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रमजान: कचालू, कबाब और जामा मस्जिद का खाना, अपने में समेटे एक पूरा जमाना

Ramzan में इफ्तार की खास चीजों बेसन की फुल्की, काले चने, चने की दाल और गुलत्थी की बात

रक्षंदा जलील
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>रमजान: कचालू, कबाब और जामा मस्जिद का खाना, अपने में समेटे एक पूरा जमाना</p></div>
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रमजान: कचालू, कबाब और जामा मस्जिद का खाना, अपने में समेटे एक पूरा जमाना

(फोटो- दानिश क़ाज़ी)

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जितना ज्यादा ये वक्त उपवास और प्रार्थनाओं का है, रमजान (Ramazan) परिवार के लोगों को साथ आने और एक साथ बैठकर खाने का मौका भी देता है. हालांकि, रमजान के खाने का मतलब ये कभी नहीं है कि आप लजीज खाने की चीजें बस अपने या अपने परिवार के लोगों के लिए बनाएं. रमजान में खाने की जो चीजें बनाई जाती हैं, वो पूरी तरह से इस मंशा के साथ बनाई जाती हैं कि आप इसे अपने परिवार, दोस्तों, पड़ोसियों, वो लोग जो हमारे साथ काम करते हैं या हमारे लिए काम करते हैं, उनके साथ भी बांटें.

खाने की चीजें मस्जिदों में, मुसाफिरों और अजनबी लोगों के लिए भी भेजी जाती हैं.

पिछले दो साल से रमजान एक भयावह आइसोलेशन में बीता है. पिछले साल रमजान ऐसा था कि सांस लेने भी घुटन महसूस हो रही थी और इसे पहले का रमजान लॉकडाउन में बीता.

एक साथ बैठकर खाना, जो उपवास को खोलने का एक मूल तत्व है, ऐसा लगता था कि हमारे जीवन से चला गया है. इस साल जब दुनिया एहतियात से खुद को ठीक करने में लगी है और कुछ हद तक जीवन पटरी पर लौट रहा है तो रमजान के खाने में भी वो पुरानी रौनक लौट आई है.

खाने की कई चीजों ने इस महीने में वापसी की है. इनमें सबसे पहला है, रूह अफज़ा. रमजान में बनी खाने की कुछ चीजें भले ही आपको बहुत लाजवाब न लगें, लेकिन ये बनाई जाती हैं क्योंकि, हम इन्हें बचपन से ही अपने घरों में बनते हुए देखते आए हैं. ये चीजें रमजान के महीने में जरूर बनाई जाती हैं और उनमें एक साधारण सी डिश है, काले छोले. ये इफ्तार के लिए बनाए जाते हैं. प्रोटीन और फाइबर से भरपूर ये परफेक्ट स्नैक है. हालांकि रमजान के बाद इसे लोग कम ही अपने घरों में बनाते हैं.

काले चने

(फोटो- रक्षंदा जलील)

सीधी सरल चने की दाल

इफ्तार की एक खास डिश है चने की दाल. रमजान के बाद ये कभी कभार ही दस्तरख्वान पर पेश की जाती है. इसका कोई खास नाम नहीं है और मेरी जानकारी में चने की दाल ही कही जाती है. चने इसमें मुख्य चीज है लेकिन इसमें स्वाथ का तड़का लगता है कि टमाटर, हरी मिर्च, धनिया (मेरे मामले में पुदिना, क्योंकि इस गर्मी में धनिया बची नहीं लेकिन पुदिना डटा हुआ है) और प्याज. साथ में ढेर सारा आमचूर, चाट मसाला, जीरा और थोड़ा सा नींबू.

इफ्तार के लगभग खाए जाने वाले कचालू यानी फ्रूट चाट की तरह दाल को पहले से ही बना कर रखना होता ताकि इन तड़कों का पूरा स्वाद दाल में समा जाए लेकिन दाल का एक-एक दाना भी अपनी पहचान बनाए रखे. कचालू में भी एक बैलेंस की जरूरत है. अंगूर का करारपन बना रहे, साथ में मुलायम केला और अमरूद. लेकिन काला नमक के बिना बात नहीं बनती. और फिर उसमें नींबू का रस पूरी डिश को एक अलग अंदाज देता है.

