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इस सप्ताह फिलिस्तीन के विदेश मंत्री रियाद मलिकी ने अपने भारतीय समकक्ष एस. जयशंकर को लेटर लिखते हुए भारत द्वारा फिलिस्तीन के मुद्दे पर यूनाइटेड नेशंस ह्यूमन राइट काउंसिल(UNHRC) द्वारा लाए प्रस्ताव पर अनुपस्थित रहने के निर्णय की कड़ी आलोचना की. उन्होंने इसे मानवाधिकार को "दबाने" वाला कदम बताया.
'असामान्य रूप से कठोर" टर्म्स का प्रयोग करते हुए मलिकी ने कहा "भारत गणराज्य ने जवाबदेही, न्याय और शांति के रास्ते के इस महत्वपूर्ण और लंबे समय से अपेक्षित टर्निंग पॉइंट पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ खड़े रहने का मौका गंवा दिया". यह भारत जैसे फिलिस्तीनी हक के पुराने सहयोगी और संरक्षक के लिए कठोर शब्द हैं.
UNHRC के प्रस्ताव को 24 वोट पक्ष में मिलने के बाद स्वीकार कर लिया गया, जबकि 9 वोट के विरोध में डाले गए. वोटिंग में भारत सहित 14 सदस्य अनुपस्थित रहे. इस प्रस्ताव के पास होने से इजरायल द्वारा अंतरराष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन को जांचने के लिए स्वतंत्र आयोग गठित करने का रास्ता साफ हो गया है. इजरायल इस बार भी पहले की तरह सहयोग नहीं करेगा. बावजूद इसके इस पूरे घटनाक्रम ने भारतीय स्टैंड में स्पष्ट बदलाव को कंफर्म कर दिया है, जिसे कईयों ने 16 मई को UN सुरक्षा परिषद में भारतीय हस्तक्षेप और 20 मई को UN जेनरल असेंबली में भारतीय बयान में देखा होगा.
सुरक्षा परिषद मीटिंग में भारत के स्थाई प्रतिनिधि टीएस. त्रिमूर्ति, इस मामले में भारत के परंपरागत पॉलिसी को भी दुहराते हुए नजर आए जब उन्होंने कहा कि रमजान के दौरान अल अक्सा मस्जिद में इजराइली फोर्स के घुसपैठ ने शांति को भंग किया. 3 दिन बाद इस प्वाइंट को भारत ने अपने जनरल असेंबली के भाषण में जगह नहीं दी,जहां फिलिस्तीनियों के लिए सहानुभूति सुरक्षा परिषद की अपेक्षा व्यापक है.
भारत के बाद के बयान ने भी इसी धारणा को मजबूत किया कि हमारा पूरा समर्थन इजराइल को ही है. भारतीय नागरिक सौम्या संतोष(जो इजराइल में नर्स के रूप में कार्यरत थीं) का इस संघर्ष में दुखद निधन हुआ और इस पर भारत ने शोक जताया. भारत के द्वारा हमास के रॉकेट अटैक की निंदा न्यायोचित होती,चाहे हमास को इजरायल ने कितना ही उकसाया क्यों ना हो. लेकिन इजराइली केस की समझ दिखाने में भारतीय स्टैंड जनरल असेंबली में इससे कहीं आगे निकल गया.
आश्चर्यजनक ढंग से भारत ने कहीं पर भी यह नहीं कहा कि इजरायल द्वारा कई गुना मजबूत और संगठित मिलिट्री के साथ जवाबी कार्यवाही अस्वीकार्य है, विशेषकर जब इजराइली हमले से आम फिलिस्तीनियों की मौत हुई ,जिसमें कई महिलाएं और बच्चे शामिल थें.साथ ही मीडिया ऑफिस पर इजरायली हमले की हमारी तरफ से कोई निंदा नहीं हुई जबकि यह हमला सूचना के स्वतंत्र प्रवाह के सिद्धांत को कमजोर करता है.
भारत का 27 मई को ह्यूमन राइट काउंसिल में लाए गए प्रस्ताव के वोटिंग में अनुपस्थित रहना उसके पॉलिसी शिफ्ट की पुष्टि करता है. इस प्रस्ताव में अंतरराष्ट्रीय कानूनों को दोहराने के साथ-साथ इजरायल द्वारा वैश्विक स्तर पर स्वीकृत मानवाधिकार के अनुपालन पर जोर दिया गया था.
