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युद्ध (War) को शुरू करना आसान है पर इसे खत्म करना या इसका नतीजा क्या होगा इसकी भविष्यवाणी करना आसान नहीं है. Helmuth von Moltke का एक मशहूर कथन है कि ''युद्ध की कोई भी योजना भिड़ंत होते ही नहीं धरी की धरी रह जाती है'. जहां रूस का लक्ष्य है कि यूक्रेन जल्द से जल्द आत्मसमर्पण कर दे वहीं यूक्रेन (Ukraine) के लोगों की योजना कुछ और नजर आती है. हो सकता है कि अंतिम परिणाम दोनों के लिए इससे बिल्कुल अलग हो.
इसी मुद्दे पर साल 2014 में लिखते हुए, Henry Kissinger ने कहा था कि नीति की आजमाइश इससे होती है कि वह कैसे खत्म हुई, इससे नहीं कि कैसे वो शुरू हुई. ये निश्चित है कि रूस का इरादा तख्तापलट का था. Spetsnaz special forces और paratroopers का इस्तेमाल करके रूस यूक्रेन की राजधानी कीव पर कब्जा करना, राष्ट्रपति Volodymyr Zelensky को पकड़ना और यूक्रेन की सरकार को गिरा देना, उसकी मंशा होगी.
कीव पर जल्द से जल्द कब्जा करना और जेलेंस्की को पकड़ लेना, ये दोनों बातें यूक्रेन को आत्मसमर्पण पर मजबूर करतीं और इसके बाद रूस समर्थित सरकार को स्थापित करना आसान हो जाता. इसके बाद बाकी का एजेंडा असैन्यीकरण और राष्ट्रवादियों से देश का शुद्धीकरण भी पूरा हो जाता.
लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जेलेंस्की ने मुकाबला किया और अपने लोगों के लिए हीरो के तौर पर उभरे. उन्होंने वॉर लीडर के दायित्व को संभाला. रूस बड़ी संख्या में प्रतिबंधों का सामना कर रहा है और ऐसा नजर आ रहा है कि वह अपने मिलिट्री कैम्पेन को और तेज करने की प्रक्रिया में है. इस बीच उसने अपनी न्यूक्लियर फोर्सेज को अलर्ट कर दिया है और परमाणु हमले को लेकर एक कदम और आगे बढ़ गया है
सैटेलाइट तस्वीरें इस ओर इशारा करती है कि रूस, कीव के मोर्चे पर अब अपनी सेनाओं को और ज्यादा मजबूत कर रहा है और उसकी मंशा आने वाले समय में हमलों को और तेज करने की है.
रूस की सेना आर्टिलरी, टैंकों और रॉकेट्स से सामने से हमला करने को मजबूर हो गई है, जिसका नतीजा बेहद भयानक और विध्वंसकारी होगा.
लेकिन रूस की सेना के लिए ये सब इतना आसान नहीं है क्योंकि, यूक्रेन ने कई पुलों को ध्वस्त कर दिया है और उन्हें अपनी सेना और मोर्चाबंदी को मजबूत करने का समय भी मिला है.
रूस ने अपनी ये लड़ाई बहुत ज्यादा उत्साह के साथ नहीं शुरू की है. वहीं लोग इस बात से भी हैरान रह गए जब उन्होंने देखा कि रूस के अपने ही नागरिक यहां के अलग अलग शहरों में युद्ध के खिलाफ प्रर्दशन कर रहे हैं. इन प्रदर्शनों की वजह ये भी है कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय दुनियाभर के देशों की तुलना में रूस ने सबसे ज्यादा युद्ध की त्रासदी देखी है और उसे पता है कि युद्ध का मतलब क्या होता है.
रूस एक स्पष्ट जीत चाहता है. सबसे प्रमुख शहर का आत्मसमर्पण या यूक्रेन की सेना के टुकड़े करना. सबसे अंतिम चीज जो वो चाहेंगे वह ये कि शहर को जबरन कब्जे में ले लें और ये किसी भी सेना के लिए बहुत मुश्किल होता है जैसा कि लेबनान में इजरायलियों ने महसूस किया था.
सैन्य संतुलन की बात करें तो सीधी लड़ाई में ऐसी बहुत कम उम्मीद है कि यूक्रेन की सेना रूस की फायर पावर का सामना कर पाएगी, लेकिन अगर ये लड़ाई विद्रोह में बदल जाती है तो रूस मुश्किल में पड़ जाएगा क्योंकि, उनके पास वो संख्या नहीं है और उसे बिना इच्छा के जबरन भर्ती किए गए सैनिकों का इस्तेमाल इस लड़ाई में शुरू करना पड़ेगा.
अभी तक ये युद्ध रूस में लोकप्रिय नहीं है और कुछ महीने अगर ये लड़ाई और चली तो व्लादिमिर पुतिन के लिए स्थितियां और बदतर हो जाएंगी.
यूक्रेन कोई छोटा देश नहीं है. आकार में ये भारत के उत्तर प्रदेश और राजस्थान को मिला लें तो उतना बड़ा होगा. यहां की आबादी करीब 44 मिलियन है इसलिए 200,000 सैनिकों के साथ रूसी सेना गुरिल्ला कैम्पेन से लड़ने के लिए काफी नहीं होगी.
