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1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश भर में सांप्रदायिक झगड़े और दंगे किसी महामारी की तरह बढ़ गए थे ऐसा माहौल था जैसे चारों ओर बम बिछे हो, नफरत की सुनामी आ गई हो. यह घटना भारत के इतिहास के सबसे भयानक व खौफनाक अध्यायों में से एक थी. इसमें 2000 से ज्यादा लोगों ने अपनी जानें गंवाई थीं. लेकिन इसके बाद भी संघर्ष जारी रहा - कानूनी अदालतों में, राजनीति के केंद्र में और बिखरी हुई सामूहिक अंतरात्मा में- बस इसके रूप-स्वरूप बदलते रहे.
पांच-जजों की सुप्रीम कोर्ट की बेंच द्वारा 2019 में सर्वसम्मति से 1,045-पन्नों के फैसले के बाद भी राम लला विराजमान को 2.77 एकड़ विवादित भूमि आवंटित की गई (और यह भी आदेश दिया गया कि एक और मस्जिद बनाने के लिए सुन्नी वक्फ बोर्ड को अयोध्या के प्रमुख क्षेत्र में पांच एकड़ भूमि दी जाए.), यह कम नहीं होता है.
सर्वोच्च अदालत ने भले ही अपने फैसले से दोनों पक्षों को साधते हुए संतुलन बनाने का प्रयास किया हो, लेकिन इसके बाद धार्मिक दावों को लेकर कानूनी विवादों का एक नया उन्माद सामने आया है: इनमें से कुछ बिल्कुल नए हैं, वहीं कुछ पुराने संघर्ष हैं जो फिर से अपनी उपस्थिति दर्शा रहे हैं. जिनमें वाराणसी और मथुरा में प्राचीन मस्जिदों की धार्मिक उत्पत्ति को चुनौती देने वाली धड़ाधड़ दायर होने वाली याचिकाएं शामिल हैं.
इस तरह की बातें तब भी सामने आ रही हैं जबकि देश में पूजा स्थल अधिनियम (1991) है. यह अधिनियम साफ तौर पर किसी भी उपासना या पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र के परिवर्तन पर रोक लगाता है. इसके अनुसार 15 अगस्त 1947 की स्थिति में जो उपासना स्थल (अयोध्या विवाद को छोड़कर) जैसे थे उनको उनके धार्मिक चरित्र से नहीं बदला जा सकता है.
इस अधिनियम का उद्देश्य यह है कि '15 अगस्त, 1947 की स्थिति में जो उपासना या पूजा स्थल जिस स्थिति में हैं उनके कंवर्जन (धर्मिक परिवर्तन) को रोकना और उसके धार्मिक चरित्र को बनाए रखना है.'
सुप्रीम कोर्ट ने जब अयोध्या मामले पर अपना फैसला सुनाया था तब इस अधिनियम के महत्व पर जोर देते हुए कहा था कि यह अधिनियम ऐसे मामलों में "नए मुकदमे या न्यायिक कार्यों के गठन को रोकता है."
सर्वाेच्च अदालत ने कहा था :
जैसा कि उपासना स्थल अधिनियम और अयोध्या फैसले द्वारा प्रतीत होता है कि धर्मनिरपेक्षता एक बुनियादी फीचर है और वहीं नॉन-रेट्रोगेशन (पहले की स्थिति में न जाने की प्रक्रिया) एक मूलभूत विशेषता है. लेकिन जिस तात्कालिकता के साथ धार्मिक और या राजनीतिक याचिकाकर्ताओं ने हाल ही में सर्वे और सील करने की मांग करने वाले मुकदमों के साथ ही कई मामलों में धार्मिक स्ट्रक्चर को हटाने और फिर से उसको पाने के लिए दावा किया है उससे प्रतीत होता है कि अधिनियम (उपासना स्थल) और संविधान का बुनियादी फीचर (धर्मनिरपेक्षता) फीका पड़ गया है.
