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दलितों को आरक्षण और उनके धर्मांतरण के विरोधी एक ही लोग क्यों हैं?

हरिद्वार की 'अधर्म संसद' में न केवल 20 करोड़ मुसलमान निशाने पर थे, बल्कि संविधान खत्म करने की प्रतिज्ञा भी ली गयी.

डॉ. उदित राज
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>RSS के निशाने पर संविधान और आरक्षण</p></div>
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RSS के निशाने पर संविधान और आरक्षण

(फोटो: Altered by Quint)

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हरिद्वार की 'अधर्म संसद' में न केवल 20 करोड़ मुसलमान निशाने पर थे, बल्कि संविधान खत्म करने की प्रतिज्ञा भी ली गयी. तथाकथित संतों और बीजेपी नेताओं ने संकल्प लिया कि संविधान खत्म करके ही दम लेंगें. 20 करोड़ मुसलमानों को खत्म करने की बात विवादों में आ गयी, लेकिन संविधान खत्म करने की बात पर चर्चा आगे नहीं बढ़ सकी. आरएसएस के पितामाह गुरु गोलवलकर ने राजनीतिक सम्प्रभुता को मान्यता नहीं दी थी और वो चाहते थे कि सांस्कृतिक सम्प्रभुता से देश चले. संविधान से देश चलता है तो प्रत्येक व्यक्ति के वोट का मूल्य बराबर होता है, जो कथित सनातनियों को मंजूर नहीं, जब संविधान बनकर तैयार हुआ तो इसका विरोध संघ ने कर दिया था, ये कहते हुए कि इसमें हिंदू संस्कृति के लिए स्थान नहीं है.

11 दिसंबर 1949 को आरएसएस ने दिल्ली के रामलीला मैदान में सम्मेलन किया और सारे वक्ता संविधान और डॉ अंबेडकर की आलोचना करते रहे, और दूसरे दिन मार्च निकाला और नेहरू जी और डॉ अंबेडकर का पुतला जलाया.

प्राचीन काल से ही सवर्ण और श्रमण विचारधारा का टकराव रहा है. श्रमण परंपरा भारत में प्राचीन काल से जैन, आजीविक, चार्वाक तथा बौद्ध दर्शनों में पायी जाती है. ये ब्राह्मण धारा से बाहर मानी जाती है और इसे प्रायः नास्तिक दर्शन भी कहते हैं. भिक्षु या साधु को श्रमण कहते हैं, जो सर्वविरत कहलाता है. सबसे बड़ी क्रांति बुद्ध ने वैदिक संस्कृति के खिलाफ किया था. तत्कालीन समय में हिंसा, अंधविश्वाश, छुआछूत और जात-पात का बोलबाला था. बुद्ध ये सब देखकर दुखी हुए और निवारण हेतु सदा के लिए राजपाठ त्याग दिया. एक लंबे अरसे तक श्रमण संस्कृति ने स्थान बनाया. उस समय तमाम क्षेत्रों में खुशहाली और प्रगति हुई.

शिक्षा के क्षेत्र में नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय इसी परंपरा की देन है. समयांतराल श्रमण संस्कृति क्षीण होती गयी और 9वीं सदी तक अद्वैतवाद का तेजी से उभार हुआ. अद्वैतवाद में संसार मिथ्या है और सत्य इंसान की समझ से परे है. जो भी है इंसान की इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता है. ये संसार परम सत्ता की परछाई है और सब कुछ पहले से निर्धारीत है. मानव पूर्व निर्धारित नियम एवं व्यवस्था के अनुसार सांसारिक कृत्य कर रहा है. जाति व्यवस्था को इससे और मजबूती मिली, क्योंकि उसके जन्म के पहले ही सबकुछ निर्धारित हो चुका होता है.

इस मान्यता पर समाज और सत्ता चलाना आसान हो जाता है और शोषित भी अपने को समझा लेता है कि उसके साथ जो बर्ताव हो रहा है, वो पूर्व निर्धारित कर्मों के कारण है. अगर शूद्र है, तो उसका वर्तमान जीवन पूर्वजन्म के पापों को धोने में व्यतीत होना चाहिए, ताकि उसका अगला जीवन बेहतर हो सके. इनके सांस्कृतिकवाद में जाति व्यवस्था को उचित माना जाता है. भारतीय संविधान इसे निषेध करता है और वो प्रत्येक नागरिक को बराबर मानता है.

