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3 जनवरी 1831 को सावित्रीबाई फुले का जन्म हुआ था. 2023 में उनकी 193 वी जयंती हैं. 2030 में उन्हे 200 सौ साल पूरे हो जायेंगे. पूरे देश में उनकी जयंती मनाई जा रही है. अभी भी लोग सावित्री बाई के बारे में (खास तौर पर हिंदी भाषिक) बहुत प्रश्न उपस्थित कर रहे हैं. उनका एक सवाल यह भी है कि क्या सावित्री बाई ने टीचर्स ट्रेनिंग लिया था? उनको ये वास्तविकता स्वीकार करने में अभी भी दिक्कत होती है कि एक माली जाती में जन्मी लड़की ने स्त्री शिक्षा का इतिहास रचा.
19वीं सदी तक यानि 2000 सालों से इस देश में शुद्र, अतिशुद्र और महिलाओं को लिखने, पढ़ने का, शिक्षा लेने का अधिकार पूरी तरह नकार दिया गया था. ब्राह्मण जाति या किसी भी उच्च जाति की भी स्त्री पढ़, लिख नहीं सकती थी. इसका अर्थ यह है कि उच्च जाति की स्त्रियां भी मनुस्मृति और सनातन ब्राह्मण धर्म के अनुसार शुद्र मानी जाती थीं.
हालांकि, उस समय महिलाओं के लिए स्थानीय भाषाओं में स्कूल नहीं थे और शुद्र, अतिशुद्रों को उच्च जाति के लोगों के स्कूल में प्रवेश नहीं था. ब्रिटिश शासकों ने जो स्कूल खोले थे, उसमें स्त्रियों को और शुद्र, अतिशुद्रों को प्रवेश था, लेकिन वहां प्रवेश लेना यानि धर्म के खिलाफ जाना एक दहशत थी. इस तरह की रूढ़िवादी, मनुवादी और धर्मांधतावादी ताकत को चुनौती देना आसान नहीं था. महात्मा जोतीराव फुले और सावित्री बाई फूले ने कट्टरपंथी समाज को चुनौती दी.
जोतिराव फुले ने सावित्री बाई को पढ़ने के लिए मिशनरी स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजना शुरू किया. सावित्री बाई फुले ने मिसेज फरेरा के यहां अपनी शिक्षा प्राप्त की. उस समय मिसेस सिंथिया फरेरा जो अमेरिकन Educationist थी, और सावित्रीबाई ने उनके पास अहमदनगर में शिक्षिका बनने का प्रशिक्षण लिया. इम्तिहान में अपनी काबिलियत साबित की और प्रमाणपत्र प्राप्त किया.
हाल ही में पढ़ी, महबूब सय्यद जी की एक पोस्ट से ये पता चला कि सिंथिया फरेरा के यहां टीचर्स ट्रेनिंग लेने वाली सावित्री बाई फुले के साथ उनकी करीबी दोस्त फातिमा शेख जी भी थीं. फातिमा शेख इस देश की प्रथम मुस्लिम महिला अध्यापक हैं. वे भी 1848 से सावित्री बाई की प्रमुख सहकारी अध्यापक रहीं. फातिमा शेख जी को विनम्र अभिवादन. रूकैया सखावत हुसैन के पहले फातिमा शेख 1848 में पहली मुस्लिम महिला शिक्षक के तौर पर अपनी पूरी जिंदगी में कार्य करती रहीं.
जब सावित्री बाई फुले अपने स्कूल में पढ़ाने गईं, तब पुणे के ब्राह्मण लोग बहुत संतप्त हुए. वे सावित्री बाई फुले पर पत्थर, गोबर, मिट्टी फेंकने लगे, फिर भी सावित्री बाई ने पढ़ाना बंद नहीं किया. वे अपने साथ एक और साड़ी थैली में लेकर जाती थीं. स्कूल में जाने के बाद वे अपने गोबर, मिट्टी से सने कपड़े बदल लेती थीं और धोकर सुखाने के लिए डाल देती थीं और साथ में जो एक साड़ी लेकर जाती थीं, पहनकर अपना अध्यापन कार्य करने लगती थीं. तब फुले जी ने सावित्री फूले जी के साथ लहूजी और राणोजी ये दोनों पहलवानों की सुरक्षा सैनिक के नाते नियुक्ति की.
1850 में बालकृष्ण भिड़े ब्राह्मण रूढ़िवादी कर्मठ लोगों के दबाव और दहशत के आगे झुक गए. आखिर जोतीराव और सावित्री बाई को अपना स्कूल बंद करना पड़ा. लेकिन, 1852 में फिर से यह स्कूल खोला गया. तब उस्मान शेख जी ने जोतीराव फुले को अपना घर स्कूल चलाने के लिए दान किया. इस स्कूल में सावित्री बाई के साथ फातिमा भी निरंतर पढ़ाती रहीं.
