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Republic Day: भारत राजनैतिक लोकतंत्र तो बन गया, सांस्कृतिक लोकतंत्र बनना बाकी

संविधान में जिस आधुनिक भारत की परिकल्पना की गई थी, उससे अलग है आज का भारत

माधव नारायणन
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>Republic Day: भारत राजनैतिक लोकतंत्र तो बन गया, सांस्कृतिक लोकतंत्र बनना बाकी</p></div>
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Republic Day: भारत राजनैतिक लोकतंत्र तो बन गया, सांस्कृतिक लोकतंत्र बनना बाकी

Image: Kamran Akhtar/The Quint

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भारत के 74वें गणतंत्र दिवस के मौके पर हमारी खास सीरीज का यह भाग दो है. दूसरा और तीसरा भाग यहां पढ़ें)

15 अगस्त, 1986 को लाल किले की प्राचीर से तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने हिंदी के दो शब्दों में घालमेल कर दिया था, और उपहास के पात्र बन गए थे. उन्होंने एक बार नहीं, कई बार कह डाला था कि इसी दिन भारत को ‘गणतंत्र’ मिला था, बजाय यह कहने के, कि ‘स्वतंत्रता’ मिली.

उस वक्त राजीव गांधी का खूब मजाक उड़ा था. लेकिन इस भाषण को अनजाने में हुई भूल के तौर पर देखा जा सकता है. खास तौर से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उस आंदोलन की असली कीमत समझने के लिए जिसके कारण 1947 के अगस्त महीने में देश को आजादी मिली. चूंकि आजादी का मतलब था, ब्रिटिश शासन से आजाद, एक गणतांत्रिक शासन कायम करना, जिसके चलते एक लोकतांत्रिक, समतावादी गणराज्य अस्तित्व में आएगा.

भारतीय गणतंत्र की स्थिति

कांग्रेस के नेतृत्व वाला आंदोलन 1885 में शुरू हुआ था, जब एक स्कॉटिश नागरिक ए.ओ.ह्यूम्स ने इस संगठन की स्थापना की. इसे ब्राउन साहिब का संरक्षण मिला हुआ था जो ब्रिटिश राज की इंडियन सिविल सर्विस में भर्ती होना चाहते थे. दूसरी तरफ देश का उद्योग जगत ब्रिटिश सरकार के भेदभाव भरे बर्ताव से परेशान था. राजघराने के लोग इस बात से खफा थे कि उनके हाथ की ताकत, विदेशियों के हाथों में चली गई है. तीसरी तरफ समाजवादी थे, जो एक ऐसे भारत का सपना देख रहे थे जिसमें किसानों और मजदूरों को अपना हक मिले. सामंतों और कारोबारियों के साथ हमेशा की तरह पक्षपात न किया जाए.

26 जनवरी, 1950 को लागू हुए गणतांत्रिक संविधान का उद्देश्य विभिन्न तबके के लोगों के सपनों को साकार करना था- और कुछ ने वास्तव में ऐसा किया भी. फिर भी गणतंत्र के वादे को पूरा करने का काम अभी अधूरा है. इस बीच, कुछ पुराने घाव फिर टीस मार रहे हैं, जिनके बारे में हमने सोचा था कि वे भर गए हैं. आसान शब्दों में कहें तो जिन संस्थानों में गणतंत्र की असली पहचान छिपी हुई है, उनके बीच परस्पर तनाव कायम है. जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका- और लोकतंत्र के एक अनौपचारिक चौथे स्तंभ, एक स्वतंत्र प्रेस/मीडिया के बीच.

