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1 जुलाई 2021, चीन और भारत दोनों के लिए महत्वपूर्ण तारीख है. आज ही के दिन 100 साल पहले शंघाई में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (Communist Party of China) का गठन हुआ था और 30 साल पहले भारत ने मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को अपनाने के लिए समाजवाद का चोला उतार फेंका था.
यहां मैं इन दो विशाल और अशांत एशियाई पड़ोसियों के प्रमुख भू-राजनैतिक घटनाओं से जुड़े अपने पुराने लेखों और विचार-विमर्शों से बहुत अधिक उधार लेकर लिख रहा हूं.
1940 के दशक के अंत में चीन और भारत की नियति इतिहास में क्षण भर के लिए एक ही मोड़ पर खड़ी थी. ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम,1947 पारित किया और 15 अगस्त 1947 को भारत को औपनिवेशिक शासन से मुक्त करने के लिए शाही सहमति प्रदान की गई. बमुश्किल से 2 साल बाद 1 अक्टूबर 1949 को बीजिंग के एक विशाल रैली में माओ ने 'पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना' की स्थापना की.
क्या सैकड़ों वर्ष के युद्ध और संघर्ष ने चीन के नेताओं (और थोड़ी जनता भी) को प्रतिशोधी और विस्तारवादी बना दिया? इसके विपरीत क्या भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े पैमाने पर अहिंसक चरित्र ने उसके शांतिवाद को मजबूती प्रदान की? क्या इस तरह की विरोधाभासी सोच ने भी उनकी आर्थिक नियति का आधार तय किया और उसको प्रभावित किया?
टोम्स ने इस बारे में काफी लिखा है कि कैसे डेंग ने चीन की अर्थव्यवस्था को बदल दिया.मैंने अपनी किताब 'Superpower? The Amazing Race Between China’s Hare and India’s Tortoise (Penguin Allen Lane, 2010)' में "एस्केप वेलोसिटी" मॉडल के बारे में बताया है ,जिसको सोवियत संघ और जापान से उधार लिए गए दो इंजनों से बल मिला था.मैं अपने सिद्धांत को संक्षेप में प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा. साम्यवाद की जबरन वसूली की शक्ति का प्रयोग करते हुए चीन ने 1970-90 के दशक में बड़े पैमाने पर इन वर्गों से अत्यधिक मुनाफा कमाया:
किसानों से उनकी जमीन को औने-पौने दामों पर हथियाकर
श्रमिकों से, मजदूरी को अत्यधिक कम रखकर
उपभोक्ताओं से,अमेरिकी डॉलर के मुकाबले युआन को कृत्रिम रूप से कम रखकर
ये मुनाफा उसी पैमाने पर थी जैसा स्टालिन के अधीन रूस में हुआ करती थी. लेकिन फिर देंग ने कहानी में एक ट्विस्ट ला दिया. सोवियत संघ के विपरीत उन्होंने जापान की आर्थिक क्रांति से सीख लेते हुए चीन को विदेशी व्यापार और निवेश के लिए खोल दिया.देंग ने अपने 'कम्युनिस्ट मुनाफे' का उपयोग भौतिक संपत्ति और सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर में उस पैमाने पर निवेश करने के लिए किया जो अब तक मानव इतिहास के लिए अज्ञात था. एक समय पर चीन अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी )का लगभग 50% इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश कर रहा था.
संक्षेप में कहें तो देंग शियाओपिंग ने चीन के "एस्केप वेलोसिटी" का निर्माण किया जो सोवियत-जापानी इंजनों पर सवार होकर समृद्धि और विशाल शक्ति पाने के लिए अपना रास्ता बना रहा था.
1991 में सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर हमला किया और भारत के लिए 'तेल संकट' की शुरुआत हो गई. सरकार को अपने कर्ज में चूक से बचने के लिए 67 टन सोना गिरवी रखना पड़ा. हमारे बॉन्ड को रद्दी के स्टेटस में डाउनग्रेड कर दिया गया. महत्वपूर्ण आयातों का भुगतान करने के लिए हमारे पास विदेशी मुद्रा लगभग समाप्त हो गई थी.
आम तौर पर तब संयमित वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने "हॉप, स्किप एंड जंप" किया( इस ऑपरेशन को यही कोड नेम दिया गया था). सोमवार 1 जुलाई 1991 को एक सरकारी आदेश द्वारा भारतीय रुपए का 9% अवमूल्यन किया गया. यह तेजी से घटते विदेशी मुद्रा भंडार को बचाने के लिए हताश प्रयास था. लेकिन पहले से ही नर्वस मार्केट और भी घबराने लगा. दो दिन बाद 3 जुलाई 1991 को एक बार फिर रुपए का 11% अवमूल्यन किया गया, इस वादे के साथ का यह आगे नहीं होगा.
1990 के दशक की शुरुआत में भारत के 'जंप-स्टार्ट उदारीकरण' से उत्साहित होकर मैंने लिखा कि कैसे हम "चीन से केवल एक दशक से पिछड़ रहे थे". स्पष्ट कर दूं कि चीन 1998 में एक ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन गया था और भारत ने 2007 में यह मुकाम हासिल किया.
इससे भी अधिक उल्लेखनीय रूप से भारत ने एक प्रमुख पैरामीटर पर चीन की तुलना में तेजी से बढ़ना शुरू कर दिया था. याद रखें उच्च मुद्रास्फीति और उच्च विकास दर वाले उन वर्षों में हमारी नॉमिनल जीडीपी 13 से 15% की दर से आगे बढ़ रही थी जबकि कर्ज में डूबा चीन दहाई नहीं छुपा रहा था.
यही कारण था कि चीन 2003 में ही 3 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन गया था जबकि हमने (कोविड-19 के बिना) इस साल ऐसा किया होता. दुर्भाग्य से "मात्र 1 दशक का अंतराल" अब चीन के लिए "15 वर्षों की बढ़त" में बदल गया है. जाहिर है चीन एक और "आधे दशक" से हम से आगे निकल गया है जबकि हम अब भी खड़े हैं. इससे भी बदतर, चीन की बढ़त तेज हो रही है क्योंकि हम अभी नॉमिनल और रियल, दोनों जीडीपी के पैमाने पर उससे पिछड़ रहे हैं.
हम चीन से इतना क्यों पिछड़ गए? इसका उत्तर भारत के 'दो दर्द' में है ( मैं सिर्फ दो चीनी कद्दावर नेता माओत्से तुंग के "द ग्रेट लीप फॉरवर्ड" और देंग शियाओपिंग के "फोर मॉडर्नाइजेशन" से शब्दावली उधार ले रहा हूं).
लेकिन क्या सब कुछ हमेशा के लिए खो गया है? नहीं, निश्चित रूप से नहीं. यदि समान नहीं तो क्या हम कम से कम एक सम्मानजनक निकटता प्राप्त कर सकते हैं? हां, हम कर सकते हैं.
कैसे? अपनी आर्थिक हताशा को त्याग कर और उसको उसकी पूरी क्षमता तक आगे बढ़ाकर. उन बड़े विचारों का अध्ययन करके जिन्होंने चीन को आर्थिक चमत्कार करने के लायक बनाया और फिर गवर्नमेंट की जगह गवर्नेंस द्वारा संचालित हमारे अपने बड़े विचारों को गढ़ने और उत्साह पूर्वक लागू करके.
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