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किसी भी देश के लिए इससे भी ज्यादा खराब वक्त क्या होगा कि एक तरफ वह पहले से ही आर्थिक संकट और इससे उत्पन्न हुई राजनीतिक आस्थिरता की दोहरी मार झेल रहा हो और इसी बीच उसका प्रधान मंत्री अचानक हिंसक माहौल के बीच सत्ता से बाहर निकल जाए. यह हालात श्रीलंका Sri Lanka के हैं जहां प्रधान मंत्री महिंदा राजपक्षे (Prime Minister Mahinda Rajapaksa) आर्थिक और राजनीतिक लड़खड़ाहट के बीच हिंसक प्रदर्शन के दौरान अचानक और अभूतपूर्व रूप से पद से इस्तीफा देते हुए सत्ता से बाहर हो गए. निश्चित तौर पर श्रीलंका के लिए यह सबसे खराब दौर है, लेकिन विडंबना यह है कि कोई भी उन दो जटिलताओं के बारे में बात नहीं कर रहा है, बल्कि उस हिंसा पर ध्यान केंद्रित कर रहा है जिसमें कुरुनेगला में महिंदा सहित कई सत्तारूढ़ दल के राजनेताओं के घरों और अन्य संपत्तियों को आग लगा दी गई. दक्षिणी मेदामुलाना में राजपक्षे के पैतृक घर और माता-पिता के स्मारक और तांगले में उनके दिवंगत पिता डीए राजपक्षे की प्रतिमा को नष्ट कर दिया.
बीते दिनों हिंसा तब शुरू हुई जब महिंदा के भक्तों या वफादारों को यह पता चला कि महिंदा ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने का फैसला कर लिया है, इसके बाद समर्थकों ने पूर्व नियोजित हमले शुरू कर दिए. उनके बाहर निकलने पर जनता ने जो विरोध किया ये हमले उसके खिलाफ थे. उनके हमले प्रधान मंत्री के आधिकारिक निवास 'टेंपल ट्रीज' के बाहर और बाद में राजधानी कोलंबो में गाले फेस ग्रीन बीचफ्रंट पर हुए जहां श्रीलंका का अपना 'अरब स्प्रिंग' हफ्तों से चल रहा था. हालांकि अंतरराष्ट्रीय मीडिया में जो दावा किया जा रहा था उसकी तुलना में हमलों की संख्या कम थी.
काश वे यह समझ पाते कि जन आंदोलन के पीछे उन प्रदर्शनकारियों का खतरा छिपा है जो हिंसक होने की कगार पर हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि इन समूहों ने समन्वित हमलों में पूरी ताकत से जवाबी कार्रवाई की पहले. उनके सामने खड़े 'महिंदा खेमे के गुंडों' के खिलाफ, जो हिंसक भी थे और बाद में सिंहाला साउथ में दर्जनों घरों में आग लगाकर, जिनमें से सभी की पहचान सांसदों और सत्तारूढ़ श्रीलंका पोदुजाना पार्टी (एसएलपीपी) के अधिकारियों के रूप में की गई है, इनमें से राष्ट्रपति गोटाबाया एकमात्र ऐसे राजपक्षे हैं जो निर्वाचित कार्यालय में बचे हैं जबकि एक महीने पहले तक यह संख्या कम से कम आधा दर्जन थी.
राष्ट्रव्यापी हिंसा को भड़काने में महिंदा के कार्यकर्ताओं की स्पष्ट भूमिका को अलग कर दें तो, शायद वे (महिंदा) गलत समय पर गलत जगह पर गलत आदमी थे और उन्हें गलत वजहों से दंडित किया गया.
विरासत में मिले आर्थिक संकटों के अलावा कोरोना महामारी से पहले के मुद्दे जैसे कि महिंदा के राष्ट्रपति काल (2005-15) के दौरान चीनी परियोजनाओं और प्रशंसित लिट्टे उन्मूलन के साथ ही गोटाबाया द्वारा की गई टैक्स कटौती और छूट सबसे महत्वपूर्ण थी, जिसकी वजह से रेवेन्यू में 25 फीसदी और टैक्स पेयर्स यानी करदाताओं की संख्या में 10 लाख की कमी आयी. उसके बाद रातोंरात जैविक खेती यानी ऑर्गेनिक फार्मिंग में जाने का निर्णय वो भी चीन से होने वाले आयातों के आधार पर, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार ने यह निर्णय उस समय लिया जब देश का विदेशी मुद्रा भंडार सूख चुका था.
महिंदा ने उस समय कुछ परिचितों से कथित तौर पर कहा था कि 'मेरी एकमात्र गलती उन्हें राष्ट्रपति बनाना थी.' हां, महिंदा ने 40 फीसदी मतदाताओं की अटूट वफादारी की कमान संभाली और महिंदा के कहने पर श्रीलंका ने गोटबाया का वोट दिया. गोटाबाया अभी भी राष्ट्रपति पद पर हैं, लेकिन महिंदा की लोकप्रियता शून्य या अब तक के सबसे निचले स्तर पर है.
जैसे कि देखने को मिला, महिंदा का प्रधान मंत्री पद सर्व-शक्तिशाली कार्यकारी अध्यक्षता की तुलना में अनिश्चित था. महिंदा के इस्तीफे की जोरदार चर्चा चल रही थी लेकिन सरकार तैयार नहीं थी. बीते सोमवार को हुई राष्ट्रव्यापी हिंसा (शुक्र है कि उत्तर और पूर्व में तमिल क्षेत्रों को हिंसा ने नहीं छुआ) के बाद कोई भी प्रधान मंत्री नहीं बनना चाहता.
