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देश की महिला शिक्षक, सावित्रीबाई फुले, एक तो पिछड़ी, ऊपर से महिला. सावित्री बाई ने अपनी जिंदगी में जो हासिल किया और जिन हालात में, जिस ब्राह्मणवाणी सोच वाले समाज में हासिल किया. वो अकल्पनीय है. आज देश ही नहीं दुनिया भी उनके योगदान का मुरीद है लेकिन विडंबना देखिए कि आज शिक्षक बनने की उनकी काबिलियत पर कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं. वो पिछड़ी थीं इसलिए उनपर ऐसे सवाल फेंके जा रहे हैं या वजह कुछ और है, इस बहस में नहीं पड़ते हैं और बताते हैं कि सच क्या है? वैसे पड़ताल में जाने से पहले ये साफ कर दें कि सावित्रीबाई का कद इतना बड़ा है कि ऐसे हमलों से उनकी छवि पर रत्ति भर आंच नहीं आने वाली. और ये बात भी सच है कि उनके जीते-जी उनपर किचड़ उछाला गया, लेकिन वो अपने कर्मयोग में लगी रहीं. पिछड़ी होने के बावजूद जब वो पढ़ाने जाती थीं तो कथित सर्वण उनपर गोबर फेंक देते थे. लेकिन सावित्री बाई इन्हें नजरअंदाज कर अपने काम में लगी रहती थीं. आज सियासत में कहानी इन्हीं सावित्री बाई फुले की.
3-4 साल की एक लड़की दुकान से कुछ खाने का सामान हाथ में लिए अपने घर लौट रही होती है, तब रास्ते में उसे मिशनरी की प्रार्थना सभा की आवाज सुनाई पड़ती है. वो वहीं रुककर उसे देखने लगती है और हाथ में रखा खाना खाने लगती है. लड़की को रास्ते पर खाते देख एक मिशनरी की औरत आती है और बच्ची को बड़े प्यार से समझाती है कि यूं रास्ते पर खड़े होकर कुछ नहीं खाया जाता, घर ले जाकर खाओ. बच्ची मान जाती है. बच्ची देखती है कि उसे समझाने वाली महिला एक किताब किसी को भेंट कर रही होती है.
बच्ची कहती है कि मुझे भी ये चाहिए. महिला समझाती है कि आप इसे नहीं पढ़ सकती है, लेकिन बच्ची जिद्द करने लगती है, तब महिला उसे ये कहते हुए किताब दे देती है कि अच्छा लो पढ़ नहीं सकती तो कम से कम इसमें जो चित्र हैं उसे तो देख ही सकती हो. जब बच्ची उस किताब को लेकर घर पहुंचती है तो उसके पिता उस किताब को लेकर फेंक देते हैं. और कहते हैं कि पढ़ाई महिलाओं के लिए नहीं है. लेकिन, वो लड़की मानती नहीं है. जब पिता चले जाते हैं तो बच्ची दोबारा उस किताब को लाकर रख लेती है. लड़की का किताबों के प्रति यही प्यार उसे देश की पहली महिला शिक्षक होने का गौरव प्राप्त करवाता है.
तो पहली बात ये है कि कोई बिना किसी संस्थागत ट्रेनिंग के भी टीचर बन सकता है लेकिन अगर बात यहां सर्टिफिकेट की ही हो रही है तो कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी में हिंदी विभाग के एचओडी प्रोफेसर सुभाष सैनी ने क्विंट से बताया कि..
शिक्षक का प्रमाण पत्र मिलने के बाद सावित्रीबाई फुले ने दलित-वंचित समाज के नारकीय जीवन को तोड़ने के लिए अज्ञानता के खिलाफ जंग छेड़ दी. सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले ने 1848 में लड़कियों के लिए पुणे के बुधवार पेठ में एक स्कूल खोला. इसी स्कूल में सावित्रीबाई शिक्षिका हुईं और देश की पहली महिला शिक्षक होने का गौरव प्राप्त हुआ.
