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मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे (Chief Minister Uddhav Thackeray) के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र की महा विकास अघाड़ी (MVA) सरकार की संख्या और सत्ता को जब तक कोई चमत्कार फिर से वापस नहीं लाता है, ऐसा लग रहा है कि आज या कल में इस सरकार के महाराष्ट्र के राजनीतिक इतिहास का एक अध्याय बनने की संभावना है. ठाकरे की अध्यक्षता वाली शिवसेना पार्टी में बगावत का नतीजा है कि सरकार में संकट मंडरा रहा है.
एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले विद्रोही गुट का दावा है कि उनके साथ 40 से अधिक विधायक (दलबदल विरोधी कानून से बचने और खुद को "असली" शिवसेना के रूप में स्थापित करने के लिए आवश्यक दो-तिहाई से अधिक) हैं. ऐसे में न केवल सरकार में रहने के लिए बल्कि शिवसेना संस्थापक और उद्धव के पिता दिवंगत बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत को संभालने के लिए भी एक कठिन लड़ाई के लिए मंच तैयार है.
अक्टूबर 2019 में विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद अपनी पार्टी के स्वाभाविक सहयोगी भारतीय जनता पार्टी (BJP) के साथ संबंध तोड़ने से लेकर कांग्रेस व नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (NCP) के साथ एक अस्वाभाविक गठबंधन बनाने और पूर्व प्रशासनिक अनुभव के बिना मुख्यमंत्री बनने तक अपने खेल में शीर्ष पर रहने वाले उद्धव ठाकरे आज भटके हुए एक नेता और इंसान की तरह दिखाई दे रहे हैं. इस सप्ताह की शुरुआत में उन्होंने मुख्यमंत्री का आधिकारिक आवास वर्षा को खाली कर दिया. अगर वह मुख्यमंत्री के रूप में पद छोड़ देते हैं (जब तक कि वह चमत्कार उन्हें जीवन रेखा प्रदान नहीं करता है) वह इस बात पर चिंतन करना चाहेंगे कि वे क्या छोड़कर जा रहे हैं.
एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना के बागी गुट ने 40 से अधिक विधायकों का दावा किया है. इसके साथ ही उन्होंने न केवल सरकार में रहने के लिए, बल्कि सेना के संस्थापक और उद्धव के पिता, दिवंगत बाल ठाकरे की विरासत को संभालने के लिए भी लड़ाई के लिए मंच तैयार किया है.
कांग्रेस और एनसीपी के बीच नई साझेदारी के बावजूद उद्धव को यह समझना चाहिए था कि उनके पास राजनीतिक स्पेक्ट्रम में भरोसेमंद दोस्तों की कमी है.
शरद पवार और भतीजे अजीत पवार के बीच सत्ता संघर्ष में फंसी एनसीपी सत्ता चाहती थी बीजेपी या शिवसेना, जो भी इसे देने को तैयार हो.
शिवसेना को वैचारिक रूप से अधिक वाजिब और बाहुबल पर कम निर्भर बनाने के प्रयास में, उद्धव ठाकरे ने धीरे-धीरे जमीनी स्तर के नेताओं को अलग-थलग कर दिया, जिन्होंने "ज्वलंत हिंदुत्व" की कसम खाई थी.
ठाकरे का ध्यान उन छल-कपट और घटिया हथकंडों को दूर करने पर नहीं है, जिनका इस्तेमाल बीजेपी मौजूदा सरकार को अस्थिर करने के लिए तब से कर रही है जब से यह सरकार बनी है. देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व वाली बीजेपी ने पार्टी के सदस्यों और कमजोर मीडिया के सहयोग से सभी घटना, चाहे वह छोटी हो या बड़ी, राजनीतिक हो या न हो, उनका बड़ी ही बेशर्मी से इस्तेमाल सरकार पर दोषारोपण करने के लिए, विधानसभा के फ्लोर से बाहर रखने के लिए और जांच एजेंसियों आदि के माध्यम से मंत्रियों व नेताओं पर दबाव बनाने के लिए किया है.