फिर भी, विपक्षी समागी जन बालवेगया (एसजेबी) चाहता है कि गोटाबाया बाहर हो जाएं और अब राजनीतिक रूप से हमला करने का उनके लिए सबसे अच्छा समय है. ऐसा नहीं है कि अब गोटाबाया को एसजेबी चाहिए, खास तौर पर वे पार्टी नेता साजिथ प्रेमदासा को पीएम के तौर पर नहीं देखना चाहते हैं. महिंदा के जबरन बाहर निकलने के बाद, उनके साथ एसएलपीपी कैंप के सभी 150 सांसद वापस आ गए हैं, जिनमें तीन समूहों में तथाकथित 40 'विद्रोही' भी शामिल हैं. भले ही यह एक अकल्पनीय 'राष्ट्रीय / अंतरिम सरकार' हो, लेकिन वे सरकार में वापसी के लिए उत्सुक हैं. जैसा कि पिछले तीन साल से होता आ रहा है, प्रधानमंत्री उनकी पसंद का होगा और उनके शब्द कानून होंगे.
केवल जांच से ही पता चल पाएगा कि जब महिंदा समर्थक गुंडों ने कोलंबो की सड़कों पर हमला किया था तब पुलिस और सुरक्षा बल निष्क्रिय क्यों थे. इसके दो कारण हो सकते हैं या तो वे हतोत्साहित थे या वे भी व्यक्तिगत स्तर पर आर्थिक और विदेशी मुद्रा संकट के प्रभाव को महसूस कर रहे थे. (पश्चिमी राजनयिकों ने राजधानी कोलंबो में पहले उस भीड़ पर गोलियां चलाने के लिए पुलिस को दोषी ठहराया था, जिसका इरादा राजपक्षे के विरोध में पेट्रोल टैंकर/बोसर में आग लगाने का था.)
सुरक्षाकर्मी जवाबी हिंसा को दबाने की कोशिश कर रहे हैं, जहां पहले दौर में राजपक्षे विरोधी समूह जीत रहे हैं. हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि दूसरा दौर होगा या नहीं और यह भी स्पष्ट नहीं है कि क्या प्रदर्शनकारी अब गैर-महिंदा और गैर-राजपक्षे सांसदों को भी निशाना बनाएंगे या नहीं.
संगठित अराजकता को कम करने में सुरक्षा बलों की भूमिका, जो बनती हुई प्रतीत हो रही है, उसके बारे में कुछ भी कहना और किसी प्रकार की भविष्यवाणी करना मुश्किल होगा और अभी यह जल्दबाजी होगी. इस बीच गोटबाया के इस्तीफे की कभी न खत्म होने वाली मांग है, साथ ही कार्यकारी अध्यक्ष पद की संवैधानिक समाप्ति भी है।
न तो राष्ट्रपति गोटाबाया, विपक्षी एसजेबी और न ही सड़क पर प्रदर्शन करने वाले प्रदर्शनकारियों को इस बात का कुछ भी अता-पता है कि उन्होंने जो शुरू किया था उसे खत्म कैसे किया जाए. हालांकि स्वतंत्र रूप से अलग-अलग, लेकिन उनमें से हर कोई किसी न किसी पॉइंट पर अपना राग अलाप रहा है. जिसने भी राजपक्षे के विरोध की योजना बनाई थी, जाहिर तौर पर उसने आगे की यानी 'परसों' के लिए साजिश नहीं रची थी. यही देश की स्थिति है.
श्रीलंका एक चौराहे पर आ गया है. लगातार चलते आ रही राजनीतिक अस्थिरता और गतिरोध की पराकाष्ठा बीते सोमवार को देखने को मिली, जब प्रतिस्पर्धी भीड़ हिंसक हो गई. इस स्थिति ने पर्यटन, आने वाले धन और निर्यात क्षेत्रों के द्वारा होने वाले सीमित आर्थिक सुधार की संभावना को भी खतरे में डाल दिया है. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और कुछ अन्य सरकारें जो अभी भी श्रीलंका में निवेश करने का जोखिम उठा सकती हैं, वे सहायता वार्ता को जल्दी शुरू करने में संकोच कर सकती हैं क्योंकि वहां "स्थिर" कहलाने वाली कोई सरकार नहीं है. वास्तविक रिकवरी के लिए वर्षों तक लंबा इंतजार करना होगा. रूढ़िवादी अनुमानों के अनुसार इसमें पांच से 15 साल तक समय लग सकता है. इसमें यह केवल शुरुआत होगी, अन्य चीजें सामान्य होने पर और पूरी तरह से रिकवर होने में और भी ज्यादा समय लग सकता है.
राजनीतिक, आर्थिक और हर तरह से श्रीलंका डूबने की कगार पर है. इसकी वजह से देश की सांस्कृतिक प्रगति सदियों पीछे और जातीय पहचान कम से कम दशकों पीछे जा सकती है. जिसकी वजह से भले ही हिंसा न हो लेकिन अंतहीन तनाव जरूर शुरु हो सकता है.
वर्षों से श्रीलंका का अमीर-गरीब और हर जाति के लोह भारत से अपेक्षा करते आए हैं कि उन्हें बचाए. आज जब भारत उन्हें बचाने की कोशिश कर रहा है तो वहां कोई श्रीलंकाई नहीं है जो चाहता है कि उन्हें बचाय जाए.
(एन साथिया मूर्ति, लेखक एक नीति विश्लेषक और टिप्पणीकार हैं जोकि चेन्नई में रहते हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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