और ऐसा लगता है कि इससे कानूनी अदालतों को कोई दिक्कत नहीं है.
हाल ही में वाराणसी में एक सिविल जज ने ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के सर्वे का आदेश दिया था.
कोर्ट द्वारा आदेशित सर्वेक्षण के बारे टिप्पणी करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर ने द क्विंट के दिए गए अपने आर्टिकल में लिखा था :
'सभी प्रासंगिक तथ्यों को जाने बिना; जाहिर तौर पर अपनाया गया कानूनी तरीका 1991 के अधिनियम के प्रावधानों के उल्लंघन या टकराव के रूप में प्रतीत होता है. रिपोर्ट बुलाने से पहले अदालत को उक्त अधिनियम के आवेदन से संबंधित मुद्दे का निपटारा करना चाहिए था.'
जस्टिस माथुर ने अपने आर्टिकल में यह भी लिखा था कि
आयोग द्वारा पूरी सर्वे रिपोर्ट प्रस्तुत करने से पहले ही परिसर में एक शिवलिंग पाये जाने को लेकर जब वादी ने दावा किया तब वाराणसी की इसी कोर्ट ने मस्जिद को सील करने का आदेश दिया था.
सिविल मामले की प्रक्रिया के सबसे बुनियादी सिद्धांतों में से एक का उल्लंघन करते हुए, मस्जिद समिति को दावों का जवाब देने का मौका भी नहीं दिया गया था.
दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट ने भी ज्ञानवापी मस्जिद मामले को खत्म करने या उस पर ठोस रोक लगाने का आदेश देने से इनकार कर दिया.
अयोध्या मामले में फैसला सुनाने वाले पांच जजों में से एक जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने इस मामले (ज्ञानवापी) को सिविल जज के हाथों से लेना समझदारी समझा और आदेश दिया कि सीपीसी के आदेश 7 के नियम 11 के तहत एक "वरिष्ठ और अनुभवी" जिला न्यायाधीश याचिका पर फैसला ले सकता है.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत के उस आदेश को शामिल कर लिया, जिसकी वजह से मुस्लिम उपासकों के प्रवेश पर रोक लग सकती थी. कोर्ट ने कहा कि मस्जिद में नमाज जारी रखी जा सकती है, जिला मजिस्ट्रेट उस स्थान को सुरक्षित रख सकते हैं जहां कथित तौर पर शिवलिंग जहां मिलने के संकेत दिए गए हैं.
भले ही यह विशिष्ट आदेशों से संबंधित एक अपील थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पहले यह दिखा चुकी है कि वह क्रिएटिव ऑर्डर के साथ आ सकती है, जो बिल्कुल भी किताब के अनुसार नहीं हैं यानी जिनका पालन कठोरता से किया जाता आया है वह उससे हटकर हैं.
उदाहरण के लिए, जून 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने क्या किया, जब उसने (एससी ने) यूएपीए के आरोपी आसिफ इकबाल तन्हा, नताशा नरवाल और देवांगना कलिता को जमानत देने के दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेशों पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था लेकिन उसने कुछ ऐसा कहा था कि कई लोग आश्चर्य में पड़ गए थे. तब कोर्ट ने कहा था कि फिलहाल आदेशों को मिसाल नहीं माना जाना चाहिए.
यह निर्देश आदेश में किसी भी प्रकार से विशेष रूप से उचित भी नहीं था, हालांकि 'पूर्ण न्याय' सुनिश्चित करने की दिशा में कोई भी आवश्यक कदम उठाने के लिए कोर्ट के पास अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियां व्याप्त हैं.
