(यह खबर पहली बार 26 जनवरी 2023 को पब्लिश की गई थी. भारत अपना 75वां गणतंत्र दिवस मना रहा तो ये खबर 26 जनवरी 2024 को फिर से पब्लिश की गई है.)
(भारत के 74वें गणतंत्र दिवस के मौके पर हमारी खास सीरिज का यह भाग तीन है. पहले और दूसरे भाग को यहां पढ़ें.)
सबसे निर्मम और ‘दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धक्षेत्र’ सियाचिन ग्लेशियर में बने युद्ध स्मारक पर एक शिलालेख है. उस पर लिखा है, “बर्फ के बीच, शांत रहते हैं, लेकिन जब बिगुल बजता है, उठते हैं और मार्च करते हैं.” यह स्मारिका बार-बार याद दिलाती है कि शस्त्रों को अपना धर्म और कर्म बनाने वालों की स्थिति क्या होती है. यह उनके बलिदान और शौर्य की कहानी याद दिलाती है. साथ ही बताती है कि अनुशासन को तोड़ा नहीं जा सकता. अनुशासन की सिर्फ कहानियां नहीं कही जातीं, लड़ाकों का पूरा जीवन अनुशासन में बंधा होता है. ये अनुशासन का ही तकाजा है कि सैनिक सिर्फ चलते, टहलते या दौड़ते नहीं हैं, युगों से नियम पूर्वक वो करते हैं 'मार्च'.
इसीलिए चाहे सैनिक दुश्मनों के दांत खट्टे करते आ रहे हों, फिर भी उनके लिए पसंदीदा जुमला यही है- 1961 में भारतीय सेना ने पंजिम में ‘मार्च’ किया, 1965 में लाहौर के बाहरी इलाकों में ‘मार्च’ किया, 1971 में ढाका में ‘मार्च’ किया.
दुनिया भर में सभी सेनाओं के स्टैंडर्ड ड्रिल का हिस्सा है, ‘मार्च’ करना. भले ही इसकी शुरुआत कुछ ऐसे हुई थी कि सैनिकों के दस्तों को सुनियोजित और लयबद्ध तरीके से एक से दूसरी जगह ले जाया जाता था लेकिन बाद में यह सैन्य अनुशासन और ऊर्जा के सबसे दर्शनीय स्वरूप में तब्दील हो गया.
भारत में मार्चपास्ट की अहमियत
मिलिट्री थ्योरिस्ट्स का मानना है कि ड्रिल या मार्च जंग में अनुशासन और धीरज का आधार होते हैं- जो लोग मार्च में सटीक समन्वय, जोश और अनुशासित मुद्रा के साथ कदमताल करते हैं, वे युद्ध में भी खुद को सही तरीके से उतार पाते हैं. इसीलिए पेशेवर सेनाओं के सैनिक आम तौर पर दूसरे बलों या असंगठित मिलिशिया से बेहतर ‘मार्च’ करते हैं, क्योंकि बाकियों में वह जोशो खरोश नहीं होता, उनका प्रशिक्षण और रेजिमेंटेशन उस स्तर का नहीं होता.
जब सार्वजनिक कार्यक्रमों में परेड होती है, तो मार्चपास्ट से आम नागरिकों का मनोबल भी बढ़ता है. चूंकि सशस्त्र बल एक नजारा और वातावरण रचते हैं. मार्च करने वाली टोली खुद भी अपनी सेवा और वर्दी की गर्वीली अभिव्यक्ति करती है. यह पारस्परिक गरिमा और उत्सव का क्षण होता है. 26 जनवरी, 1950 को पहली गणतंत्र दिवस परेड के बाद से, जब ब्रिगेडियर मोती सागर ने परेड की अगुवाई की थी और ‘मार्च’ का खाका और मानक गढ़े थे, तब से आज, 2023 तक यह परंपरा उसी आत्मविश्वास के साथ जारी है.