अब वह फिलिस्तीनियों की तरफ से जवाबी कार्यवाही की भी निंदा कर रहा है जबकि अतीत में भारत इसे सख्त इजराइली पॉलिसी के प्रतिक्रिया में देखता था और कई बार तो न्यायोचित भी करार देता था .इजराइल से मजबूत होते संबंध के साथ भारत ने UN ने उसके खिलाफ प्रस्ताव शुरू करना बंद कर दिया ,जबकि उन्हें अपना वोट देना जारी रखा है. इसे इजरायल विरोधी प्रस्ताव में भारत के स्टैंड के रूप में देखा गया.
यह आसान नहीं है. दिल्ली में नीति-निर्माताओं को कई बातों का ध्यान रखना चाहिए. फिलिस्तीनी उद्देश्य के लिए भारत के 19 करोड़ मुस्लिमों के समर्थन को देखते हुए इसमें स्पष्ट घरेलू हित भी शामिल हैं. यही भारत का अरब समर्थक रूख का भी कारण है. खाड़ी देश में लगभग 60 लाख भारतीय कार्यरत हैं और यह भारत के लिए धन का एक प्रमुख स्रोत है, जिसे भारत खतरे में नहीं डालना चाहेगा.
दूसरी तरफ अरब क्षेत्र भी इजराइल के प्रति अपने स्टैंड को लेकर बदल रहा है, जहां कई देशों ने इजराइल को मान्यता देना शुरू कर दिया है .इजराइल को वह क्षेत्र में बढ़ते कट्टरपंथी इस्लामवाद के खतरे के खिलाफ समर्थक के रूप में देखते हैं. इससे कई खाड़ी देशों के शासनाध्यक्षों को खतरा हो सकता है. अभी भारत द्वारा अपने इजराइल समर्थक रुख को और मजबूत करने से भारत को नकारात्मक असर के होने का खतरा कम है.
इन तीन UN मीटिंगों ने इजराइल के प्रति भारत के झुकाव को स्पष्ट कर दिया है. फिर भी एक संतुलन प्राप्त करने की जरूरत है. विदेशों में बीजेपी सरकार द्वारा हिंदुत्व कट्टरता के प्रचार को लेकर चिंताएं बढ़ती जा रही है. भारत द्वारा पूरी तरह से इजराइल का पक्ष लेने के रुख को मुस्लिम वर्ल्ड में इस्लाम के खिलाफ यहूदी-हिंदू धुरी के रूप में देखा जा रहा है. यह कतई हमारे हित में नहीं है,चाहे दिल्ली में जिस किसी की भी सरकार हो.
भारत का लंबे समय से मत रहा है कि दोनों पक्ष को हिंसा त्याग कर 'टू-स्टेट सॉल्यूशन' के लिए शांति वार्ता पर लौटना चाहिए. दोनों तरफ के लोगों के समान संप्रभु अधिकारों के साथ इजरायल-फिलीस्तीन के बीच सार्थक शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए कोई दूसरा रास्ता नहीं है.
अभी नेतन्याहू के ट्वीट और मलिकी के लेटर से स्पष्ट होता है कि हमने दोनों पक्षों को निराश करने का जोखिम लिया है. अभी हमारी पॉलिसी हारती दिख रही है. इसे हमें अपने पक्ष में करने की कोशिश करनी चाहिए.
जैसा कि कुछ देशों ने दोनों पक्षों से अच्छा संबंध बना रखा है ,भारत को मिडिल-ईस्ट में एक विशेष दूत की नियुक्ति पर गंभीरता से विचार करना चाहिए,ताकि इजरायल और फिलिस्तीन के बीच शांति बहाली में हम अपनी सहायता दे सकें.अतीत में भी हमारे पास ऐसे मौके थे लेकिन हमने उसे गंवा दिया. शायद मोदी सरकार द्वारा इसे पुनर्जीवित करने का समय आ गया है.
(डॉ. थरूर तीसरी बार तिरुवनन्तपुरम से सांसद हैं. वह 22 किताबें लिखने वाले पुरस्कार प्राप्त लेखक भी हैं. उनकी हाल की किताब है ‘द बेटल ऑफ बिलॉगिंग्स’ (एल्फ). उनका ट्विटर हैंडल @ShashiTharoor है. यह एक ओपनियन लेख है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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