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Maharashtra: पवार परिवार में आपसी मतभेद, बारामती किले को BJP से कैसे बचाएंगे?

Maharashtra विधानसभा में विपक्ष के नेता Ajit Pawar की नाराजगी ने ज्यादा सुर्खियां बटोरी.

विष्णु गजानन पांडे
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>पवार परिवार में आपसी मतभेद,बारामती किले को कैसे बचाएंगे BJP से?</p></div>
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पवार परिवार में आपसी मतभेद,बारामती किले को कैसे बचाएंगे BJP से?

(फोटो- क्विंट हिंदी)

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दिल्ली में एनसीपी (NCP) के राष्ट्रीय अधिवेशन में शरद पवार (Sharad Pawar) को फिर से पार्टी की बागडोर सौंपी गयी है. वैसे उनका चुना जाना तय ही था. पार्टी के अधिवेशन की तुलना में पार्टी के प्रमुख नेता और महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष के नेता अजीत पवार (Ajit Pawar) की नाराजगी ने ज्यादा सुर्खियां बटोरी.

यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों से पवार खानदान में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है. यहां भी शरद पवार के उत्तराधिकारी को लेकर वाद शुरू है. संभावना यही है कि पारिवारिक राजनीति की बागडोर पवार की बेटी सांसद सुप्रिया सुले (SupriyaSule) ही संभालेंगी. लेकिन अजीत पवार इस पर अपना हक मानते हैं.

सुप्रिया सितंबर 2006 में पहली बार राज्यसभा के लिए चुनी गयीं. 2009 में वे पहली बार बारामती लोकसभा चुनाव क्षेत्र (Baramati Parliamentary constituency Seat) से लोकसभा के लिए चुनी गयीं. उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (Bharatiya Janata Party) (बीजेपी) की कांता जयसिंग नालावाडे को 3,36,831 मतों के अंतर से हराया था.

2014 में 16 वीं लोकसभा के चुनाव में उन्होंने आरएसपी के महादेव जगन्नाथ जानकर को 69,719 मतों  से हराकर अपनी सीट कायम रखी. 2019 में सुप्रिया सुले ने भारतीय जनता पार्टी की प्रत्याशी कंचन राहुल को 155774 वोटों के अंतर से हरा कर लगातार तीसरी बार जीत हासिल की. 2019 में बारामती लोकसभा सीट के लिए 61.53 फीसदी मतदान हुआ जबकि 2014 में यहां 58.83 प्रतिशत वोटिंग रिकॉर्ड की गई थी.

शरद पवार बारामती सीट से 6 बार सांसद रहे हैं

बारामती सीट से शरद पवार छह बार सांसद रह चुके हैं. पवार के भतीजे अजीत पवार भी एक बार थोड़े समय के लिए जून, 1991 से  सितंबर 1991 तक इस क्षेत्र से सांसद रह चुके हैं. पिछले 27 सालों से इस सीट पर कब्जा होने के कारण बारामती को पवार परिवार का गढ़ कहा जाता है. 1957 में बारामती लोकसभा सीट का गठन हुआ. यह सीट कांग्रेस के कब्जे में 1957 से लेकर 1971 तक रही.

1977 में जब देश में आपातकाल विरोधी माहौल बना, तब जनता पार्टी ने यहां जीत हासिल की. हालांकि कांग्रेस ने 1980 में फिर इस सीट पर कब्जा कर लिया. 1984 में हुए लोकसभा चुनाव में शरद पवार ने भारतीय कांग्रेस (समाजवादी) के टिकट पर यहां जीत हासिल की. 1991 में अजीत पवार के छोटे से कार्यकाल के बाद शरद पवार 1991 से 1998 तक कांग्रेस के टिकट पर और बाद में 1999 से 2009 तक राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की ओर से प्रतिनिधित्व करते रहे.

