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व्हॉट्सएप मीम चल रहा है- “मैं इन दिनों यूजलेस महसूस कर रहा हूं, आप सोचिए युनाइटेड नेशंस का क्या हाल होगा.“ इसके साथ हंसते हुआ एक बड़ा सा इमोजी है.
लेकिन यह मजाक नहीं. चुभने वाली बात है. इसके साथ जो धारणा जुड़ी हुई है, वह यह है कि संयुक्त राष्ट्र और उसकी सुरक्षा परिषद अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा कायम करने के लिए बनाए गए थे. लेकिन यूक्रेन पर रूस के हमले के वक्त वह बिल्कुल हेल्पलेस यानी बेबस दिखे (कई लोग इसे होपलेस यानी निकम्मा भी कहेंगे).
शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव में रूस के वीटो की पूरी उम्मीद थी. इसके जरिए यूक्रेन पर हमले की निंदा हो सकती थी. लेकिन रूस की पहल भी कोई चौंकाने वाली बात नहीं थी. इसका अंदेशा पहले से था- संयुक्त राष्ट्र का कोई स्थायी सदस्य इस बात की इजाजत नहीं देगा कि सुरक्षा परिषद का कोई प्रस्ताव उसके हितों के खिलाफ जाए.
दरअसल, यह उस सौदे का हिस्सा था जिसने इस विश्व स्तरीय संगठन में अमेरिका और यूएसएसआर जैसे देशों को पहले स्थान पर रखा था. संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के समय सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता और वीटो के अधिकार ने सुनिश्चित किया था कि उन्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है.
लेकिन तब संयुक्त राष्ट्र की स्थापना (United Nations Security Council) इस आधार पर की गई थी कि दूसरे महायुद्ध की विजेता शक्तियां, जो 1943 से खुद को संयुक्त राष्ट्र कह रही थीं (हालांकि मीडिया उन्हें केवल "मित्र" कहता था), अपने युद्धकालीन गठबंधन को एक शांतिपूर्ण संगठन में बदल देंगी और मित्र बनी रहेंगी. वे दुनिया में पुलिस का काम करेंगी जोकि धमकी देने के बजाय शांति कायम करेंगी.
सुरक्षा परिषद के पांचों स्थायी सदस्यों ने अपना हित साधने के लिए कानून को अपने हाथों में जरूर लिया-रूस ने हंगरी और चेकोस्लोवाकिया में, अमेरिका ने कई लैटिन अमेरिकी देशों में, ब्रिटेन ने मालविना/फॉकलैंड्स में, फ्रांस ने अफ्रीका में और चीन ने तिब्बत में- और वह भी संयुक्त राष्ट्र की फटकार के खौफ के बिना.
शीत युद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र महासचिव डैन हैमरस्क्जोंल्ड ने ‘पीस कीपिंग’ के कॉन्सेप्ट दिया ताकि महाशक्तियों के आपसी मनमुटाव की वजह से संगठन कमजोर न पड़ जाए. उन्होंने भारत, कनाडा, आयरलैंड और खास तौर से नार्वे जैसे देशों की सेनाओं की मदद ली और एक शांति सेना बनाई. इसके जरिए उन हालात में अमन कायम करने की कोशिश की जाती थी, जब महाशक्तियां चाहती थीं कि संयुक्त राष्ट्र व्यापक संघर्ष को रोकने के लिए दखल दे.
लेकिन हैमरस्क्जोंल्ड और संयुक्त राष्ट्र की कामयाबी की वजह यह थी कि दोनों महाशक्तियां संयुक्त राष्ट्र के दखल के लिए राजी थीं. वे दोनों इस बात पर तो भरोसा नहीं कर सकते थे कि संयुक्त राष्ट्र उनकी तरफ से पहल करे, लेकिन यह काम बीच वाले देशों को सौंपे जाने पर खुश थे.
लेकिन जब मामला महाशक्तियों और उनके फायदे से सीधा जुड़ गया तो संयुक्त राष्ट्र हाशिये पर चला गया है. व्यावहारिक राजनीति ने इसे जरूरी बना दिया और स्थायी सदस्य का वीटो लाजमी हो गया.