सावित्रीबाई फुले की क्रांति में एक मुस्लिम महिला ने भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. जो आगे चलकर पहली मुस्लिम अध्यापिका बनी. उनका नाम था फातिमा शेख. सावित्रीबाई फुले ने जो स्कूल स्थापित किया था उसी स्कूल में फातिमा शेख ने अध्यापन प्रशिक्षण पूर्ण किया था. सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख मिलकर अछूत बच्चों के स्कूल का संचालन करती थीं.
'क्रांति ज्योति सावित्रीबाई फुले कोश' लिखने वाले और सिद्धार्थ यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर बाल गंगाधर बताते हैं कि...
एक बार फुले दंपति स्कूल में पढ़ाने और अपना दिन का काम पूरा करने के बाद आधी रात को आराम कर रहे थे. अचानक नींद टूटने पर मंद रोशनी में दो लोगों की छाया दिखी तो सावित्रीबाई फुले ने जोर से पूछा कि कौन है वहां? तब तक उधर से एक ने आवाज दी कि 'हम तुम्हें खत्म करने आए हैं' तो दूसरा चिल्लाया कि 'हमें तुम्हें यमलोक भेजने के लिए भेजा गया है.' तब तक ज्योतिबा फुले भी जाग गए. उन्होंने आवाज सुनते ही पूछा कि "हम लोगों ने तुम्हारा क्या नुकसान किया है कि तुम हमें मारना चाहते हो.
उन दोनों ने उत्तर दिया कि तुमने हमारा कोई नुकसान नहीं किया है लेकिन तुम्हें मारने के लिए हमें भेजा गया है. इसके लिए हमें एक-एक हजार रुपए मिलेंगे. यह सुनकर महात्मा फुले ने कहा कि "अरे वाह! मेरी मृत्यु से आपको लाभ होने वाला है, इसलिए मेरा सिर काट लो. यह मेरा सौभाग्य है कि जिन गरीब लोगों की मैं सेवा कर खुद को भाग्यशाली और धन्य मानता था, वे मेरे गले में चाकू चलाएं. चलो. मेरी जान सिर्फ दलितों के लिए है. और मेरी मौत गरीबों के हित में है. फुले की बातें सुनकर हत्या करने आए दोनों को होश आया और उन्होंने महात्मा फुले से माफी मांगी और कहा कि "अब हम उन लोगों को मार डालेंगे जिन्हें आपको मारने के लिए भेजा था." इस पर फुले ने उन्हें समझाया कि बदला नहीं बदलाव लाना चाहिए. इस घटना के बाद दोनों महात्मा फुले के सहयोगी बन गए. उनमें से एक का नाम रोडे और दूसरे का नाम था पं. धोंडीराम नामदेव.
साल 1863 में सावित्रीबाई फुले ने ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर "शिशु हत्या प्रतिबंध गृह" शुरू किया. सावित्रीबाई स्मृतिव्याख्यान लिखने वाले हरि नरेक ने लिखा है कि इसमें महत्वपूर्ण बात ये है कि यह गृह केवल ब्राह्मण विधवाओं के लिए ही खोला गया था. क्योंकि, शास्त्रीय परंपराओं और मान्यताओं को यही समाज सबसे अधिक मानता था. शुद्र समाज में तो महिला के विधवा होने पर उसका विवाह कर दिया जाता था.
आखिर में सावित्री बाई पर सवाल उठाने वालों को उनकी ये बात जरूर याद रखनी चाहिए जो खुद सावित्री बाई ने कही थी-मेरे भाइयों मुझे प्रोत्साहन देने के लिए आप मुझपर पत्थर नहीं फूलों की वर्षा कर रहे हैं. तुम्हारी इस करतूत से मुझे यही सबक मिलता है कि मैं निरंतर अपनी बहनों की सेवा में लगी रहूं. ईश्वर तुम्हें सुखी रखें.
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