भले ही पार्टी को 288 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत नहीं मिला, लेकिन पार्टी के शीर्ष नेताओं के कुशल नेतृत्व और समर्थन वाली टीम फडणवीस को लगता है कि 2019 का जनादेश पार्टी के लिए था. तभी से उन्हें लगता है कि सत्ता की हकदार वे हैं. कैसे भी करके, कुछ भी करके या किसी भी तरीके से या विधायकों को बहला-फुसलाकर बीजेपी सत्ता हथियाने के लिए दृढ़-संकल्पित है.
यह दिखाने के लिए बहुत जगह है कि शिंदे के विद्रोह को बीजेपी का समर्थन और संसाधन प्राप्त है. इस तरह के दांव-पेंच और चालबाजी का टेम्प्लेट होता है जिसे 'हॉर्स-ट्रेडिंग' कहा जाता है. अब तक इस हॉर्स ट्रेडिंग का इस्तेमाल आधा दर्जन से ज्यादा राज्यों में किया जा चुका है, इसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि यह राजनीति करने का डिफ़ॉल्ट तरीका बन गया है. इन्हें अक्सर "ऑपरेशन लोटस" या "ऑपरेशन कमल" के नाम से जाता है. विपक्षी पार्टियों द्वारा इसको लेकर असंतोष भी दर्ज कराया जाता है लेकिन इसके बावजूद भी इसे वैध राजनीति के तौर पर स्वीकार किया जाता है. बीजेपी के पास विशाल संसाधन और एजेंसियां हैं और इस टेम्प्लेट के साथ वह बार-बार सफल होती है. इसका मतलब ये है नहीं है कि ये वैध है. और न ही अत्यधिक उत्साहित टेलीविजन एंकरों के इसको 'चाणक्यनीति' का नाम देने भर से ये 'चाणक्यनीति' है.
महाराष्ट्र में सत्ता हथियाने के लिए बीजेपी की हताशा कम से कम तीन कारणों से आती है :
आर्थिक और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित करने के लिए मुंबई-महाराष्ट्र में सरकार चलाने का कद.
इस साल के अंत में मुंबई, ठाणे और अन्य शहरों में बड़े निकाय चुनाव जीतने की आकांक्षा; और
भीमा कोरेगांव मामले में हालिया घटनाक्रम से जो संकेत मिल रहे हैं उसके अनुसार हो सकता है अन्य एजेंसियों के साथ पुणे पुलिस और बाकी एजेंसियों ने (वामपंथी विचारक और कार्यकर्ता) के डिवाइस में छेड़छाड़ की हो, ताकि वहां वे सबूत प्लांट किए जा सकें जो आरोपियों को फंसाते हो. ये एक ऐसा कार्य है जो तत्कालीन मुख्यमंत्री और गृह मंत्री फडणवीस के संज्ञान में आए बिना हो नहीं सकता.
ठाकरे ने इस (भीमा कोरेगांव) और अन्य मामलों की जांच शुरू नहीं की, या नहीं कर सके, इससे फडणवीस और महाराष्ट्र के अन्य बीजेपी नेताओं पर ज्यादा दवाब बनाया जा सकता था. पिछले ढाई वर्षों में उन्होंने (ठाकरे ने) सत्ता को कैसे संभाला इसकी कहानी ये केस खुद-ब-खुद बयां करता है. बतौर सरकार के मुखिया और शिवसेना प्रमुख अपनी सत्ता के कटाव को देखते हुए शायद ठाकरे इस बात की समीक्षा करना चाहें कि वे क्या छोड़कर जा रहे हैं या उनके पास क्या है.
नवंबर 2019 में सरकार के सत्ता में आने के बाद से, टीम फडणवीस ने शिवसेना को निशाना बनाया है, जिसका प्रतिनिधित्व ठाकरे करते हैं और अब इसमें उद्धव के साथ-साथ उनके बेटे आदित्य (एक कैबिनेट मंत्री) शामिल हैं. उद्धव ठाकरे ने खुद को, अपनी सरकार और अपनी पार्टी को मजबूत करने के लिए क्या किया? कांग्रेस और एनसीपी की नई साझेदारी के बावजूद उद्धव को यह समझना चाहिए था कि उनके पास राजनीतिक स्पेक्ट्रम में भरोसेमंद दोस्त नहीं हैं.
