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रूस से युद्ध में यूक्रेन भले ही कमजोर साबित हो रहा है, लेकिन पुतिन 'हार' रहे हैं

अमेरिका और NATO के नेता कोशिश में हैं कि वो रूस के आक्रमण को पूरी तरह से अकेले पुतिन के फैसले के रूप में दिखा सकें

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रूस और यूक्रेन (Russia Ukraine War) के बीच लड़ाई के कई मोर्चे हैं. इसमें यूक्रेन पर रूस का आक्रमण और युद्ध है, यूक्रेन के राष्ट्रपति Volodymyr Zelenskyy के नेतृत्व में यूक्रेन का प्रतिरोध है, नाटो और रूस का तनाव है, रूस पर नाटो के प्रतिबंध हैं और इस बीच संयुक्त राष्ट्र और दुनिया भर के न्यायालयों में एक कूटनीतिक लड़ाई और अपने हितों में वैश्विक संवेदना पाने के लिए एक इंफॉर्मेशन वॉर भी है.

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रूस सभी मोर्चों पर कमजोर नजर आ रहा है. रूस की सैन्य कार्रवाई का वो असर नहीं दिखा जैसा रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने सोचा था. ये उनके उस फैसले से भी साबित हो गया जब उन्होंने कार्रवाई को और ज्यादा गति देने की बात की और इसे परमाणु हथियारों पर ले गए.

ये कदम सिर्फ उस धारणा को बनाने में योगदान देंगे जो पश्चिमी मीडिया के कुछ धड़े ग्लोबल पब्लिक ओपिनियन को बनाने में दिखाना चाहते हैं और वो ये कि पुतिन शायद इतने समझदार नहीं हैं. ये उस तथ्य से अलग है कि स्ट्रैटजिक टर्म्स में रूस के न्यूक्लियर डिफेंस फोर्सज को सक्रिय करना अमेरिका और उसके नाटो सहयोगी को एक मजबूत इशारा है कि पुतिन तनाव को और बढ़ाने को तत्पर हैं.

पुतिन की लड़ाई

अमेरिका और NATO के नेता इस कोशिश में हैं कि वो रूस के आक्रमण को पूरी तरह से अकेले पुतिन के फैसले के रूप में दिखा सकें. इसलिए इस हमले को पुतिन की लड़ाई के तौर पर दिखाया जा रहा है. वहीं ये दिखाने के लिए कि इस युद्ध को रूस में कोई लोकप्रिय समर्थन नहीं है, रूस के कुछ शहरों में हो रहे छोटे मोटे प्रदर्शन भी दिखाए जा रहे हैं.

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संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की स्थायी प्रतिनिधि Linda Thomas-Greenfield ने 27 फरवरी को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में यूक्रेन पर रखी गई बैठक में यही किया.

इसलिए पुतिन का ये दिखाने का प्रयास कि रूस का राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद पूरी तरह से उनके साथ है, वैश्विक रूप से बन रहे विचार में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं लाएगा.

पूरा ध्यान पुतिन को एक ऐसे गैरजिम्मेदार नेता के तौर पर दिखाना है जो भावुक होकर काम कर रहा है और आने वाले समय में कूटनीतिक रूप से और मीडिया में, ये और अधिक तीव्र होगा. इसकी गूंज सिर्फ यूरोप के लोगों में नहीं, बल्कि दुनिया की बाकी जगहों पर भी सुनाई देगी.

पुतिन के लिए जो भी सहानुभूति थी उसे NATO ने धीरे-धीरे किनारे धकेल दिया है. NATO ने सुरक्षा हितों को लेकर रूस की अपील को अनदेखा किया और इसे नहीं माना. अब यूक्रेन पर आक्रमण के बाद ये पूरी तरह से गायब हो चुका है.

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तथ्य ये है कि यूक्रेन पर आक्रमण करके रूस ने एक रेड लाइन को पार किया. इस तरह की कार्रवाई अस्वीकार्य है, खास करके आधुनिक दुनिया में, जिसमें यूरोप भी शामिल है और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उसने कोई आक्रमण नहीं देखा है.

Caucasus, Chechenia में और यूगोस्लाविया के अलग होने के समय उत्तरी आयरलैंड में हिंसा और सैन्य कार्रवाई हुई थी पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी यूरोपीय देश ने परमाणु शक्ति संपन्न और वीटो रखने वाले एक ऐसे स्थायी सदस्य को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अकेला छोड़ दिया हो, जिसने किसी दूसरे देश पर आक्रमण किया.