भारत जैसे देश जो रूस के प्रति सहानुभूति रखते हैं, इन्होंने युद्धस्थिति को रोकने और कूटनीतिक बातचीत को शुरू करने की बात की. ये एक तरह से उचित लगता है, लेकिन उसके साथ तालमेल नहीं बिठा जो मांग रूस की है वो है, बातचीत से पहले पूरी तरह से आत्मसमर्पण.
रूस का सबसे बड़ा गलत अनुमान राजनीतिक हो सकता है. रूस का यूक्रेन का असैन्यीकरण और नाजियों से देश को मुक्त कराने का लक्ष्य ये दिखाता है कि रूस, यूक्रेन को एक असली देश नहीं समझता बल्कि उसे अपना एक क्षेत्र समझता है, जो उसके हाथ से बाहर चला गया.
इसी वजह से शायद रूस ने ये सोच लिया हो कि उसके सैन्य कार्रवाई शुरू करते ही यूक्रेन तुरंत हार मान लेगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और यहीं से रूस की बड़ी योजना अलग थलग होने लगी.
यूक्रेन को एक स्वतंत्र राष्ट्र के तौर पर मान्यता मिले 30 साल हुए हैं. मध्यकालीन युग से ही ये लंबे समय तक पोलैंड-लिथुएनिया, रूस और सोवियत यूनियन के शासन में रहा है. लेकिन ये कभी स्पष्ट नहीं हो सका है कि लोगों में राष्ट्रीयता की भावना कब और कैसे बसती चली जाती है. हमारा अपना दक्षिण एशियाई अनुभव दिखाता है कि कैसे सिर्फ 20 सालों में पाकिस्तान एक मजबूत राष्ट्र के तौर पर उभरा और कई तरह की गलतियों के बाद भी उसने खुद को अब तक बचाए रखा है. हालांकि इनमें से ज्यादातर उसकी खुद की थोपी गई गलतियां थीं.
Organisation for Security Cooperation in Europe (OSCE) का Minsk II समझौता, जिसमें फ्रांस और जर्मनी ने रूस और यूक्रेन के बीच मध्यस्थता की थी, इसके जरिए यूक्रेन के अलग अलग भागों में तनाव को खत्म करने के लिए एक समाधान दिया गया था. खास तौर से जब से साल 2014 में Luhansk और Donetsk क्षेत्र अलग हुए.
इसके तहत यूक्रेन में अलग हुए क्षेत्रों की सरकारों के साथ संवैधानिक सुधार नजर आ सकते थे, लेकिन इस समझौते के नियमों को कभी लागू ही नहीं किया गया.21 फरवरी को युद्ध की शुरुआत के तौर पर रूस ने Luhansk और Donetsk को स्वतंत्र गणतंत्र के रूप में मान्यता दे दी और ये घोषणा कर दी कि Minsk समझौते अब काम नहीं कर रहे हैं.
रूस की स्थिति के साथ सहानुभूति न हो, ऐसा मुश्किल है. 18वीं सदी के बाद करीब करीब हर सदी में पश्चिम द्वारा किसी देश पर आक्रमण देखा गया है. और यहां इसे लेकर स्पष्ट हो जाइए कि NATO क्या है? ये सामूहिक सुरक्षा संंगठन हो सकता है लेकिन इसका एकमात्र टार्गेट रूस है.
लेकिन इन सबके बाद भी पुतिन का यूएन चार्टर के आर्टिकल 51 के तहत आत्मरक्षा के नियम की बात करना पूरी तरह से कल्पना पर आधारित है क्योंकि, ये अनुच्छेद मुश्किल से ही उस प्रत्याशित आत्मरक्षा को उचित ठहराता है, जैसा कदम पुतिन ने उठाया है. यूएन चार्टर के अनुसार पुतिन को इस मामले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पास लेकर जाना चाहिए और इसके बाद उसकी मंजूरी से ही अपना ये तथाकथित स्पेशल मिलिट्री ऑपरेशन शुरू करना चाहिए.
रविवार को इजरायली प्रधानमंत्री Naftali Bennett ने इजरायल के मध्यस्थ बनने का प्रस्ताव दिया. इजरायल के दोनों देशों से अच्छे संबंध हैं और पिछले साल अक्टूबर में बेनेट ने पुतिन को ये प्रस्ताव दिया था कि वो दोनों देशों की समस्याओं पर काम करने के लिए रूस—यूक्रेन समिट रखें. लेकिन पुतिन ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था.
फिलहाल रूस और यूक्रेन के बीच बातचीत का जो दौर चल रहा है उसमें उम्मीद की बहुत छोटी सी चमक ही नजर आती है, लेकिन ये बस एक चमक भर ही है और युद्ध अभी तक जारी है.
यूक्रेन मामले का समाधान हर किसी के सामने मुंह बाए खड़ा है. साल 2009 में चीन के एक बड़े स्कॉलर Shiping Tang ने एक प्रस्ताव देते हुए कहा था कि यूक्रेन की संस्कृति और भाषा के अंतर को देखते हुए इसका रास्ता ये है कि यूक्रेन यूरोपियन यूनियन का सदस्य बन जाए लेकिन स्वैच्छिक रूप से नाटो की सदस्यता को अस्वीकार कर दे. ये एक आश्वासन के साथ आएगा जहां नाटो और रूस दोनों यूक्रेन की तटस्थता और क्षेत्रीय अखंडता की गारंटी देंगे. उनके विचार से ये यूक्रेन के साथ रूस और यूरोपीय देशों के भी हित में होगा.
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली के एक विशिष्ट फेलो हैं. यह एक राय लेख है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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