शरद पवार और भतीजे अजीत पवार (राज्य के गृह मंत्री भी) के बीच सत्ता संघर्ष में फंसी एनसीपी सत्ता चाहती थी बीजेपी या शिवसेना, जो भी इसे देने को तैयार हो. एनसीपी किसी भी पार्टी के कंधे पर सवार होकर सत्ता चाहती है. सीनियर पवार भले ही पार्टियों को एमवीए के तौर पर एक साथ लेकर आए, लेकिन यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि 2014 और 2019 के विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद एनसीपी सत्ता के लिए फडणवीस के साथ गठबंधन करने के लिए तैयार थी. पवार और ठाकरे ने पिछले ढाई साल में एक-दूसरे की जमकर तारीफ की, वहीं शायद ठाकरे ने महाराष्ट्र के मास्टर रणनीतिकार की हर बात पर विश्वास किया. जिन लोगों ने पवार को ध्यान से देखा है, वे समझ सकते हैं कि यह एक गंभीर भूल थी. अंत में, ठाकरे के दोस्त न तो कांग्रेस और न ही एनसीपी बने.
इसके बाद महाराष्ट्र का व्यापक राजनीतिक परिदृश्य है, जहां चार दल सत्ता के लिए संघर्ष कर रहे हैं. बिग फोर (कांग्रेस, एनसीपी, बीजेपी और शिवसेना) और छोटे दलों का समूह जो स्थानीय चुनावों व गठबंधन के लिए मायने रखता है उनके लिए पर्याप्त जगह नहीं है. स्पष्ट रूप से उनमें से बीजेपी अच्छा प्रदर्शन कर रही है. 1990 में शिवसेना के साथ अपने पहले गठबंधन में बीजेपी ने 10.7 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 42 सीटें जीतीं थी जबकि शिवसेना को लगभग 16 प्रतिशत के साथ 52 सीटें मिलीं थी; वहीं 2019 में बीजेपी ने 25.7 फीसदी वोट शेयर के साथ 105 सीटें हासिल की हैं, जबकि शिवसेना 16.4 फीसदी वोट के साथ केवल 56 सीटों पर ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकी. बिना अधिक प्रयास और कम से कम संसाधनों के साथ कांग्रेस पिछले चुनाव में 44 सीटों पर जीत दर्ज की है और एनसीपी विस्तार करना चाह रही है.
साफ तौर पर यह स्पष्ट है कि शिवसेना को बीजेपी के साथ-साथ एनसीपी से अपने अस्तित्व के लिए खतरा है; इसके कम होने या खत्म होने में इन दोनों दलों का भविष्य निहित है, ऐसा लगता है कि उद्धव जब अपने पिता के निधन के बाद सेना को फिर से बनाने और फिर से स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे तो उन्हें ये बात नहीं रही. राजनीतिक दांव-पेंच के मामले में उनके विरोधी बीजेपी और दोस्त एनसीपी ने उन्हें मात दे दी. यहां तक कि कुछ बागियों या विद्रोहियों की शिकायतों ने भी इसका समर्थन किया है : उनकी शिकायत है कि शिवसेना का मुख्यमंत्री होने के बावजूद महाराष्ट्र का प्रशासन एनसीपी और कांग्रेस के प्रति अधिक संवेदनशील लग रहा था. इसी तरह बागियों का कहना है कि शिवसेना की तुलना में एमवीए सरकार में दो अन्य दलों द्वारा परियोजनाओं और आवंटन को आसानी से मैनेज किया गया था.
शिवसेना को जो नुकसान है वह इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है. यह सच है कि पार्टी ने पहले भी विद्रोहों का सामना किया और दृढ़ रही. 1991 में शरद पवार द्वारा बिछाई बिसात की वजह से सेना का एक बड़ा हिस्सा टूट गया था तब जब छगन भुजबल ने 19 विधायकों और कई अन्य लोगों के साथ शिवसेना छोड़ दी थी. तब से कई नेता सेना छोड़कर जा चुके हैं.