राष्ट्रपति के आगे चलते, हॉर्स्ड कैवलरी रेजिमेंट के शानदार सवार यानी राष्ट्रपति के अंगरक्षक, और फिर 61वीं कैवलरी माउंट्स और दूसरी कई टुकड़ियां, इन सबके जरिए भारत की सैन्य भव्यता, पराक्रम और वीरता का दिग्दर्शन होता है.
कुछ अतीत, और कुछ भविष्य, यह एक तरह का नमूना है कि सशस्त्र बल की विरासत और परंपराएं अटूट हैं जिसमें आधुनिकता का पुट भी है, चूंकि वह अत्याधुनिक हथियार और तकनीक को भी अपना रही है. यह याद दिलाता है कि मूल्य कालातीत हैं, बेशक भाव और तत्व बदल सकते हैं.
मार्च के नारे, प्रोपेगैंडा से अलग होते हैं
पिछले साल, भारतीय सेना की बेहतरीन बटालियनों में से एक, राजपूत रेजिमेंट की 17वीं बटालियन (बढ़े चलो) को 50 के दशक की वर्दी में मार्च करने का गौरव हासिल हुआ. प्रसिद्ध मैरून और रॉयल ब्ल्यू हैकल से सजे हैंडलबार में, मूंछों वाले राजपूत लड़ाकों ने जोश से भरकर ‘मार्च’ किया जैसे दशकों से करते आ रहे हैं. उनके उत्साह को देखकर दुश्मन की रूह कांप सकती है, और इस दौरान वे 'बोल बजरंग बली की जय’ के साथ हुंकार भर रहे थे.
फिर इस गौरवशाली अतीत के बाद उन्नत किस्म का इलेक्ट्रॉनिकली स्कैन्ड अरे रडार ‘उत्तम’, आकाश से लॉन्च किए जाने वाले हथियार और इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर (ईडब्ल्यू) जैमर, नई पीढ़ी के एंटी-रेडिएशन मिसाइल ‘रुद्रम’ आदि को पेश किया गया जो इस बात की मिसाल थे कि कैसे अपने 'अतीत' का उपहास और तिरस्कार किए बिना कोई सभ्यता बीते वक्त को याद रख सकती है, इसके बावजूद कि वह आज के सौन्दर्य और प्राथमिकताओं से मेल न खाता हो. हालांकि इस ‘मार्च’ को ताकत का दिखावटी प्रदर्शन नहीं समझा जाना चाहिए, जैसा अक्सर लोग समझते हैं.
गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम की शुरुआत उन लोगों को सम्मानित करने के साथ होती है जिन्होंने ‘दुश्मन के सामने सबसे ज्यादा बहादुरी दिखाई हो’, और इसलिए उन्हें वीरता के लिए सर्वोच्च अलंकरण परम वीर चक्र (युद्धकाल के लिए) या अशोक चक्र (शांति के दौरान) दिया जाता है.
सैनिक खुद या उनके परिवार के सदस्य के साथ उसी पलटन के सीनियर साथी मार्च करते हुए राष्ट्रपति के पास मंच तक जाते हैं, जोकि भाईचारे, संघ भाव और सबसे बढ़कर एक परिवार होने का प्रतीक होता है, व्यक्ति की मृत्यु हो जाने के बावजूद.
भारत का परम व्यक्तित्व, पहला नागरिक, भारत के 'परम वीर' का सम्मान करता है. वक्त मानो थम जाता है. जैसे ही प्रशस्ति पत्र पढ़ा जाता है, ‘राष्ट्र के सैनिक’ के कृत्य पर देशवासी मौन विस्मय, प्रशंसा और सम्मान के भाव से भर जाते हैं.
इसके अतिरिक्त कर्तव्य पथ (पहले राजपथ) पर सैन्य साज-सज्जा में लड़ाके ‘मार्च’ करते हैं और देश के कमांडर इन चीफ, यानी राष्ट्रपति को सलामी देते हैं. यह सेना के असैन्य नियंत्रण के सिद्धांत को पुख्ता करता है, जैसा कि दुनिया के सभी लोकतांत्रिक देशों में होना ही चाहिए.