जैसा कि जस्टिस गोविंद माथुर ने पूर्व में बताया कि यदि यूएपीए सिस्टम को खराब करने वाले जमानत आदेशों के एक सेट को रोकने के लिए उन शक्तियों का इस्तेमाल किया जा सकता है तो शायद उनका इस्तेमाल इसी तरह के मुकदमों को रोकने के लिए भी किया जा सकता था, जो देश भर में अन्य मस्जिदों के संबंध में बिना किसी गंभीरता से (स्पष्ट रूप से सांप्रदायिक वैमनस्य पैदा करने के इरादे से) दायर किए जा रहे थे.
यह केवल अटकलें नहीं हैं : वाराणसी कोर्ट के आदेश से पहले ही मुकदमेबाजी की बाढ़ आ गई है, जिसका विवरण नीचे दिया गया है :
यदि और कुछ नहीं हो सकता था तो कम से कम कोर्ट ज्ञानवापी मस्जिद मामले में नई याचिका दायर करने पर रोक लगा सकती थी. जबकि यह मामला अभी भी लंबित था- 23 मई को वाराणसी मस्जिद के संबंध में एक और याचिका दायर होने की खबर आ गई.
वाराणसी का मामला हमें जिस असामान्य रास्ते पर जा सकता है वह शायद एडवोकेट हरि शंकर जैन द्वारा दायर एक मुकदमे में सबसे बेहतरीन तरीके से दिखाता है- संयोग से ज्ञानवापी मस्जिद मामले में हिंदू याचिकाकर्ताओं के वकील भी हरि शंकर जैन हैं- जिसने अब कुतुब मीनार को सवालों के घेरे में ला दिया है.
हाल ही में दिल्ली की एक अदालत ने एएसआई को कुतुब मीनार परिसर से भगवान गणेश की दो मूर्तियों को तब तक नहीं हटाने का आदेश दिया जब तक कि जैन द्वारा उनके याचिकाकर्ताओं की ओर से दायर किए गए मुकदमे में अगले निर्देश नहीं मिल जाते हैं.
मुकदमे में याचिकाकर्ताओं द्वारा इस बात का दावा किया जा रहा है कि महरौली में कुतुब मीनार परिसर के भीतर जो कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद स्थित है वह एक मंदिर परिसर के स्थान पर बनाई गई थी. याचिकाकर्ताओं की मांग है कि कथित मंदिर परिसर (जिसमें 27 मंदिर शामिल हैं) को बहाल किया जाए.
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय वर्तमान में एक याचिका पर सुनवाई कर रहा है जिसमें धार के 11वीं शताब्दी के भोजशाला परिसर में मुसलमानों को नमाज अदा करने से रोकने की मांग की गई है. जैसा कि एक अनुच्छेद 14 की रिपोर्ट में बताया गया है कि धार की भोजशाला-कमल मौला मस्जिद एक तीर्थस्थल है जिस पर हिंदू और मुस्लिम दोनों द्वारा दावा किया जाता है और 2003 की एएसआई की एक नोटिफिकेशन द्वारा मुसलमानों को वहां नमाज अदा करने की अनुमति दी गई थी.
इसी बीच 19 मई को मथुरा की एक अदालत ने शाही ईदगाह मस्जिद मथुरा को हटाने की मांग करने वाले मुकदमे को पोषणीय माना. यह मुकदमा इस आधार पर किया गया था कि कृष्ण जन्मभूमि भूमि पर इस मस्जिद का निर्माण किया गया था.
13 मई को मनीष यादव नाम के एक व्यक्ति ने भी मथुरा की अदालत में सिविल जज (सीनियर डिवीजन) को एक आवेदन दिया था. जिसमें ठीक उसी तरह निरीक्षण करने और मस्जिद का वीडियो सर्वेक्षण कराने के लिए एक एडवोकेट कमिश्नर की नियुक्ति की मांग की गई थी जिस तरह से वाराणसी कोर्ट ने ज्ञानवापी मस्जिद मामले में आदेश दिया था.
