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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का एक साल मौन धूम धड़ाके के साथ पूरा हो रहा है, क्योंकि कोविड-19 महामारी ने इसकी मिश्रित कामयाबियों के दंभ को सीमित कर दिया है. कोरोना वायरस संकट से निपटने में सरकार ने जो अक्षमता, संवेदनहीनता और तानाशाही दिखाई है, और सरकारी उपेक्षा और अव्यवस्था के बीच लाखों की तादाद में अपने घर लौटते प्रवासी मजदूरों ने जो दर्दनाक पीड़ा झेली है, इससे उन्हें पहली वर्षगांठ का विजयोत्सव मनाने का मौका नहीं मिल पाया है.
2019 के चुनाव में बीजेपी ने मोदी को 56-इंच का सीना वाला बलवान राष्ट्रवादी के तौर पर पेश किया था – एक अकेला इंसान जो कि देश को आतंकवादियों, घुसपैठियों, ‘राष्ट्रद्रोहियों’ और उन ‘दीमकों’ से महफूज रख सकता है जो बहुसंख्यक हिंदू राष्ट्र के उस ढांचे को खोखला करने की कोशिश कर रहे हैं जिसे मोदी बना रहे थे. और इसका बीजेपी को फायदा भी मिला.
यूपीए सरकार से उधार ली गई कल्याणकारी योजनाओं का बेहिचक इस्तेमाल, ग्रामीण इलाकों में शौचालय और रसोई गैस मुहैया कराने जैसी ‘सूक्ष्म-विकास’ की योजनाओं को होशियारी से पेश करना और भरपूर फंडिंग से बनी संगठनात्मक दक्षता - जिसके लिए सत्तारुढ़ पार्टी मशहूर है – की वजह से मोदी सरकार दोबारा इतने बड़े बहुमत से चुन कर आई जिसका जानकारों को भी अंदाजा नहीं था.
सरकार ने भारत की छवि बदलने के इरादे से काम शुरू किया था. पहले 100 दिनों में कई नए कानून पास कराकर, जिसमें तुरंत तलाक देने के इस्लामिक रिवाज या ‘तीन तलाक’ (तलाक-ए-बिद्दत) को अपराध बनाना और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष दर्जा को ध्वस्त करना शामिल था, सरकार ने ये दिखाने की कोशिश की उसने दृढ़ और निर्णायक कार्रवाई की मिसाल पेश की है.
अगले 100 दिनों में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद की जमीन हिंदू मंदिर बनाने की मांग करने वालों को दे दिया, नागरिकता (संशोधन) कानून पास कराया गया, जिससे – और साथ में पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर लागू होने के भय से - हर तरफ प्रदर्शन का तूफान खड़ा हो गया जिसका अंत राष्ट्रीय राजधानी में हुए दंगों में 56 लोगों की मौत के साथ हुआ.
इससे मोदी सरकार को अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर अपनी प्रचंड नाकामी को छिपाने का सुनहरा बहाना भी मिल गया, जो कि महामारी से पहले (रिकॉर्ड बेरोजगारी के साथ) लगातार नीचे गिरती जा रही थी और लॉकडाउन के नियमों के बाद तो ज्यादातर आर्थिक गतिविधियां ठप्प ही हो गई.
सरकार के दूसरे कार्यकाल की पहली वर्षगांठ की दुखदायी कहानी ये है कि इसमें पिछली गलतियों से सबक सीखने का कोई लक्षण दिखाई नहीं देता. महामारी से निपटने के तरीकों में – जिसमें लॉकडाउन के दौरान योजनाओं की कमी नजर आई, प्रवासी मजदूरों का मानवीय आपदा सामने आया, संघवाद पर हुकुमत दिखाने की कोशिश हुई, और अपर्याप्त प्रोत्साहन पैकेज में आंकड़ों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाया गया –शुरुआत से ही सरकार लड़खड़ाती दिखी.
सच तो ये है कि मोदी के आजमाए गए ज्यादातर अलग-सोच-वाले समाधानों ने फायदे से ज्यादा देश का नुकसान किया है, लेकिन ज्यादातर मतदाता इससे बेपरवाह नजर आते हैं, जो मोदी को उनकी कोशिशों के लिए पूरे नंबर देते हैं.
मोदी ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा छीनने का फैसला लेते हुए पूरे राज्य की तालेबंदी कर दी, राजनेताओं को गिरफ्तार किया गया और पूरी आबादी के टेलीफोन और इंटरनेट कनेक्शन काट दिए गए. निर्दोष कश्मीरी जनता को पीड़ा देने वाले इस फैसले से दुनिया में भारत की छवि और खराब हो गई.