कमजोर है शिवसेना और कांग्रेस की राजनीतिक स्थिति

वर्तमान परिवेश में शिवसेना और कांग्रेस की राजनीतिक शक्ति कमजोर प्रतीत होती है. आंतरिक बगावत के कारण शिवसेना को जबरदस्त झटका लगा है. 2019 में उद्धव ठाकरे (uddhav thackeray) के राजनीतिक दांव से भारतीय जनता पार्टी पस्त जरूर हो गयी, लेकिन उसकी ताकत में कमी नहीं आयी थी.

तीन महीने पहले जो राजनीतिक उठापटक हुई और जिस तरह से शिवसेना का कथित बंटवारा हुआ उसने शिवसेना कमजोर तो हुई ही, उसके नेताओं और कार्यकर्ताओं का मनोबल भी प्रभावित हुआ है.  बीजेपी का यह कहना सच हो सकता है कि शिवसेना के आंतरिक विभाजन में उसका हाथ नहीं है, लेकिन अलग हुए गुट को बाद में जो सहारा, समर्थन और राजनीतिक चालें खेली गयीं उसकी पृष्ठभूमि में बीजेपी की भूमिका स्पष्ट दिखाई देती है.

दूसरे शब्दों में उद्धव ने बीजेपी को सत्ता से दूर रखने में सफलता पाई, लेकिन जब बीजेपी को मौका मिला तो उसने शिवसेना को इस तरह पटका की उसे फिर से पुरानी ताकत पाने और खड़े होने में लंबा समय लगेगा.

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दूसरी बड़ी ताकत है NCP, इसलिए टारगेट बनाया?

महाराष्ट्र में दूसरी बड़ी राजनीतिक ताकत NCP है. एनसीपी कभी भी अपने बलबूते सरकार नहीं बना सकी है, लेकिन विधानसभा चुनाव में दूसरे या तीसरे नंबर की पार्टी बन कर जरूर उभरी है. इसी वजह से वह कभी कांग्रेस के साथ तो कभी शिवसेना के साथ मिलकर सरकार चलाने में सफल रही है.

ड्राइवर कोई भी रहा हो, कभी विलासराव देशमुख (Vilasrao Deshmukh) या उद्धव ठाकरे रहे हों, स्टेयरिंग हमेशा एनसीपी यानी शरद पवार के पास रही है. आने वाले चुनावों में बीजेपी ने एनसीपी को टारगेट बनाकर उसकी स्थिति कमजोर करने का निश्चय किया है.

अजीत पवार, छगन भुजबल, जयंत पाटिल, धनंजय मुंडे भी निशाने पर

यह ध्यान में रखना होगा कि बीजेपी दिखा रही है कि उसका पूरा फोकस बारामती पर है, लेकिन वास्तव में उसने विधानसभा चुनावों में एनसीपी के दूसरे बड़े क्षत्रपों- अजीत पवार, छगन भुजबल (Chhagan Bhujabal), जयंत पाटिल (Jayant Patil), धनंजय मुंडे (Dhananjay Munde), नवाब मलिक (Nawab Malik) जैसों को पटकनी देने के लिए कमर कस रखी है.

लोकसभा चुनाव में एनसीपी की जीत का अंतर घटते क्रम में ही दिखाई देता है. सुप्रिया सुले ने 2009 में बीजेपी की कांता जयसिंग नालावाडे को 3,36,831 मतों के अंतर से हराया था. 2014 में उन्होंने आरएसपी के महादेव जगन्नाथ जानकर को 69,719 मतों  से हराया था. 2019 सुले ने भारतीय जनता पार्टी की प्रत्याशी कंचन राहुल कूल को 155774 वोटों के अंतर से पराजित किया था.

2014 में महादेव जानकर ने दौंड, खडकवासला विधानसभा सीटों पर बढ़त हासिल की थी जबकि सुप्रिया ने बारामती, इंदापूर, पुरंदर और भोर विधानसभा सीटों पर बढ़त पायी थी. 2019 में भाजपा ने पूरी ताकत लगा दी थी, लेकिन कमजोर प्रत्याशी होने के कारण 2014 की तुलना में सुले की जीत का अंतर करीब दुगना हो गया था. उल्लेखनीय है कि 1977 में छठवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में जनता पार्टी के संभाजीराव काकडे ने कांग्रेस के विठ्ठल नरहरी गाडगिल को हराया था. उस समय आपातकाल के खिलाफ पूरे देश में कांग्रेस के विरोध में माहौल था. काकडे की छवि शरद पवार के कट्टर राजनीतिक विरोधी की थी.