इसके अलावा एक स्थानीय अदालत में 17 मई को एक अर्जी दाखिल कर मस्जिद परिसर को सील करने की प्रार्थना की गई. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इस याचिका में वाराणसी कोर्ट के ज्ञानवापी मस्जिद के ऑर्डर का भी हवाला दिया गया था, जिसमें मस्जिद को सील करने की अनुमति दी गई थी.
18 मई की एक रिपोर्ट में इंडियन एक्सप्रेस ने बीजेपी नेताओं सहित कुछ पदाधिकारियों के हवाले से कहा कि "नए घटनाक्रम" ने एक नई बहस को जन्म दिया है, जिसमें उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 (Places of Worship (Special Provisions) Act, 1991) पर एक पुनर्विचार भी शामिल हो सकता है.
आइए अब वापस ज्ञानवापी मुद्दे पर लौटते हैं. बीजेपी नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने ज्ञानवापी मस्जिद विवाद को लेकर अब शीर्ष अदालत का रुख किया है. इन्होंने पहले ही उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 (अधिनियम) की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक जनहित याचिका दायर की है.
लेकिन बीजेपी और अन्य दक्षिणपंथी समूहों के सदस्य जो वर्तमान में मुसलमानों द्वारा उपयोग की जाने वाली जगहों पर हिंदुओं के स्थान को लेकर किए जा रहे दावों पर दांव लगाने की कोशिश कर रहे हैं, उनको भी अधिनियम को हटाने या इसे अनदेखा करने के परिणाम भारी पड़ सकते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के वकील शादान फरासत ने क्विंट के साथ बातचीत करते हुए कहा कि भारत के इतिहास में बहुत कुछ हुआ है, और इतिहास को नए संघर्ष के लिए फिर से खोलने से राजनीतिक रेखाओं पर प्रभाव पड़ेगा क्योंकि यह सभी प्रकार के दावों की फसल को उगाने के लिए एक मंच प्रदान करेगा.
वे आगे कहते हैं कि 'अभी हिंदुत्व समूहों के पास बहुमत है, इसलिए उन्हें लगता है कि वे (अपनी मांगों को) आगे बढ़ा सकते हैं, लेकिन यह अंततः उन्हें डसने या डंक मारने के लिए वापस आ सकता है.'
फरासत ने सवाल करते हुए कहा 'अगर इतिहास में वापस जाने और गलतियों को सुधारने का विचार है, तो आप केवल मुगल इतिहास से कैसे शुरुआत कर सकते हैं?' वे आगे कहते हैं कि 'अगर आशय यह है कि तथाकथित बाहरी लोगों का देश में कोई स्थान नहीं है, तो आपकी श्रेष्ठता की स्थिति खतरे में है, क्योंकि साक्ष्य से पता चलता है कि केवल आदिवासी और द्रविड़ ही मूल निवासी हैं.'
पत्रकार डेरेक ब्राउन ने बाबरी मस्जिद को गिराए जाने (बाबरी मस्जिद के विध्वंस) से तीन दिन पहले 3 दिसंबर 1992 को द गार्जियन के लिए एक रिपोर्ट में लिखा था :
"बहुत लोगों द्वारा ज्ञात एक धार्मिक विवाद जो छोटी-मोटी बात पर होने वाले झगड़े के रूप में शुरु हुआ था, वह हाल के वर्षों में भारत का सबसे जटिल विवाद बन गया है."
ब्राउन की रिपोर्ट के तुरंत बाद जो कुछ भी हुआ उसे फिर से दोहराने की जरूरत नहीं है. लेकिन यह एक "अलौकिक धार्मिक झगड़े" (ऐसा झगड़ा जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता था) को जारी रहने देने की कीमत को प्रदर्शित करता है.
इसीलिए शायद देश के किसी भी हिस्से में किसी भी प्राचीन, धार्मिक संरचना को सील करने से ज्यादा जरूरी यह है कि पुराने संघर्षाें के डिब्बों को सील किया किया जाए.
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