आज देश में चारों तरफ नजर दौड़ाएं तो हमें क्या दिखता है? एक प्रधानमंत्री दिखता है जिसने भारतीय राजनीति की सभी परंपरा को उलट-पुलट कर रख दिया है, कानून-व्यवस्था देखने वाली एजेंसियों को मामूली आरोपों की जांच में विपक्ष के नेताओं के पीछे छोड़ दिया जाता है, ऐसे मंत्रियों को बढ़ावा दिया जाता है जिनकी विभाजनकारी बयानों से मुसलमान और दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय भयभीत हो जाते हैं, और मीडिया और इसके मालिकों को इतना डराया जाता है कि उनकी कवरेज भारतीय लोकतंत्र की संस्कृति के लिए शर्मनाक नजर आती है.
संसद स्थगित है लेकिन प्रेस कॉन्फ्रेंसों में एक के बाद एक ऐसे फैसलों की घोषणा की जा रही है जिनके लिए विधायी रजामंदी लेना जरूरी होता है. संसद की स्थायी समितियों की वीडियो-कॉन्फ्रेंस मीटिंग के लिए, जो कि आम तौर पर संसद के सत्र के दौरान होती है, भेजे गए आवेदन कई हफ्तों से टाले जा रहे हैं.
मोदी के कई प्रशंसक कहते हैं देश में दशकों से चले आ रहे ‘कमजोर इरादों वाले’ प्रजातंत्र और सबको ‘खुश करने वाली’ गठबंधन सरकार के बाद सत्ता एक सख्त नेता के हाथ में आई है.
लगभग सभी स्वतंत्र संस्थान खोखले कर दिए गए हैं और वो सरकारी दबदबे का साधन बन गए हैं. जहां टैक्स प्राधिकरणों के लिए ये उतनी हैरानी की बात नहीं है, वित्तीय जांच एजेंसियां, कानून-व्यवस्था और खुफिया-तंत्र की मशीनरी, यहां तक कि स्वायत्त होने के लिए मशहूर चुनाव आयोग और न्यायपालिका भी इन चिंताओं से अछूती नहीं रही हैं.
राजनीतिक स्वतंत्रता अब कोई नैतिक गुण नहीं रह गया है; प्राधिकरणों के नियंत्रण और बाकी सभी की सहमति को तरजीह दिया जाता है. स्कॉलर और
समीक्षक प्रताप भानु मेहता लिखते हैं कि ‘याद नहीं आता इससे पहले कब... सरकार की धुन में पब्लिक और प्रोफेशनल बातों के बदले इतना बड़ा इनाम मिलता था.’
भारत हमेशा से समावेश की धरती रही है, तीन हजार सालों से सभी देशों और धर्मों के सताए गए लोगों को भारत ने आश्रय दिया है; आज यहां की सरकार रोहिंग्या शरणार्थियों को ठुकरा देती है क्योंकि वो मुस्लिम हैं, ‘विदेशियों’ (1971 के बाद यहां रहने वाले या जन्म रहने वाले, जिससे लाखों ऐसे लोग बेघर हो जाएंगे जिनका कोई और ठिकाना नहीं है) को बाहर निकालने के लिए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) तैयार करती है.
हमारी आंखों के सामने ही देश का पूरा चरित्र बदलने की कोशिश हो रही है, ऐसा एक ऐसी सरकार कर रही है जिसे आजादी के बाद से हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित और अमल में लाई गई परंपरा के लिए कोई आदर नहीं है. इनके लिए सिर्फ ‘साहस’ ही मायने रखता है.
मुझ जैसे उदार प्रजातंत्रवादियों की सबसे बड़ी चिंता ये है कि हो सकता है भारत की जनता यही चाहती है, क्योंकि वो सीमित-तौर-पर-शिक्षित है और सत्तारुढ़ पार्टी के सुनियोजित प्रोपेगेंडा के बहकावे में आ गई है.
कई उदारवादी भारतीयों की चिंता ये है कि लंबे समय तक जो सौम्य और सर्वसमावेश हमारे देश की पहचान रही है – जो कि धर्म, जाति और भाषा में विविधिता के बावजूद बरकरार रही है – वो खत्म हो रही है. उसकी जगह जिस भारत का निर्माण हो रहा है वो पहले से – जिसका हम उत्सव मनाते थे - कम बहुलवादी, कम मतभेद स्वीकार करने वाली, कम समावेश वाली, और कम सहिष्णु रह गया है.
ये मोदी 2.0 के पहले साल की देन है. अगर भारत को अपनी खोई हुई आत्मा को दोबारा पाना है, तो अगले साल सरकार को अपना रास्ता बदलना होगा.
यूएन के पूर्व ‘अंडर सेक्रेटरी जनरल ‘शशि थरूर कांग्रेस सांसद और लेखक हैं. आप उनसे @ShashiTharoor पर संपर्क कर सकते हैं. यह लेखकों के निजी विचार हैं. द क्विंट का उनके विचारों को समर्थन जरूरी नहीं है, न ही हम उनके लिए जिम्मेदार हैं)
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Published: 22 May 2020,03:49 PM IST