सावित्री बाई फुले इस स्कूल में जिन लड़कियों को या बाल विधवा स्त्रियों को पढ़ाती थीं, वहां जाति और धर्म के नाम पर भेदभाव करने को संपूर्ण मनाही थी. सब छात्राएं एक साथ बैठती थीं, एक साथ खाना खाती थीं, एक ही कुएं का पानी पीती थीं. इस तरह की अछूत, शुद्र,सवर्ण, उच्च वर्णीय और ब्राह्मण जाति की महिला छात्र एक साथ पढ़ती थीं. इस तरह समानता का आदर्श रखने वाले ऐसे स्कूल की मिसाल 19वीं सदी में भारत के अन्य प्रदेशों में कहीं दिखाई नहीं देता है.
समाज शास्त्रीय अनुसंधान द्वारा जो तथ्य सामने आते हैं, उसके मुताबिक यह पता चलता है कि जो भी भारत देश के स्थानीय स्कूलों के संस्थापक रहे, उन्होंने कहां जाकर उस समय अध्यापक ट्रेनिंग स्कूल से प्रशिक्षण प्राप्त किया था. ऐसे लोगों की संख्या कितनी थी, ये सवाल नहीं पूछा जाता, लेकिन वो सावित्री बाई या जोतीराव फुले जी के प्रति संदेह व्यक्त करते हैं, इसके पीछे उनकी मनुवादी, जातीयवादी भूमिका होती है.
इतना ही नहीं जिन पुरुषों ने फूले जी के बाद में भी स्कूल खोले उनके पास भी टीचर्स ट्रेनिंग का सर्टिफिकेट नहीं था. जैसे कि लोकमान्य तिलक और जब महात्मा फुले ने स्कूल शुरू किया और सावित्रीबाई प्रथम शिक्षिका (अध्यापक) बनीं, तब तिलक, आगरकर, रानडे और पंडिता रमाबाई का जन्म भी नहीं हुआ था. बहुत बार लोग इन ब्राह्मण जाति में जन्मे विद्वानों को फूले के पहले के शिक्षक बताने की और जताने की कोशिश करते हैं.
चूंकि शिक्षा का श्रेय ब्राह्मण जाति को प्राप्त हो, लेकिन तिलक और आगरकर का जन्म (1856) और पंडिता रमाबाई का जन्म (1858) में हुआ था. सावित्री बाई जब शिक्षिका बनीं, उस के 10 साल बाद पण्डिता रमाबाई का जन्म है, ये बिना जाने लोग इनकी फूले दंपती के साथ तुलना करते हैं. इसलिए सतयशोध जरूरी है.
1855 में उनके स्कूल की छात्राओं का इम्तिहान रखा गया था. तब अंग्रेजी अखबार में ये खबर छपकर आई थी. तब पुणे के 3000 ब्राह्मण पुरुष विश्रामबाग वाड़ा के पास जहां परीक्षा होने वाली थी, वहां जाकर खड़े हो गए. उनके लिए ये धर्म विरोधी बात थी. लेकिन, अंग्रेज सरकार ने इस समय बाहर पूरी सुरक्षा व्यवस्था रखी थी. इसके बारे में आपको उस समय के ज्ञानोदय और बॉम्बे गैजेट और मराठी ज्ञान प्रसारक जैसी पत्रिकाओं में विस्तार वृतांत प्रसिद्ध हुआ था, उस से जानकारी मिलेंगी.
ब्राह्मण लड़कियां और विधवा महिलाओं को पढ़ाने वाली प्रथम महिला भी (1848) संपूर्ण भारत में सावित्रीबाई फुले थीं. आप को यह जानकारी हिंदी में कम उपलब्ध होंगी, क्यों कि हिंदी भाषिक प्रदेशों में महिलाओं की शिक्षा की शुरुआत 1868 के बाद यानि दो दशक बाद हुई.
सावित्रीबाई और फातिमा शेख की प्रेरणा से महिला शिक्षा की शुरुआत हिंदी प्रदेश में होने के बावजूद इनके बारे में बहुत कम लोगों ने तबके हिंदी समाचारों में लिखा था. लेकिन, महात्मा फुले ने स्थापन किए सत्यशोधक समाज का साहित्य हिन्दी में 1900 में धीरे धीरे उपलब्ध होना शुरू हुआ था. सत्यशोधक समाज का प्रसार जब मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में हुआ, तब हिंदी भाषा में कुछ सत्यशोधकी साहित्य अनुदित होकर प्रकाशित हुआ. लेकिन, सत्यशोधक समाज का साहित्य मुख्य माध्यम कर्मी और लेखक, विचारकों ने ये साहित्य क्रांतिकारक है और परंपरा विरोधी हैं, ऐसा बताकर लोगों के पास पहुंचने नहीं दिया.
