा “ इतिहासकार कैथरीन अशर का कहना है कि मूर्ति को तोड़ना लेकिन घंटा और चेन डिजाइन को रखने की बात ये दिखाती है कि वो भारतीय कला के प्रशंसक थे. उन्होंने इसे छुपाया नहीं. ये एक राजनीतिक वर्चस्व वाला कदम था. ”
इस बीच, स्पीयर ने अपनी किताब दिल्ली-इट्स मॉन्यूमेंट्स ऐंड हिस्ट्री में लिखा था कि कुतुब मीनार का निर्माण “शायद जीत की मीनार के तौर पर कराया गया था.”
पिछले हफ्ते, एक न्यूज चैनल ने कुतुब मीनार परिसर में हिंदू मूर्तियां मिलने की ब्रेकिंग न्यूज चलाई, जिसकी पहचान गलती से (''और जो काफी शर्मनाक था'') मुगल-युग के स्मारक के रूप में की गई थी.
ASI के एक अधिकारी ने, कुतुब मीनार के मुगल काल का स्मारक होने की बात का जोरदार तरीके से खंडन करते हुए क्विंट को बताया कि “परिसर में ASI की ओर से लगाए गए सांस्कृतिक सूचना बोर्ड में इस बात का जिक्र है कि मस्जिद का निर्माण तोड़े गए 27 मंदिरों की जगह पर किया गया है. ये बोर्ड यहां पर काफी सालों से है. जो मूर्तियां वहां मिलने का दावा किया जा रहा है वो नई नहीं हैं, वो वहां पहले से ही मौजूद हैं,”
इस महीने की शुरुआत में, एक दक्षिण-पंथी संगठन यूनाइटेड हिंदू फ्रंट (UHF) और राष्ट्रवादी शिव सेना के 44 लोगों को पुलिस ने कुतुब मीनार के बाहर हनुमान चालीसा पढ़ने के बाद हिरासत में लिया था. इनकी मांग थी कि कुतुब मीनार का नाम विष्णु स्तंभ रखा जाए.
इस संदर्भ में, प्रोफेसर कुमार का 20 साल पुराना लेख जरूर पढ़ा जाना चाहिए जिसमें वो इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि
उन्होंने लिखा कि यहां आने वालों को मस्जिद और मीनार के बहु-स्तरीय इतिहास को समझाने का प्रयास किया जाना चाहिए. इसके बजाए, ये भारत में प्रचलित चरम राष्ट्रवादी विचारधाएं हैं जो कुतुब की हमारी समझ को अलग करती हैं.
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Published: 01 Jun 2022,08:09 AM IST