गहराई से देखिए, तो पता चलता है कि गणतंत्र और उसकी उत्पत्ति में एक निहित विरोधाभास है जिसके चलते कुछ मुद्दे अनसुलझे हैं. भारत को सबसे ज्यादा परेशान करने वाला मुद्दा है, ‘हिंदू राष्ट्र’ का विचार जो सनातन धर्म पर आधारित प्राचीन समाज को मानता है, उसकी कल्पना करता है और उसे स्थापित करने की कोशिश करता है. वह मानता है कि सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए एक धार्मिक व्यवस्था है जो उपासना पर केंद्रित है. जबकि गणतांत्रिक व्यवस्था, जो कि समानता, स्वतंत्रता और न्याय (सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक) का वादा करती है, एक आधुनिक, भौतिक धर्म है जो अतीत से कुछ अलग तो है लेकिन बाकी उसकी जड़ में वही सभ्यता है जिसने ऐतिहासिक रूप से शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और सर्वहित को पोषित किया है.

तो संविधान सभी को जोड़ने वाली ताकत जरूर है लेकिन उस पर उस प्राचीन वर्ण का दबाव मौजूद है जो आजादी के आंदोलन में तो लगभग नदारद था लेकिन अब राजनैतिक स्तर पर लोकप्रिय है.

हम औपनिवेशिक नशे में चूर हैं

दूसरी खासियत यह है कि भारत ने ब्रिटिश शासन को तो उखाड़ फेंका लेकिन उसके संस्थानों और शासन प्रक्रिया को गले लगाए रखा. विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, हाउस ऑफ कॉमन्स की तर्ज पर लोकसभा और हाउस ऑफ लॉर्ड्स की तर्ज पर राज्यसभा जिसके सदस्य राज्यों से आते हैं. राष्ट्रपति में ब्रिटिश राजशाही के शाही वैभव की रौनक नजर आती है. इसके अलावा ऐसे संस्थान भी कायम हैं जो या तो पूरी तरह से विरासत में मिले हैं, या उसकी थोड़ी बहुत कटाई छंटाई करके, बाकी का जस का तस रखा गया है. भले इससे भारत को विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में आधुनिक देशों की फेहरिस्त में जगह मिली हो लेकिन समस्याएं कई हैं.

राज्यपाल का पद, एक ऐसी ही संस्था है. केरल, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, तेलंगाना, तमिलनाडु और दिल्ली में हाल की झड़पों से पता चलता है कि राज्यपाल या लेफ्टिनेंट-गवर्नर का पद विवादास्पद हो गया है और सहकारी संघवाद के संवैधानिक मूल्य को कमजोर कर सकता है.

वैसे निर्वाचित राज्य सरकारों और केंद्र सरकार की तरफ से नियुक्त राज्यपालों के बीच संघर्ष कोई नई बात नहीं है. लेकिन हम सोचने लगे थे कि अस्सी और नब्बे का दशक बीत चुका है. सच्चाई तो यह है कि मौजूदा वक्त में राज्यपाल का पद अति राजनैतिक हो चुका है, खासकर बीजेपी की तरफ से नियुक्त राज्यपालों का. जबकि राज्यपाल का पद एक समन्वयक का है जिसका काम विधायिका में संवैधानिक मूल्यों को पुष्ट करना है और केंद्र सरकार को बताना है कि क्या संवैधानिक मशीनरी के कुछ कलपुर्जों को मरम्मत की जरूरत है. लेकिन अब उसकी व्याख्या कुछ अलग ही तरह से की जा रही है.

इसकी वजह ब्रिटिश राज की तरफ से छोड़ी गई दरारें और खामियां हैं. राज्यपाल अक्सर ब्रिटिश शैली के रेजिडेंट या एक किस्म के वायसराय बन जाते हैं.
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याद किया जा सकता है कि 1935 में ब्रिटिश सरकार जो गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट लेकर आई थी, उसका मकसद अपने खुद के हितों को साधना था, जबकि संविधान के मसौदे का एक महत्वपूर्ण आधार था, अपना खुद का शासन. लेकिन संविधान के एक बड़े हिस्से की प्रेरणा गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट से ली गई थी (शब्दशः मार्गदर्शन) जिसकी वजह से इसमें अधिनायकवादी शैली के सशक्तीकरण की फुसफुसाहट सुनाई देती है. इसमें सुधार की जरूरत है. और राज्यपाल का पद इसमें सबसे पहले आता है.