संयुक्त राष्ट्र तब बहुत अच्छी तरह से काम करता है जब सुरक्षा परिषद के सदस्य देश किसी मुद्दे पर सहमत हों और उस पर काम करने के लिए जरूरी मानवीय सहायता, सेना और रसद आदि देने को तैयार हों. जब रजामंदी की राजनीतिक इच्छा न हो, और उससे भी बुरा यह कि महाशक्तियां विभाजित हों तो संयुक्त राष्ट्र काम नहीं कर पाता.
लेकिन फिर भी वह एक उपयोगी मंच है, जहां सभी देश किसी विषय पर अपने विचारों और कुंठाओं को साझा करते हैं, जैसा कि यूक्रेन के मसले पर देखा गया. अमेरिका भी सुरक्षा परिषद में यह प्रस्ताव लेकर आया, जबकि वह अच्छी तरह से जानता था कि उस पर वीटो होगा. हां, यह भी जानता था कि इस बहस से सिद्धांत और दांव साफ हो जाएंगे और पता चल जाएगा कि रूस दुनिया से अलग-थलग पड़ गया है.
यकीनन, हालांकि भारत सहित तीन देशों ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया, किसी ने रूस के साथ प्रस्ताव के खिलाफ वोट नहीं दिया. इस ‘प्रदर्शन प्रभाव’ यानी दूसरों की देखादेखी की गई हरकत का भी एक मकसद था.
कुछ महासचिव ‘अंतरराष्ट्रीय लोकसेवक’ के ओहदे से कुछ आगे बढ़े. उन्होंने विश्व पर नैतिक दबाव बनाने का काम किया. जैसे डैग हैमरस्क्जोंल्ड और कोफी अन्नान- दोनों को नोबल शांति पुरस्कार मिला. अन्नान को तो ‘सेक्युलर पोप’ भी कहा जाता है. वे जब बोलते थे, दुनिया उनकी बात सुनती थी.
मौजूदा महासचिव अंटोनियो गुटेरेज़ पुर्तगाल के पूर्व प्रधानमंत्री हैं. उन्होंने भी रूस को समझाने की पूरी कोशिश की कि वह ‘मानवता के नाम पर’ इस हमले को रोक दें. लेकिन जिस तरह उनकी अपील को अनसुना कर दिया गया, वह भी बिना कोई प्रतिक्रिया दिए, इससे पता चलता है कि नैतिक दबाव की भी एक सीमा होती है.
1950 के दशक में जब शीत युद्ध चरम पर था, हैमरस्क्जोंल्ड से पूछा गया था कि संगठन की अपनी क्या सीमाएं हैं, इस पर उन्होंने एक पते की बात कही थी- “संयुक्त राष्ट्र को इसलिए नहीं बनाया गया था ताकि मानव जाति को स्वर्ग में ले जाया जाए, बल्कि इसलिए बनाया गया था ताकि मानवता को नरक से बचाया जा सके.”
लंबे समय तक संयुक्त राष्ट्र में सोवियत एंबेसेडर योकोव मलिक ने एक बार कहा था कि जब लोग संयुक्त राष्ट्र को एक बेसरदार संगठन कहकर इसे खारिज करते हैं तो उन्हें अदन के बगीचे में आदम और हव्वा (एडम और ईव) की एक कहानी याद आती है. जब एक बार आदम को लगा कि हव्वा उससे कुछ नाराज़ है तो उसने पूछा, हव्वा, क्या यहां कोई और भी है?
संयुक्त राष्ट्र के बारे में भी यह सवाल है- क्या उसका कोई विकल्प भी है? यह कई बार बेबस और नाउम्मीद लगता है लेकिन यह अकेला अंतरराष्ट्रीय मंच है जहां विश्व के सभी देशों की सरकारें मिलती हैं,
मुद्दों और नीतियों पर चर्चा करती हैं, विश्व चेतना जगाती हैं, और जहां तक संभव होता है, एक सार्थक पहल पर सहमत होती हैं.
अगर संयुक्त राष्ट्र न होता तो आज का विभाजित विश्व इसकी रचना कर भी नहीं पाता. तो, इस बात के लिए शुक्रगुजार हों कि संयुक्त राष्ट्र हमारे पास है. वरना, हालात इससे भी बदतर होते.
(डॉ. शशि थरूर तिरुअनंतपुरम से तीन बार के सांसद हैं और 22 किताबों के पुरस्कार विजेता लेखक. उनकी हाल की किताब का नाम है- द बैटल ऑफ बिलॉन्गिंग (अलेफ). वह @ShashiTharoor पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 01 Mar 2022,12:44 PM IST