पहले की बगावत के दौरान दिवंगत ठाकरे को इस तरह के आरोपों का सामना नहीं करना पड़ा, विशेष रूप से आखिरी आरोप जैसा.
शिवसेना को वैचारिक रूप से अधिक वाजिब व बाहुबल पर कम निर्भर बनाने और आदित्य की कल्पना के अनुसार इसके अधिक शहरीकरण के प्रयास में, उद्धव ठाकरे ने धीरे-धीरे जमीनी स्तर के नेताओं को अलग-थलग कर दिया, जिन्होंने "ज्वलंत हिंदुत्व" (आक्रामक या जुझारू हिंदुत्व) की कसम खाई थी. इसके अलावा ठाकरे ने अपने स्वाभाव से अलग दिखने वालों के साथ बेमेल जोड़ी बना ली. ठाकरे ने उनसे फीडबैक लेने या बोर्ड पर लाने के लिए संवाद के किसी भी चैनल को खुला नहीं रखा. यही अब उन्हें परेशान करने के लिए वापस आ गया है.
राजनीतिक दलों का निर्माण या पुनर्निर्माण एसी कमरों से नहीं किया जा सकता है, जिसमें पर्दे के पीछे से सलाहकार रूपरेखा निर्धारित करते हैं. इसे एकनाथ शिंदे जैसे जमीनी स्तर के नेताओं के सक्रिय सहयोग से जमीनी स्तर पर करना होगा. इस मामले में उद्धव को यह स्वीकार करना होगा कि वह यहां लापरवाह पाए गए. एक ओर मंत्रियों को मंच से दूर रखा जाता है लेकिन वहीं दूसरी ओर आदित्य हर जगह मुख्यमंत्री के साथ नजर आते हैं. ऐसे में दूसरे पायदान पर नाराजगी तो होनी ही थी. बीजेपी ने इस फूट या दरार को खोजा और उसका फायदा उठाया.
हाल ही में उद्धव ठाकरे ने हिंदुत्व के प्रति अपनी और पार्टी की प्रतिबद्धता को दोहराया है. बीजेपी और शिवसेना द्वारा प्रतिपादित हिंदुत्व के बीच का अंतर राजनीति विज्ञान के विद्वानों द्वारा किए गए शोध प्रबंधों की सामग्री है. लेकिन इतना कहना ही काफी है कि ठाकरे का ब्रांड पार्टी के कैडर और कोर चुनावी क्षेत्र में भ्रमित या कम महत्वपूर्ण लग रहा था. इसका मतलब यह नहीं है कि शिवसेना को अपने "ज्वलंत हिंदुत्व" (वैसे ही अब चाहे जो भी हो यह बीजेपी के साथ जुड़ा हुआ है) पर वापस लौटना चाहिए, हो सकता है कि हिंदुत्व कार्ड अब शिवसेना के लिए काम न करे.
जहां अभी बीजेपी का वर्चस्व है वहां क्षेत्रीय पार्टियों, जो किसी राज्य या समुदाय की आकांक्षाओं को स्पष्ट तौर पर व्यक्त करती हैं, के लिए मौका है; पश्चिम बंगाल, तेलंगाना और तमिलनाडु इसके कुछ उदाहरण हैं. ठाकरे मराठी उप-राष्ट्रवाद के कार्ड को अपना कर सूझबूझ दिखा सकते थे बजाय हिंदुत्व कार्ड को चुनने के, जिसे बीजेपी ने छीन लिया है.
अब भी, उन्हें बहुत कुछ ठीक करना है और कई सबक लेकर जाना है.
(स्मृति कोप्पिकर, मुंबई की एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आप पॉलिटिक्स, शहरों, जेंडर और मीडिया जैसे विषयों पर लेखन करती हैं. ट्विटर पर @smrutibombay से ट्वीट करती हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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