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आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) ने कहा है कि वर्ण और जाति व्यवस्था का त्याग कर देना चाहिए, जितना वक्तव्य देखने सुनने में सुन्दर है उतना ही छलावा है. अभी दो राज्यों के चुनाव होने वाले हैं और 2023 में कई राज्यों में चुनाव होगा और उसके बाद लोकसभा, ये सब चुनौतियां भरी हुई है तो ये वक्तव्य वातावरण को अनुकूल बनाने की कोशिश के अलावा कुछ और नहीं. आसमान छूती महंगाई, बढ़ती हुई बेरोजगारी से जनता त्राहि –त्राहि कर रही है तो नैया पार करने के लिए कुछ ऐसे कथन माहौल में नरमी तो लाते ही हैं.
लेकिन, सभी वर्गों और जातियों को अपनी खुराक मिल ही जाती है. इन लोगों को समझना आसान नहीं है. ताजा उदाहरण में भागवत जी खुद मुसलमानों से मिले, मस्जिद गए और उसके तुरंत बाद उनके ही सांसद एक समुदाय के आर्थिक बहिष्कार की बात खुले मुंह से करने लगे. यहां तक कि उसी मंच से नर संहार भी करने की बात हुई. एक तरह जहां मुस्लिम अल्पसंख्यक खुश हुए थे तो दूसरी तरफ हिंदुत्व की धार को भी तेज कर दिया.
मान लिया जाए कि मोहन भागवत जी के बयान में सच्चाई है तो उस कार्य को उन्हीं के लोग कर ही सकते हैं. अनुसूचित जाति, पिछड़ों को जाति व्यवस्था से हर कदम पर क्षति है तो वो ख़ुशी से वर्ण और जाति खत्म कर देंगे. सवाल है कि क्या सवर्ण भी ऐसा करने के लिए तैयार हैं? जाति व्यवस्था के कारण जो शोषण, भेदभाव, छूआछूत है वो जातियों के वर्गीकरण के कारण ही है. अगर सवर्ण या सवर्ण मानसिकता ना हो तो भेदभाव किस बात का ? जब समस्या पैदा ही नहीं होगी तो वर्ण और जाति को खत्म करने की बात ही नहीं है. जाति व्यवस्था का खात्मा सवर्णों से होकर ही निकलती है.
कम ही लोग जानते हैं कि BJP का नियंत्रण संघ के हाथों में किस तरह से है. पूरी BJP के संगठन की कमान आरएसएस के पास होती है. राष्ट्रीय स्तर से लेकर राज्य स्तर में एक सबसे ताकतवर पद संगठन महासचिव का होता है, जो आरएसएस का ही व्यक्ति हो सकता है. इनका निवास मुख्य कार्यालय पर ही होता है और पूरा समय संगठन के लिए समर्पित होते हैं. अभी भी शायद एक भी संगठन महासचिव दलित पिछड़ा नहीं होगा और आम जनता को इस ताकतवर पद के बारे में जानकारी भी नहीं होती . यहां भी मोहन भागवान जी को अनुपातिक प्रतिनिधित्व की शुरुआत करनी चाहिए.
इसमें भी पता लगाया जाए तो दलित पिछड़ों कि संख्या नगण्य है. संघ के तमाम अनुसांगिक संगठन हैं जैसे सेवा भारती, विहिप, दुर्गा वाहिनी, एकलव्य विद्यालय की बागडोर सवर्णों के अलावा का किसी और के पास है? जाति सनातन समस्या है और इस धर्म के कर्ता- धर्ता यही हैं, स्वतः वर्ण और जाति समाप्त करने का श्रीगणेश करने का पुण्य कार्य इनके ही गली से होकर गुजरता है. दलित और पिछड़े चाहें भी तो जाति व्यवस्था खत्म नहीं हो सकता है, क्योंकि वो इसी व्यवस्था के मारे हुए हैं.
सवर्ण समाज रोटी बेटी से शुरुआत कर सकता है. अगर दलित -पिछड़े भूले- भटके अंतरजातीय शादी रिश्ते में पड़ भी जाते हैं तो भारी कीमत अदा करनी पड़ती है. कोई मरा मिलता है तो किसी को झूठे केस में फंसा दिया जाता है और पंचायत से भारी दंड देने का फरमान जारी कर दिया जाता है.
अपवाद को छोड़कर अंतरजातीय शादी करने से कीमत अदा करने के लिए तैयार रहना पड़ा है. आरएसएस की करीब 55000 शाखाएं हैं, अगर वो चाह ले वर्ण और जाति समाप्त करना तो भागवत जी का सपना पूरा हो सकता है. अमेरिका में गोरे और श्वेत मक्सिकन को बिना सरकारी नियम के अपने यहां नौकरी देते हैं, खोजकर के न्यूज रूम में जगह देते हैं. तो यह कार्य सवर्ण उद्योगपति या व्यापारी आराम से कर सकते हैं.
अमेरिका के मनोरंजन उद्योग में अश्वेतों के बगैर कोई फिल्म नहीं बनती है. भले ही वहां डंका पीटकर ना किया जाए, लेकिन वो सामजिक जिम्मेदारी के तहत स्वाभाविक रूप से भागीदारी देते ही हैं. हार्वर्ड जैसे विश्विद्यालय में अश्वेतों को सभी विषयों में प्रवेश देते हैं. लेकिन कोई शोर शराबा नहीं होता. हॉर्वर्ड की लगभग आधी सीटें वंचित पिछड़े आदि को देते हैं. लेकिन , गुणवत्ता में कोई गिरावट नहीं होती. हाल में ही दुनिया के शिक्षण संस्थानों की एक रैंकिंग जारी हुई है. जिसमें दुनिया के टॉप 200 विश्वविद्यालय में भारत का एक भी नहीं है. एक दलित –पिछड़ा –आदिवासी कुलपति भी नहीं है, फिर भी दोष आरक्षित वर्ग को ही दिया जाएगा.
भागवत जी के बयान का स्वागत है लेकिन इंतजार है कि वो शुरुआत कब करेंगे
(लेखक कामगार एवं कर्मचारी कांग्रेस (केकेसी) एवं अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों अखिल भारतीय परिसंघ के राष्ट्रीय चेयरमैन हैं.)
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