यह उदार लोकतंत्र की दो संरचनाओं के बीच वैध, नैतिक और वांछित रिश्ते को दर्शाता है. भारत का राष्ट्रपति एक अराजैनितक और संवैधानिक पद है, और इसे ही सलाम किया जा रहा है. यह सलामी किसी सरकारी अधिकारी को नहीं दी जाती. ऐसा जानबूझकर किया जाता है, ताकि सशस्त्र बलों को कोई हथिया न ले, राजनैतिक रूप से उस पर कब्जा न जमाया जा सके, और न ही उस पर पक्षपात का कोई कलंक लगे.
पारंपरिक रूप से सशस्त्र बल का सैनिक वाहन पर लगे झंडे को सलाम करता है, उस वाहन में बैठे शख्स को नहीं. क्योंकि लोग आते-जाते हैं लेकिन झंडा स्थायी है. इसी तरह सरकारें आती जाती रहती हैं लेकिन सैनिक को सबसे पवित्र पोथी, भारतीय संविधान और उसकी रूह की हिफाजत करने वाले, भारत के राष्ट्रपति को सलाम करना चाहिए, उसका पालन करना चाहिए.
सशस्त्र बलों के राजनैतिकीकरण को रोकने के लिए यह समझदारी जरूरी है, क्योंकि इस बात का जोखिम है कि डोनाल्ड ट्रंप की तरह कोई बार-बार और अनजाने में ‘मेरे जनरल’ और ‘मेरी मिलिट्री’ न कह दे. कहीं ऐसा एहसास न पैदा होने लगे कि सशस्त्र बलों की अराजनैतिक प्रकृति पर किसी का मालिकाना हक है.
नागरिक समाज में सशस्त्र बलों की मौजूदगी
साल-दर-साल, सशस्त्र बल अनगिनत सर्वेक्षणों में नागरिक समाज में सबसे सम्मानित संस्था के रूप में उभरे हैं, और गणतंत्र दिवस की परेड में सैन्य बलों के सबसे ठोस और सायास प्रदर्शन में ‘मार्च’ का असर कम करके नहीं आंका जा सकता.
सबसे विविध टुकड़ियों वाले सशस्त्र बल, नागा रेजिमेंट, मद्रास रेजिमेंट, सिख लाइट इन्फैंट्री, जम्मू और कश्मीर राइफल्स, असम रेजिमेंट, गोरखा रेजिमेंट, ये कम से कम एक अस्थायी आश्वासन और भरोसा तो देते ही हैं, कि हमारे देश की रक्षा कौन लोग कर रहे हैं, वे कैसे दिखते हैं और व्यक्तिगत रूप से किन देवों को पूजते हैं- फिर भी वे एक भी पल गंवाए बिना, तिरंगे के शान की रक्षा करते हैं, उसका गौरव बढ़ाते हैं.
कई बार काहिल सोच ने राजनैतिक रूप से विभाजन पैदा किया और विविधता के चलते ‘कुछ’ पर भरोसा करने से इनकार किया जोकि स्वाभाविक रूप से और खुशकिस्मती से भारत का एक सुंदर स्वरूप है, लेकिन मजबूती से उसका मुकाबला किया गया. तो, सशस्त्र बलों का मार्च न सिर्फ अनुशासन, टीमवर्क, एकता और देशभक्ति की एक मास्टरक्लास है, बल्कि संयम, संवैधानिकता और गरिमा को प्रतिष्ठित करने का काम भी करता है. इसके लिए किसी बनावटी जुनून, आक्रामक धिक्कार या उतावले अंधराष्ट्रवाद की जरूरत नहीं है.
वातावरण में सेना के बैंड की धुन बज रही है, “कदम कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए जा, ये जिंदगी है कौम की, तू कौन पे लुटाए जा”. अलबत्ता, इसीलिए सैनिकों ने हमेशा मार्च किया है, और आगे भी करते रहेंगे.
(लेखक अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पुद्दूचेरी के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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