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सबसे बड़ा दुष्प्रचार ये है कि आक्रांताओं के कारण इस्लाम भारत में आया, जो गलत है. सबसे पहले इस्लाम 7वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में आया, लेकिन दुष्प्रचार ये है कि प्रथम आक्रांताओं – मो. बिन कासिम और मो. गजनवी इस्लाम लेकर आए. सिंध का हिंदू राजा दाहिर मो. बिन कासिम से हारता है, तो मात्र अपनी शक्ति से ही नहीं, बल्कि उसको न्योता दिया गया था और युद्ध के समय खुफिया जानकारी हिंदू समाज से ही दिया गया था. मो. गजनवी सेनापति हिंदू था, जिसका नाम तिलक था. गजनवी मंदिर तोड़ने नहीं आया था, बल्कि धन लूटने आया था और वापस लौट गया. धर्मांतरण करना होता तो वापिस क्यों जाता? अकबर का सेनापति राजपूत मानसिंह था. दक्षिण भारत में आक्रांता कभी पहुंचे नहीं, तो इस्लाम की जड़ें वहां कैसे मजबूत हो गईं? वहां तो 7वीं सदी में इस्लाम फैल गया था.

इतिहास में श्रमण वर्ग को कभी स्थान नहीं मिला, क्योंकि लिखने वाले ये नहीं थे. आक्रांताओं के आने का जाति व्यवस्था मूल कारण है. जब आज भी गांवों में जाति के हिसाब से टोले हैं, तो उस समय क्या स्थिति रही होगी?

यहां के शूद्र -अछूत को सेना में लिया नहीं जाता था. आक्रमणकारियों ने इस कमजोरी का खूब फायदा उठाए. हिंदुत्ववादियों को अचानक क्यों प्रेम उमड़ जाता है, जब कोई इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाता है. छुआछूत, भेदभाव, जातिवाद करते समय यह प्रेम कहां गायब हो जाता है? शासन-प्रशासन में जब भागीदारी की बात आती है, तो ये स्नेह क्यों नहीं दिखता है? हजारों वर्षों से दलित-पिछड़ों को जब आरक्षण मिलता है, तो विरोध मुसलमान और ईसाई तो नहीं करते, कौन करता है सभी को पता है. बलात्कार, घर जलाना, अलग-अलग जाति के आधार पर गांव में मोहल्ले बनाना किसकी देन है? क्या इसके लिए इस्लाम और ईसाइयत जिम्मेदार है? दलित और पिछड़े जब ईसाइयत और इस्लाम को अपनाते हैं, तभी क्यों संघ को दर्द होता है. शूद्र अगर हिंदू नहीं रह गए तो इनकी सेवा कौन करेगा? और ये हुकूमत किसके ऊपर करेंगे? मुसलमानों से नफरत करने का यही सबसे बड़ा निहित कारण है.

लगभग छः प्रतिशत ठाकुर उत्तर प्रदेश में हैं, लेकिन 21 डीएम और 22 एसपी, एसएसपी हैं जो 28 प्रतिशत बनते हैं. 22 प्रतिशत ब्राह्मण डीएम हैं और सिर्फ 5 प्रतिशत ही अनुसूचित जाति और जनजाति से हैं, पिछड़े नहीं के बराबर. मुसलमानों से जब लड़ना होता है, तब दलित व पिछड़ों को हिंदू बना लेते हैं और जब सत्ता और संसाधान में भागेदारी की बात हो तो कोई हिंदू नहीं, शिवाय जाति के.

हिंदू -मुसलमान फसाद पैदा कराके बहुत दिनों तक मूर्ख नहीं बनाया जा सकता. इनके हसीन सपने कि 20 करोड़ मुसलमानों और संविधान को खत्म कर देंगे और मनुस्मृति फिर लागू होगी, भूल जाएं. श्रमण संस्कृति वाले बहुसंख्यक अब समझदार हो गए हैं. एक पूर्व मुख्यमंत्री के आवास को गंगाजल से पवित्र करने वाले कृत्य को अब बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.

(उदित राज, असंगठित कामगार एवं कर्मचारी कांग्रेस एवं अनुसूचित जाति/जनजाति परसंघ के राष्ट्रीय चेयरमैन हैं. लेखक पूर्व आईआरएस और पूर्व लोकसभा सदस्य रह चुके है. ये एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं और क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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Published: 04 Jan 2022,12:02 PM IST

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