कैसे ब्रिटिश दौर के पुराने और बेरहम कानून अब भी विधायिका को रास्ता दिखा रहे हैं

भारतीय दंड संहिता (IPC) भारत में पुलिस वालों और वकीलों की रोजमर्रा की रहनुमा है. राज्यपाल के पद से ज्यादा पुरानी, और कठोर. समलैंगिकता को अपराध घोषित करने वाली आईपीसी की धारा 377 को आजादी के 71 साल बाद हटा दिया गया जबकि दूसरे गैर मुनासिब प्रावधान अब भी लागू हैं.

इनमें से देशद्रोह के खिलाफ कानून भी है जो लोकतांत्रिक परंपरा का धुर विरोधी है. सरकार या उसके कार्यों के खिलाफ नागरिक, संवैधानिक, वैध असंतोष को देशद्रोह कहा जा सकता है. आईपीसी की धारा 124ए "देशद्रोह" को एक गैर-जमानती अपराध बनाती है, जिसके तहत दोषी पाए जाने वाले शख्स को तीन साल तक की कैद की सजा हो सकती है, 1860 से ही. इससे ज्यादा क्या कहा जाए.

कम शब्दों में, "राष्ट्रीय एकता" या "आंतरिक सुरक्षा" अब प्रॉक्सी हैं जिसके तहत पुराने कानूनों को राजनीतिक मकसद से लागू किया जा सकता है. यह अक्सर साम्राज्यवादी शासकों और चुने हुए निरंकुशों के बीच की खाई को धुंधला कर देता है.

हम संविधान की संघीय, राज्य और समवर्ती सूचियों को ध्यान से देख सकते हैं ताकि यह समझा जा सके कि किस तरह बहुसांस्कृतिक लोकतंत्र के ताने-बाने में निरंकुशता को गूंथा जा रहा है. वह लोकतंत्र जो संघवाद और क्षेत्रीय स्वायत्तता के रंगों में रंगा हुआ है. ‘एक देश, एक चुनाव’ जैसे नारे या इतिहास की अलहदा रिवायत को पेश करने वाली फिल्म के खिलाफ विरोध प्रदर्शन बताते हैं कि भारत एक राजनैतिक लोकतंत्र तो बन गया लेकिन सांस्कृतिक लोकतंत्र बनना अभी बाकी है.

क्या आधुनिक भारत के विचार को मुकर्रर किया जा सकता है?

संविधान में जिस आधुनिक भारत की परिकल्पना की गई थी, उससे अलग है आज का भारत. वो आज जाति, धर्म या मूल स्थान के आधार पर राष्ट्रीय पहचान बना रहा है. इस दूसरे भारत को रचने वाले तमाम कारणों में विवादास्पद नागरिकता संशोधन एक्ट (CAA) भी है, और अनुच्छेद 370 को रद्द करना भी. सीएए नागरिकता के सिद्धांत को धर्म से जोड़ता है, और अनुच्छेद 370 के जरिए जम्मू-कश्मीर के स्व-शासन के विशेष दर्जा को खत्म किया गया है.

इस बीच दुनिया आगे बढ़ गई है. पश्चिम में गे राइट्स मुख्यधारा में हैं. गवर्नेंस में मानवाधिकार और स्वास्थ्य एवं शिक्षा को जोर दिया जा रहा है, और यह अहम बनता जा रहा है.

गणतंत्र के बुनियादी मूल्यों पर फिर से विचार किए जाने की जरूरत है ताकि आधुनिक, समतावादी, प्रगतिशील गणतंत्र के वादे को पूरा किया जा सके. वह वादा जो संविधान की प्रस्तावना में किया गया है. वह वचन, देश के लिए सच्चाई बने. 1.5 अरब की आबादी वाला देश, जिसका एक बड़ा हिस्सा अब भी एक अच्छी जिंदगी जीने के लिए एड़ियां घिस रहा है.

(लेखक सीनियर जर्नलिस्ट और कमेंटेटर हैं जो रॉयटर्स, इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के साथ काम कर चुके हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @madversity है.)

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