सावित्री बाई के साथ इन लड़कियों की स्कूल में पढ़ाने के लिए फातिमा शेख , सरस्वती गोवंडे भी जाती थीं. तब उनके स्कूल में एक अछूत जाति की लड़की मुक्ता साल्वे पढ़ती थी. मुक्ता जैसी अलग अलग जातियों की कितनी सारी लड़कियां एक साथ पढ़ने लगीं. तब 13 साल की मुक्ता ने मांग, महार के दुखों के बारे में एक निबंध लिखा था. आज इस निबंध को मराठी साहित्य का पहला निबंध माना जाता है. 1852 में मराठी प्रस्थापित साहित्य में प्रथम निबंधकार का श्रेय विष्णुशास्त्री चिपलूनकर को दिया जाता है, जबकि वास्तविकता यह है कि सावित्री बाई फुले की एक छात्रा मुक्ता साल्वे प्रथम निबंधकार थीं.
इस 13 साल की दलित लड़की मुक्ता साल्वे के निबंध का शीर्षक था "मांग महार" (अछूत जाति) के दुख के बारे में. आज भी इस निबंध का साहित्य का मूल्य, अमूल्य है. सत्यशोधक समाज ने इस देश को ही नहीं विश्व के सभी देशों की पहली स्त्री वादी निबंधकार प्रदान किया. सत्यशोधक समाज की कार्यकर्ता ताराबाई शिंदे का यह निबंध प्रसिद्ध नारीवादी सिमोन दी बूआ के 50 साल पहले लिखा, जिस का शीर्षक था "स्त्री पुरुष तुलना".
सावित्रीबाई ने अपने स्कूल में कभी भेदभाव नहीं किया और ब्राह्मण महिलाओं को, लड़कियों को भी पढ़ाया. ब्राह्मण विधवा महिलाएं जिन के पति मर जाने के बाद उन्हे सती हो जाना पड़ता था और जो सती नहीं हुई उन्हे बहिष्कृत किया जाता था. उनकी इस कमजोर स्थिति का फायदा उठाकर घर के रिश्तेदार उनके साथ शरीर संबंध रखते थे. लेकिन, अगर वो औरत गर्भवती हुई तो उसको कलंकिनी घोषित कर उसके बच्चे को नाजायज घोषित करते थे. ऐसी हालत में बहुत सी ब्राह्मण युवा विधवायें गर्भपात कराना चाहती थीं, जिसमें उनकी भी मृत्यु हो जाती थी. बच्चे पैदा होते भी तो परिवार संभालते नहीं थे, इसलिए वे लावारिस हो जाते थे. तब सावित्रीबाई ने और जोतीराव फूले ने विश्व का पहला बाल हत्या प्रतिबंध गृह खोला.
जोतिराव के मृत्यु के बाद सार्वजनिक सत्यधर्म, सत्यशोधक समाज का कार्य सावित्री बाई फुले और उनके सहकारियों ने निरंतर शुरू रखा. 1896 में जब प्लेग का फैलाव हुआ तब सावित्री बाई और उनके पुत्र यशवंत ने प्लेग से बाधित दलित रुग्णों की सेवा की, उन के लिए बस्ती से दूर अस्पताल और कैंप खोला.
10 मार्च 1897 को एक दलित बच्चे को कंधे पर लेकर अस्पताल में पहुंचाते समय सावित्री बाई को भी प्लेग बीमारी का संसर्ग हुआ और उन का निधन हो गया. अपने जीवन की अंतिम सांस तक जिन्होंने ये लड़ाई लडी, ऐसी थी सावित्रीबाई फुले. समानता, समता, स्वतंत्रता, मित्रता और धर्मनिरपेक्षता इन पांच मूल्यों को अपने विचार और कृतियों में लानेवाली सावित्री और जोतिराव फुले ये आदर्श सहजीवन का भी एक प्रतीक हैं. ऐसी एक विश्वरत्न निर्भय विदुषी, अध्यापक, विचारक, कवयित्री, क्रांतिकारक और मानवतावादी संवेदनशील सत्यधोधक सामाजिक कार्यकर्ता सावित्री बाई फुले को मेरा विनम्र अभिवादन.
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