अजीत पवार की नाराजगी और समर्थकों की नारेबाजी

दिल्ली में एनसीपी अधिवेशन में जयंत पाटिल को पहले भाषण करने का मौका दिए जाने के कारण अजीत पवार नाराज हो गए और मंच से उठकर चले गए थे. सुप्रिया सुले को अजीत पवार को मनाने के लिए भेजा गया, लेकिन वे आए नहीं. उसी समय बैठक में उपस्थित जयंत पाटिल और अजीत पवार के समर्थकों के बीच जमकर नारेबाजी भी हुई.

अजीत पवार अपनी तुनकमिजाजी, उतावलेपन और मुंहफट स्वभाव के लिए जाने जाते हैं. अप्रैल 2013 में एक सार्वजिक सभा में फसलों के लिए बांधों से पानी दिए जाने की मांग को लेकर अनशन पर बैठे किसानों के लिए उन्होंने कहा था कि बांध में पानी नहीं है तो मूते क्या? उनके इस असंवेदनशील बयान की बहुत आलोचना हुई थी और उन्हें माफी मांगनी पड़ी थी.

2019 में मिलाया था फडणवीस से हाथ, बेटा पार्थ भी है बगावती

2019 में अजीत पवार ने उतावले होकर शरद पवार के खिलाफ बगावत कर उन्होंने देवेन्द्र फडणवीस (Devendra Phadnavis) के साथ 80 घंटे की ‘सुबह की सरकार’ बनायी थी, जिसमें वे उपमुख्यमंत्री थे. अजीत ने दावा किया था कि उनके साथ 40 विधायक हैं, लेकिन ऐन मौके पर उनके साथ एक भी विधायक खड़ा नहीं हुआ.

बाद में जब शरद पवार ने शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की महाविकास आघाड़ी की सरकार बनायी तो अजीत पवार से नाराज होने के बावजूद शरद पवार ने उन्हें उद्धव सरकार में उपमुख्यमंत्री बनाया था. अजीत पवार के बेटे पार्थ अजीत पवार (ParthAjit Pawar) मावल लोकसभा सीट से एनसीपी के प्रत्याशी थे, जिन्हें शिवसेना के  श्रीरंग अप्पा बारणे ने 215913 मतों से पराजित किया था. पार्थ ने कई बार पार्टी की नीतियों के खिलाफ बयानबाजी की है खासतौर पर राममंदिर के संबंध में लिखे पत्र के कारण वे दादा शरद पवार की नाराजगी के शिकार हैं.

बीजेपी की खुली चुनौती के बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता भी बयानबाजी कर रहे हैं. छगन भुजबल का कहना है कि बीजेपी पत्थर से सिर टकराने की कोशिश कर रही है. अच्छा होगा कि वह बारामती सीट के चक्कर में न पड़े. उधर शिंदे गुट के विधायक शहाजी बापू पाटील (SahajiBapu Patil) का कहना है कि इंदिरा गांधी,अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी ये सब लोग चुनाव हार चुके हैं.

खुद डॉ. आंबेडकर चुनाव हार चुके हैं. इतने महान लोग चुनाव हार चुके हैं. इसलिए  चुनाव में किसकी जीत होगी यह कोई भी नहीं बता सकता है.

इस समय माहौल थोड़ा अलग है. एनसीपी में और पवार परिवार में ही मतभेद है तो निश्चित रूप से  बीजेपी इस बार किसी मजबूत उम्मीदवार को मैदान में उतारेगी. इरादा यही होगा कि जीत हो या न हो किले की नींव को हिलाने की कोशिश तो जरूर की जाए.

(विष्णु गजानन पांडे लोकमत पत्र समूह में रेजिडेंट एडिटर रह चुके हैं. आलेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं और उनसे क्विंट का सहमत होना जरूरी नहीं है)

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