दही की फुल्की

दही की फुल्की

(फोटो- रक्षंदा जलील)

दही की फुल्की को कुछ लोग दही बड़ा की गरीब बहन कह सकते हैं, लेकिन मेरे विचार में ये अपनी सरलता के कारण उससे बेहतर है. ये दही भल्ले ही तरह गोल मटोल नहीं है और न ही दही बड़े की तरल चपटी लेकिन इसका स्वाद में इसका जवाब नहीं.

फिर आड़ी तिरछी बेसन की फुल्की भी है, जिसे बेसन, पानी, नमक, मिर्च और जीरे से बनाया जाता है, जिसे पतले दही के घोल में डुबा कर रखा जाता है और ऊपर से नमक, लाल मिर्च और कुचे हुआ लहसून और ताजा भुना हुआ जीरा डाला जाता है. अब इससे ज्यादा एक रोजेदार क्या मांग सकता है.

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रमजान में जामा मस्जिद

रमजान का दूसरा अहम हिस्सा है, अनमोल चिकन और बाबू भाई के कबाब खाने के लिए मेट्रो से जामा मस्जिद जाना. ये चीज दो साल से नहीं हो पा रही थी और कोविड 19 के बढ़ते मामलों और चौथी लहर की डराने वाली बातों की वजह से एक तरह से अभी भी रुकी हुई ही है.

अनमोल चिकन और बाबू भाई के कबाब ये दो जगहें इसके आसपास के बड़े रेस्टोरेंट्स से कहीं ज्यादा पॉपुलर हैं. यहां ये भी बता दूं कि हम Karim’s रेस्टोरेंट जाना भी नहीं भूले. यहां बहाना बाद में खाने के लिए यहां से फिरनी पैक करा कर ले जाना था, लेकिन असल में हम यहां के मशहूर शाहजहानी कोरमा के साथ नान का स्वाद लेने गए थे.

(फोटो- रक्षंदा जलील)

इस पाक महीने के साथ ऐसा कुछ है, जो आपको अपने बीते हुए कल की शिद्दत से याद दिलाता है. जैसे नाशो खाला की याद आ जाती है, नसीम खाला की याद आती है, जिन्होंने वो जैसी थी वैसी ही हमारी जिंदगियों में खुशियां भरी हैं. और चूंकि खानों में यादें छिपी होती हैं इसलिए मुझे इनके बनाए कुछ लजीज खानों की याद आती है. जैसे नसीम खाना का बनाया हुआ शाही टुकड़ा जो वो पुरानी ब्रेड और मिल्कमेड के एक डिब्बे से चंद सेकंड में बना देती थीं या फिर नाशो खाला का बनाया मूली का शामी कबाब.

गजब की गुलत्थी

रमजान अपनी पुरानी पसंदीदा खाने की चीजों को बनाने और इसे बांटने का भी समय है. ऐसी ही एक चीज है, गुलत्थी. ये न तो खीर है न रबड़ी, बल्कि इन दोनों का मेल है. ये खाने की एक ऐसी मीठी चीज है, जो मैंने सिर्फ अलीगढ़ में खाई, वो भी शादियों में. इसलिए मेरे मन में ये निकाह और वलीमें की दावत, परिवार और मस्ती, गरारा पहने औरतें और शेरवानी पहने पुरुषों से जुड़ी चीज है.

गुलत्थी मेरी यादों में गहरे तक जमी हुई. हमेशा मीठी, दिखने में सुंदर, गीली मिट्टी और गुलाब जल की खुशबू लिए हुए.

गुलत्थी को लेकर हमारे उत्साह को देखकर कई मेजबान हमें इसे पैक करके दिल्ली अपने घर ले जाने के लिए भी दे देते थे. गुलाबी रंग से सजी इन मिट्टी की मटकियों और इनके अंदर रखी मुलायम सी चीज की वजह से इन्हें बड़ी सावधानी से ले जाया जाता था और कोशिश की जाती थी कि इसे जल्दी से जल्दी खा लिया जाए.