चीन और रूस

हाल के घटनाक्रम ने यूरोप और पूरी दुनिया को झटका दिया है. चाहे उकसावा किसी भी तरह का हो, ये कार्रवाई सभी देशों यहां तक कि चीन के लिए भी अस्वीकार्य है, जो रूस का करीबी है. चीन 24 और फिर 27 फरवरी को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस के खिलाफ पेश किए गए प्रस्ताव पर वोटिंग से गैरहाजिर रहा.

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साफ है कि वो खुद को रूस से दूर ही रख रहा है और रूस अपने वीटो का इस्तेमाल करने के लिए अकेला रह गया है. 24 फरवरी को अपने बयान में चीन ने रूस के सुरक्षा हितों को समझते हुए संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को बनाए रखने की बात की.

हालांकि 27 फरवरी को अपने बयान में चीन ने संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का जिक्र छोड़ दिया. ये रूस के लिए एक रियायत थी, खास तौर से अगर इसे चीन के उस संदर्भ के लिहाज से देखा जाए जिसमें उसने रूस की सुरक्षा जरूरतों की बात की थी.

इस पर उसने कहा कि यूरोपियन यूनियन और रूस को यूरोपियन सिक्योरिटी पर चर्चा करनी चाहिए और एक “European Security Mechanism” पर आना चाहिए, जो अविभाज्य सुरक्षा के सिद्धांत को बनाए रखे और संतुलित, प्रभावी होने के साथ दीर्घकालिक हो. कुल मिलाकर दुनिया यही समझेगी कि चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस को अकेला छोड़ दिया और ये रूस के प्रति एशियाई और वैश्विक समझ को भी पोषित करेगा.

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यूक्रेन के लोगों का साहसी प्रतिरोध

पश्चिमी और वैश्विक मीडिया यूक्रेन पर रूस के आक्रमण की लाइव तस्वीरें दिखा रहा है. इसमें यूक्रेन की सरकार और वहां के लोगों के साहसी प्रतिरोध पर खास तौर पर जोर दिया जा रहा है. मीडिया ये भी दिखा रहा है कि कैसे यूक्रेन के लोग पड़ोसी देशों की तरफ भाग रहे हैं. इससे पुतिन के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गुस्सा और नाराजगी बढ़ रही है. पश्चिमी मीडिया की ताकत और इसका प्रसार ऐसा है कि कोई संभावना नहीं कि रूस का बयान वैश्विक रूप से उसके खिलाफ जो समझ बनी है, उसे बदल सकेगा.

संयुक्त राष्ट्र में रूस के स्थायी प्रतिनिधि ने भी इस पर खेद जताया कि पश्चिमी मीडिया यूक्रेन की सेना द्वारा डोनबास क्षेत्र में विध्वंस को रूस की सेना की करतूत बताकर इसकी तस्वीरें दिखा रहा है और बेशर्मी से झूठ फैला रहा है.

लेकिन पश्चिमी मीडिया की बेहद सजीव तस्वीरों को लेकर इस तरह के बयान किसी पर भी प्रभाव डाल रहे हैं, ऐसा बिल्कुल नहीं लगता.

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दरअसल, परसेप्शन वॉर यानी एक समझ और सोच की लड़ाई रूस के खिलाफ जा रही है. इसमें वो मायने या उस तरह की कुशलता नहीं है जो पश्चिम से मुकाबला करे. इसके अलावा उनके मीडिया मैनेजर्स की वो मौलिक समस्या भी इसमें शामिल है, जिसमें वो आक्रमण को यूक्रेन के खिलाफ सही जवाबी कार्रवाई ठहरा रहे हैं और नाटो के उकसावे के साथ रूस की सुरक्षा चिंताओं के प्रति यूक्रेन की बेपरवाही को दिखाते हैं.


सोवियत यूनियन के समय में ग्लोबल ओपिनियन मेकर्स के धड़े का समर्थन था, जो सोवियत की शक्ति और कम्यूनिज्म में यकीन रखने वाले लोगों की सैद्धांतिक प्रतिबद्धता की वजह से था. आज रूस के पास ये सहूलियत नहीं है. रूस और खास करके पुतिन आज वैश्विक विचारों के कटघरे में खड़े हैं.

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