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किसी महापुरुष को बड़ा करने के लिए किसी अन्य महापुरुष को कमजोर दिखाना यह केवल उस समाज के अपरिपक्व होने, और इतिहास का अध्ययन न होने का परिचय देता है. भारत में विनायक दामोदर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) एक ऐसा नाम है जिनको उनकी पूर्णता में न उनके जीते-जी, न उनके मरणोपरांत देखा गया.
अगर आज सावरकर होते तो मैं उनसे अवश्य पूछता कि आपके जीवन में वर्तमान हो या इतिहास इतना विरोधाभास क्यों दिखता है? आप भी वैसे ही क्रांतिवीर रहे हैं जैसे अनेकानेक लोग और रहे हैं, आपको ब्रिटिश सरकार ने मृत्यु दंड नहीं दिया पर आपके जीवन को मृत्युदंड से कम भी नहीं छोड़ा.
फिर भी आपने हार ना मानी, जब आप पर दुबारा 1950 से फिर से वही बंदिश लगी तब भी आपने हार ना मानी. बंदिश का ये सिलसिला आगे भी चला. ब्रिटिश सरकार के बाद सिर्फ भारत सरकार ने ही नहीं, उन्हें इतिहास में भी निर्वासन की स्थिति से गुजरना पड़ा.
सावरकर के परिवार के तीनों भाइयों ने अपना जीवन या तो जेलों में व्यतीत करके ही बिताया या सरकार के जुल्म सहते सहते, सावरकर और उनके बड़े भाई दोनों ने कालापानी की सजा झेली. अगर कालेपानी की सजा और उसके जुल्म को पढ़ना है तो पढ़ें उन किताबों को जहां इस कर्कश जीवन के बारे में लिखा है. आप पढ़ें , बरीन घोष को, जो श्री अरविंद के भाई थे, उनको भी कुछ वर्ष कालेपानी में रखा गया था, आप उनके द्वारा लिखी किताब के आकलन को तो नहीं नकार सकते?
सावरकर के हृदय की पीड़ा हर उस एक क्रांतिकारी के हृदय की पीड़ा है जिसका परिवार उससे बिछड़ गया था , जो अपने परिवार का लालन पोषण भी ना कर सके , जुल्म इतना था कि समाज के अधिकतर लोग भी अंग्रेजों के जुल्म से भयभीत इनसे मिलना भी पसंद नहीं करते थे.
कालेपानी की सजा से मुक्ति मिली भी ना थी कि सावरकर को कहा गया- अगर राजनीतिक आंदोलनों में भाग लिया तो फिर से सलाखों के पीछे बंद कर दिए जाओगे, सावरकर को रत्नागिरी में निर्वासित जीवन के लिए भेज दिया गया .
अंग्रेजी हुकूमत ने कहा कि वहां से कहीं बाहर जा नहीं सकते अगर जाओगे तो सरकार से आदेश लेकर ही. उन्होंने अपने भरण पोषण के लिए कोर्ट में जाने के लिए निवेदन दिया पर अंग्रेजी सरकार ने उसे भी अस्वीकार कर दिया, ब्रिटिश हुकूमत नहीं मानी. आप सोचिए कि ना आपके पास जमीन है खेती करने के लिए , ना घर, ना नौकरी का साधन, ना आप राजनीति कर सकते हैं, फिर जीवन में करें क्या? रोज जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे हो?
सावरकर ने समाज में व्याप्त जातिवाद के खिलाफ अपना हाथ उठाया, उन्होंने कहा कि राष्ट्र निर्माण की एक भूमिका यह भी है. स्वतंत्रता के आंदोलन में अगर भाग नहीं लिया जा सकता तो समाज परिवर्तन के आंदोलन में तो लिया जा सकता है.
उन्होंने समाज में व्याप्त जातिवाद के खिलाफ सार्थक पहल की. वो चाहे सहभोजन का आंदोलन रहा हो या फिर कुछ समुदायों के मंदिर में प्रवेश निरोध के विरोध में आवाज, हिंदू समाज में व्याप्त बुराइयों के बावत वो लगातार अपना कार्य करते रहे. यही नहीं शिक्षा में फैले जातिवाद के खिलाफ उन्होंने आवाज उठाई.
आपने गांधी जी के विचारों पर टिप्पणी की और गांधी जी ने आपके, पर एक दूसरे के प्रति कोई बैर भाव नहीं रखा? इतिहासकारों आपके साथ वही व्यवहार किया जैसे किसी अछूत के साथ किया जाता था.
सावरकर आज होते तो कहते-मेरी जेल से छूटने की यात्रा असल में तब आरम्भ होगी जब मेरा विचार भारत में सहेजा जाएगा, उस पर चिंतन होगा, आरोप और प्रत्यारोप नहीं.
(इस आलेख को लिखने वाले वक्ता, लेखक और आनंदा ही आनंदा (AHA), जो कि एक गैर व्यावसायिक संगठन है, के संस्थापक हैं. यह आलेख एक क्विंट मेम्बर ने लिखा है और ये लेखक के अपने विचार हैं. क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है और न ही हम इनके लिए जिम्मेदार हैं.)
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