गुलत्थी

(फोटो- रक्षंदा जलील)

गुलत्थी हमेशा रानी पिंक काइट पेपर से चारों तरफ से लिपटी हुई लंबी सी मटकियों में आती थी. शादियों में आने वाले मेहमान ये जानते थे कि इसमें मौजूद सबसे अच्छी चीजें मटकी के तह में जमी होंगी और इसे लंबे से हैंडल वाले चम्मच से खाना होगा. हम ये देखते रहते थे और हमने सीखा कि कैसे किशमिश, काजू और नारियल के टुकड़ों को निकालकर खाना है, जो दूध के साथ मटकी के अंदर जमे रहते थे. जब हम इसे निकालकर खाते थे, तो इसके साथ मिट्टी के जार की वो मीठी सी खुशबू भी आती थी.

'बिरयानी बनाम पुलाम' की अंतहीन बहस

बड़े होते हुए, मुझे याद नहीं कि मैंने ज्यादा बार बिरयानी खाई होगी. बिरयानी बस शादियों में ही खाई जाती थी, वो भी ज़रदा के साथ. घर में हम हमेशा पुलाव खाते थे. ज्यादातर मटर पुलाव और कभी—कभी मटन. इसे यख्नी पुलाव कहा जाता था. हालांकि मुझे याद नहीं कि मैंने कभी चिकन पुलाव खाया हो.

कई बार जब हमारे घर में बिरयानी बनती थी, तब सिफत चाची इसे बनाती थीं, जो भोपाल से थीं. वो इसे बिरयान कहती थीं, बिरयानी नहीं.

वो बहुत नाप तोल कर एकदम मैथेमैटिकल तरीके से अपनी इस सिग्नेचर डिश को बनाती थीं. ये हम नहीं कर सकते थे. हमारे लिए सबसे चैलेंजिंग टास्क था. इसलिए हम अपने आसानी से बन जाने वाले पुलाव के साथ ही खुश रहते थे. हालांकि ये तब तक था, जब तक दिल्ली में बिरयानी को लेकर इतना हो हल्ला नहीं था और इसके बाद पुलाव कहीं पीछे रह गया.

पुलाव

(फोटो- रक्षंदा जलील)

मेरी दोस्त सादिया देहलवी हमेशा ये कहती थीं कि माफ करना, तुम यूपी वालों को खाना पकाना नहीं आता. और हम दिल्ली की खूबियां बनाम बाकी की दुनिया और पुलाव वर्सेज बिरयानी पर अपनी बहस दोबारा शुरू कर देते थे. सादिया जल्दी में रहती थी और हमारी बहस किसी नतीजे पर पहुंचे, इससे पहले ही वो चली जाती थी. लेकिन मैं अपनी बात करूं तो मुझे बिरयानी भी पसंद थी और पुलाव भी. पुलाव में एक तरह का खास स्वाद, एक बारीकी और एक सौम्यता होती है, जो तड़क—भड़क वाली, फ्लेवर से भरी बिरयानी में नहीं मिलती.

बिरयानी में सौंफ नहीं होती, जिससे एक हल्की मीठी सी खुशबू आती है. पुलाव में चावल के पकने और इसे याखनी शोरबे के फ्लेवर्स को सोखने में ज्यादा वक्त लगता है. हां, ये बिरयानी नहीं है, लेकिन उससे कम भी नहीं है. ये अपने आप में खास है. इस गर्मी के मौसम में आप इसे जीरे और लहसुन के साथ बने लौकी के रायते के साथ खा सकते हैं.

जब मैं ये कॉलम लिख रही हूं, तो मुझे इस बात का एहसास हो रहा है कि हम अपने उन करीबी और खास लोगों को अलग अलग तरह से याद करते हैं, जो अब हमारे बीच नहीं हैं. कभी अपनी दुआओं में तो कभी खुशी से उनके जीवन का एक हिस्सा अपने जीवन में री-क्रिएट करके कि वो क्या खाना बनाते थे और कैसे बनाते थे.

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